सच्चे वेदान्ती-स्वामी रामतीर्थ

February 1964

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जन जीवन में नव-चेतना भरने के लिए समय-समय पर अनेक देवदूत अवतरित होते रहते हैं। भूले भटकों को राह दिखाना ही उनके अवतरण का उद्देश्य होता है। स्वामी रामतीर्थ इस शताब्दी के ऐसे ही युग-पुरुष थे।

आत्मवत् सर्वभूतेषुः का संदेश इनने मानव जाति को सुनाया और वेदान्त का शिक्षण देते हुए ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ का प्रतिपादन किया। यह जो कुछ भी है, सब ब्रह्म है। सब में परमात्मा की झाँकी करना- उसे घट-घट वासी मानते हुए अपने आचरण और व्यवहार को ऐसा रखना जो मानव संस्कृति के अनुरूप हो, यही उनके धर्म प्रचार का सार था। इस मिशन को लेकर वे देश-विदेश में घूमे। मानव का कल्याण उनने इन्हीं भावनाओं में देखा और उन्हें व्यापक बनाने के लिए जो भी सम्भव था प्राणपण में किया।

स्वामी रामतीर्थ का वेदान्त संसार को मिथ्या मान कर सबसे उदासीन होकर निठल्ले बैठे रहने वालों जैसा न था। वे आत्मा को ब्रह्म मानते थे पर अपने दोष दुर्गुणों को हटाते हुए उस स्थिति के पात्र बनने के लिए भी प्रेरणा देते थे। वे जानते थे कि पाप तापों में डूबा हुआ, नारकीय जीवन बिताने वाला, नर-पशु यदि अपने लक्ष्य एवं उद्देश्य के लिए कठोर तप न करेगा तो अहं ब्रह्मास्मि का उद्घोष एक मिथ्या अहंकार मात्र बनेगा और उससे मनुष्य जाति का हित नहीं अनहित ही सम्भव होगा।

अपनी वेदान्त मान्यताओं की उनने कई स्थलों पर कई प्रकार की व्याख्या की है। एक स्थान पर उनने कहा-”वेदान्त का अर्थ है - आत्म निर्भरता।” जो सर्वतो भावेन आत्म निर्भर है, एक बार उनने अनासक्ति को, निष्कर्म भाव से सत्कर्म करते रहने को वेदान्त बताया और एक बार यह भी प्रतिपादित किया कि आध्यात्मिक उन्नति का प्रत्येक प्रयत्न वेदान्त की साधना के अंतर्गत आता है।

जापान यात्रा के समय वहाँ के लोगों के गुण, कर्म, स्वभाव की प्रशंसा करते हुए उनने कहा- आप लोग निरन्तर हँसते, मुसकराते रहते और दिन भर कठोर परिश्रम में निमग्न रहते हैं। यह दोनों ही गुण वेदान्ती के हैं। इसलिए भले ही आप वेदान्त के दार्शनिक सिद्धान्तों से अपरिचित हों, आपको मैं व्यवहारिक वेदान्ती ही कहूँगा। अमेरिका जाने पर वहाँ के लोगों को उद्योगी, पुरुषार्थी और सचेत पाया तो इन विशेषताओं की प्रशंसा करते हुए कहा- आप लोगों की प्रगति का मूल कारण यह सद्गुण ही है। प्रत्येक सद्गुण वेदान्त सिद्धान्त का ही एक अंग मानना चाहिए।

अमेरिका में वे जिस व्यक्ति के यहाँ अतिथि रूप में ठहरें, वे उसके लिए कई बार जंगल से लकड़ियाँ काट कर लाया करते थे। तेज चलने की प्रतियोगिता उनने कई बार जीती पर पुरस्कार लेने के लिए कभी सहमत न हुए। एक अमेरिकन महिला अपने बच्चे की मृत्यु से दुखी होकर स्वामी रामतीर्थ के पास अपनी दुख निवारण की प्रार्थना लेकर आई। उनने उसे सुझाया कि एक अनाथ नीग्रो बालक गोद रख ले और उसका पालन करे। ममता को संकुचित न रखकर व्यापक बनायें तो उसका दुख दूर हो जायगा। महिला ने वही किया और उसका शोक नया पुत्र प्राप्त होने की प्रसन्नता एवं परोपकार के संतोष से सर्वथा जाता रहा।

कठिनाइयों और अभावों के बीच रहते हुए भी कोई तेजस्वी व्यक्तित्व किस प्रकार विकसित हो सकता है, इस तथ्य को उनने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके नई पीढ़ी को सिखाया कि अभाव और दुर्भाग्य का रोना रोने से कुछ लाभ नहीं। जिन भी परिस्थितियों में तुम हो उसी में आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दो, बाधाओं को मार्ग देना ही पड़ेगा। स्वामी राम का छात्र जीवन अभावों और कठिनाइयों से आच्छादित रहा। दो पैसा रोज की रोटी खरीदकर उन्हें अपना पेट भरना पड़ता था। रात को एक पैसे की रोटी मुफ्त दाल देने में जब दुकानदार ने इनकार किया तो उनने एक समय भोजन करके ही काम चलाना शुरू कर दिया। एक बार उनके पुराने जूतों में से एक नाली में बह गया तो एक पुरानी जनानी जूती कहीं से ढूंढ़ कर लाये और उन दोनों का जोड़ा मिला कर कालेज गये। पीछे पैसे होने पर नौ आने का नया जूता उनने खरीदा। इस अभावग्रस्तता में रहते हुए उनने एम.ए. पास किया और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उनकी प्रतिभा को देखते हुए जब प्रिंसिपल ने सिविल सर्विस में भर्ती होने की सिफारिश कर दी तो उन्होंने ऊँची अफसरी के मोह को ठुकराते हुए कहा- इतनी कठिनाई से प्राप्त विद्या को मैं कौड़ी मोल बेचना नहीं चाहता। इसका उपयोग तो मानव-जाति की सेवा में ही होगा।

वेदान्त की विवेचना करते देख एक संस्कृत विद्वान ने उन्हें ताना मारा कि आप संस्कृत नहीं जानते फिर धर्म-शास्त्रों की विवेचना का आपको क्या अधिकार है? बात उन्हें चुभ गई और उसी दिन से संस्कृत पढ़ना आरम्भ कर दिया और कुछ ही दिन में इतनी विद्वता प्राप्त करली कि वे वेदों का भाष्य करने की तैयारी करने लगे। अध्ययन काल में भी उनकी प्रतिभा बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। उस समय मित्र उन्हें धर्म प्रचार की प्रेरणा देते थे पर वे सदा यही कहते कि जब तक वे धर्म के आदर्श पूर्णरूप से मेरे जीवन में उतर न जावेंगे तब तक मैं दूसरों को उपदेश देने का साहस कैसे कर सकता हूँ? जब उन्हें अपनी आन्तरिक पवित्रता पर विश्वास हो गया तभी उनने प्रवचन करना आरम्भ किया।

मानव समाज को स्वामी राम ने बहुत बड़ी देन दी। राजनैतिक दासता और दीनता से ग्रस्त जनमानस में उनने निर्भयता का संचार किया। वे कहते थे निडरता से शेर को भी सधाया जा सकता है पर डरपोक को बिल्ली भी खा जायगी। लालची लोगों को दुत्कारते हुए उनने कहा-वन एक प्रकार की तपैदिक की बीमारी है, इसके लोभ में पड़े रहने वाला अपनी आत्मिक प्रगति का अवसर हाथ से खोता है और निरर्थक बाल-क्रीड़ा में अपना बहुमूल्य जीवन बर्बाद करता है। उन्नति की व्याख्या करते हुए उनने कहा- धर्म, नीति, सदाचार और सद्गुणों की उन्नति को ही मनुष्य की सच्ची उन्नति कहा जा सकता है। दौलत की उन्नति कोई उन्नति नहीं। बड़प्पन बाहर की चीज नहीं, वह तो मनुष्य के दिल और दिमाग में रहता है।

छोटे से घर परिवार तक सीमित न रह कर उनने समस्त विश्व को अपना घर और सभी चेतन प्राणियों को अपना कुटुम्बी माना और जन-जीवन में नव-जागरण का प्रकाश उत्पन्न करने के लिए वे निरन्तर भ्रमण करते रहे। अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए जब उनसे एक अलग संस्थान बनाने के लिए कहा गया तो उनने उत्तर दिया, सभी संस्थाएं मेरी हैं। इतनी संस्थाओं के रहते और नई बनाने की क्या आवश्यकता है? लोगों की तंगदिली पर उन्हें भारी दुख होता था और अक्सर कहा करते थे कि - बड़ी इमारतों में भी छोटे आदमी रहते हैं यह कितने अनर्थ की बात है। वे चाहते थे कि मनुष्य में मनुष्यों के प्रति प्रेम और सहयोग की भावना उत्पन्न हो और लोग सद्भावनाओं को अपनाते हुए खुशी का समुन्नत जीवन बितावें।

उनका व्यक्तित्व महान था। जो कुछ वे वाणी से कहते थे उससे अधिक उनका चरित्र और विश्वास बोलता था। अमेरिका में उनके भाषणों पर मुग्ध होकर उस समय के प्रसिद्ध दार्शनिक सन्त इमर्सन ने कहा था-”स्वामी राम का व्यक्तित्व इतने जोर से गरजता है कि उसके आगे इनके शब्दों को सुनने समझने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। मैं उनके व्यक्तित्व पर इतना मुग्ध हो जाता हूँ कि यह सुन समझ नहीं पाता कि वे क्या कह रहे हैं।”

मृत्यु से कुछ ही घण्टे पहले उनने मौत के नाम एक पत्र लिखा था - जिसमें उनने कहा था-”ऐ मौत इस शरीर को ले जाओ, मेरे पास अनेकों शरीर मौजूद हैं। मैं तारों की चमक और चन्द्रमा की किरणों को पहन सकता हूँ, समुद्र की लहरों और बहती हवा के साथ दूर-दूर तक दौड़ सकता हूँ।” सबमें अपनी आत्मा को समाया देखने वाले ऋषि के लिए ऐसा दिव्य अनुभव कर सकना स्वाभाविक भी था।

तेतीस वर्ष की छोटी आयु में दिवाली के दिन वे गंगा माता की गोद में समाधिस्थ हो गये। इतनी ही आयु में ईसामसीह, शंकराचार्य और विवेकानन्द भी इस संसार से विदा हुए थे। जापान से विदा होने के बाद एक जापानी प्रोफेसर ने उनका संस्मरण लिखते हुए कहा-”वह तो चले गये हैं पर अपनी मुस्कराहट सदा के लिए हमारे पास छोड़ गये हैं। उस प्रोफेसर की वह उक्ति आज समस्त मानव जाति की भावनाओं को व्यक्त करती है। मनुष्य को मानवता का पाठ पढ़ाने वाले, देश धर्म और संस्कृति की सेवा के लिए निस्पृह भाव से अपना जीवन उत्सर्ग करने वाले वे देवदूत अपना काम करके चले गये पर उनकी मुस्कराहट, उनकी वाणी और प्रेरणा अभी भी हमारे बीच अपना काम कर रही है।

स्वाध्याय सन्दोह-


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