सन्त-समागम

February 1964

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पहले अपने को बदलो

सम्पूर्ण भारत के उद्धार का भार बिना कारण सिर पर मत लो। अपना निज का उद्धार करो। इतना भार काफी है। सब कुछ अपने व्यक्तित्व पर ही लागू करना चाहिए। हम स्वयं ही भारतवर्ष हैं। बस, यही मानने में आत्मा का बड़प्पन है। तुम्हारा उद्धार ही भारतवर्ष का उद्धार है शेष सब व्यर्थ है। ढोंग है। तुम में सच्चे आत्म-प्रेम का रस उत्पन्न हो, इसी में तुम डूबे रहो।

-महात्मा गाँधी

अपना स्वरूप पहचानो

यदि तुम अपने आपको समस्त वस्तुओं का मालिक और अधिकारी बनाना चाहते हो तो उठो, अपने स्वरूप में झण्डे गाड़ो, अपने असली स्वरूप में लीन हो जाओ। तुम्हारा अपने स्वरूप में लीन होना ही तुम्हें सारे संसार का सम्राट बना देगा। अपने इस वास्तविक साम्राज्य का सिंहासन सम्भालने पर तुम समस्त धरती और आकाश अर्थात् लोक और परलोक के स्वामी और अधिकारी हो जाओगे। आवश्यकता उस असली साम्राज्य पाने की है। सुधार के इच्छुक जितना ही अपने वास्तविक स्वरूप से नीचे रहेंगे, शेष लोग उससे भी निचली सीढ़ी पर खड़े रहेंगे। इसलिए ये संसार का उद्धार करने की इच्छा करने वालो! यदि सचमुच ही तुम संसार का कल्याण चाहते हो तो अपने स्वरूप को पहचानो, उसी में स्थित हो जाओ। संसार के समस्त पदार्थ आदि तो अपने आप तुम्हारी सेवा को तत्पर हो जायेंगे। तुम्हें उनकी इच्छा करने की भी आवश्यकता न होगी। अतः उठो। अपने स्वरूप को पहचानो और विराट स्वरूप के सिंहासन पर आरुढ़ हो। फिर तो तुम्हारे केवल एक संकेत से भी सारे संसार के काम पूरे होते चले जायेंगे। -स्वामी रामतीर्थ

साँसारिक लोगों की प्रकृति

कमानीदार गद्दे पर बैठने से वह नीचे को दब जाता है, परन्तु उठने के साथ ही फिर पूर्ववत् ऊपर उठ जाता है। इसी तरह साँसारिक पुरुष जब तक धर्म की बातें सुनते हैं, तब-तक उनके विचार धार्मिकता से पूर्ण रहते हैं परन्तु साँसारिक व्यवहारों में लगने के साथ ही वे इन श्रेष्ठ और ऊंचे आदर्शों को भूल कर फिर पूर्ववत् अपवित्र विचार वाले हो जाते हैं।

लोहा जब तक भट्टी में रहता है, लाल रहता है, भट्टी से बाहर निकालते ही फिर काला हो जाता है। साँसारिक मनुष्य की भी यही हालत है, वह पूजा के स्थान में या साधुओं के सत्संग में रहने के समय धार्मिक भावों से भरा रहता है, पर इनसे अलग होते ही सारे श्रेष्ठ भावों को खो बैठता है।

मक्खियाँ हलवाई की दुकान पर बिक्री के लिए रखी हुई मिठाइयों पर आकर बैठती हैं, परन्तु मैले से भरी हुई टोकरी देखते ही तुरन्त वे उड़ कर उसी पर जा बैठती है। मधुमक्खी ऐसा नहीं करती, वह सर्वदा फूलों के मधु-आस्वादन में ही लगी रहती है।

संसार में फँसे हुए मनुष्य उन मक्खियों की तरह ही कभी-कभी दिव्यानन्द का क्षणिक आस्वाद पाने पर भी, विषय रूपी मैले की तरफ स्वाभाविक प्रवृत्ति होने के कारण फिर इसी तरफ लौट आते हैं। पर साधु-पुरुष उन मधुमक्खियों की तरह सदा सर्वकाल दिव्य मूर्ति के आनंददायक ध्यान ही में मग्न रहते हैं।

मछली पकड़ने के लिए बने हुए, बाँस के जाल में चमकते हुए पानी को जाते देखकर, छोटी-छोटी मछलियाँ उसमें बड़ी प्रसन्नता से चली जाती हैं, परन्तु जाने के बाद वे बाहर नहीं निकल सकती, फँस जाती है। इसी तरह संसार की मिथ्या चमक-दमक से मोहित हुए मूर्ख मनुष्य इस संसार में चले आते हैं, पर लौट जाने का रास्ता उतना सहज न होने के कारण उन छोटी मछलियों की तरह यही फँस जाते है और सदा के लिए बँध जाते हैं।

-रामकृष्ण परमहंस

श्रद्धा नष्ट न करें

‘यह धारण मिथ्या है कि श्रद्धा अन्धी है और तर्क के आँख हैं। श्रद्धा सुकुमारता लिए हुए है और तर्क कर्कगता। श्रद्धा में यह विशेषता है कि वह कल्पना द्वारा बनाई हुई अपने श्रद्धेय की मूर्ति को साक्षात् मान लेती है जब कि तर्क साक्षात् दीखने वाले श्रद्धेय पुरुष को भी संदेह भरी दृष्टि से देखता है।

हजारों बूंदें आकाश से गिरती हैं पर उन्हें झेलने वाला ही झेलता है चिकने घड़े पर जिस प्रकार उनका कोई असर नहीं पड़ता उसी प्रकार कितनी ही कल्पना और श्रद्धा से हम प्रवचन और भाषण सुनें परन्तु यथार्थता तो जब तक नहीं आएगी, तब तक कुछ हो नहीं सकता। आवश्यकता है श्रोता सुनने वाला गुणग्राही बने, न कि सरौता-कतरने वाला, फूट पैदा करने वाला।

शिक्षा का स्तर कितना गिर गया है। न शिष्य मास्टर का आदर करता है और न मास्टर शिष्य की परवाह। शिक्षा वही पा सकता है जो विनीत है जो अनुशासित है। राष्ट्र में अनुशासनहीनता बढ़ी है, इसका कारण है कि लोगों में विनय-भावना नहीं है, जब तक विनय-भावना नहीं होगी, विचारों में क्रान्ति नहीं आयेगी, श्रद्धा नहीं जगेगी, तब तक उनका समाधान नहीं हो सकेगा और जब तक समाधान नहीं होगा तब तक इसी प्रकार की नाना भ्रांतियां लोगों के सामने रहेंगी और राष्ट्र अनेकानेक चिन्ताओं में ग्रस्त रहेगा।

-आचार्य तुलसी

आत्म-चिन्तन

शास्त्र का आदेश है उत्थाय-उत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृंत।” अर्थात् उठ-उठ कर सोचना चाहिए कि आज मैंने कौन सा भला काम किया। क्योंकि “आयुष्य खण्डं आदाय रवि अस्तं गमिष्यति।” अर्थात् सूर्य हमारी आयु का एक टुकड़ा लेकर अस्त हो जायगा, इसलिये बार-बार सोचना चाहिये कि हमने क्या भला किया। रोज-रोज इस पर विचार करने की आवश्यकता है। इसलिए शास्त्र-वचन है-”अहरहः सन्ध्याँ उपासित” प्रतिदिन सन्ध्योपासना करनी चाहिये। सन्धिकाल दो हैं। सन्ध्या में उषा भी आ जाती है। ये दोनों ध्यान करने के काल हैं। सन्ध्या यानी सम्यक् ध्यान-उत्तम ध्यान। अर्थ से भरा हुआ यह शब्द है। सन्ध्या-समय जो विविध रंगों का चित्र फूट पड़ता है, उसी का ध्यान करने की बात नहीं है। वह तो एक प्रतीक है। हमें इस समय भगवान का व अपनी कृति का भी ध्यान करना चाहिए। इसी प्रकार पूर्णिमा-अमावस्या के पूर्व भी ध्यान के लिए है। ‘पर्व’ यानी एक मुकाम, जहाँ हमें चिन्तन करना चाहिए। इसी तरह उत्सव के दिन भी होते हैं- जैसे शरदोत्सव, वसन्तोत्सव। पिछले काल में हमने किया, इसको सोचने के ये मौके हैं। इनमें एक मौका जन्म दिन का भी है।

-सन्त बिनोवा

साक्षात् प्रेम स्वरूप

जो प्रेमी स्वार्थपरता और भय के परे हो गया है, जो फलाकाँक्षा शून्य हो गया है, उसका आदर्श क्या है ? वह परमेश्वर से भी यही कहेगा, “तुम्हें अपना सर्वस्व अर्पण करता हूँ, मैं तुमसे कोई चीज नहीं चाहता। वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे मैं अपना कह सकूँ।” जब मनुष्य इस प्रकार की अवस्था प्राप्त कर लेता है, तब उसका आदर्श-पूर्ण प्रेम का आदर्श हो जाता है, वह प्रेम-जनित पूर्व निर्भीकता के आदर्श में परिणत हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्ति के सर्वोच्च आदर्श में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं रह जाती, वह किसी विशेष भाव द्वारा सीमित नहीं रहता। वह आदर्श तो सार्वभौमिक प्रेम, अनन्त और असीम प्रेम, पूर्ण स्वतन्त्र प्रेम का आदर्श होता है, यही क्यों, वह साक्षात् प्रेम-स्वरूप होता है। तब प्रेम धर्म के इस महान् आदर्श की उपासना किसी प्रतीक के सहारे नहीं करनी पड़ती, वरन् तब तो यह आदर्श के रूप में ही उपासित होता है। इस प्रकार के एक सार्वभौमिक आदर्श की आदर्श-रूप से उपासना सबसे उत्कृष्ट प्रकार की पराभक्ति है।

कलिःशयानो भवति संजहानस्तु द्वापरः।

उत्तिष्ठन्त्रेता भवति कृपं सम्पद्यते चरन्॥

चरैवेति, चरैवेति, चरंवेति।

-स्वामी विवेकानन्द


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