जिन मनीषियों ने मानव समाज की रचना और नृतत्व विज्ञान पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है उन्होंने नर-नारी की स्थिति एवं महत्ता समान बतलायी है-दोनों को एक बराबर महत्व दिया है। क्योंकि दोनों में से एक के बिना भी समाज का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता और न जीवन सुविधापूर्वक व्यतीत हो सकता है। पर वास्तविक स्थिति में यह विचार कार्य रूप में परिणित होता दिखाई नहीं देता, वरन् समाज की गति इसके विपरीत ही दिखाई पड़ती है। दुर्भाग्य से हमारे देश की हालत यह है कि नारी को पुरुष की अपेक्षा सब प्रकार से हीन और उसके आश्रित मान लिया गया है। यद्यपि मनु जैसे प्राचीन विचारक और स्मृतिकार स्त्रियों को बहुत पूजनीय बतला गये और उनका सदैव आदर सम्मान करते रहने की आज्ञा दे गये है पर आज उन बातों पर किसी को अमल करते नहीं देखा जाता। नर और नारी दोनों अपनी वास्तविक स्थिति और कर्त्तव्यों को भुला बैठे हैं और इसलिये दुःख तथा कठिनाइयों में फँसकर अवनति के पाश में जकड़े हुये हैं।
भारत के प्राचीन अध्यात्म-विज्ञान के अनुसार आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने के लिये ही नर-नारी का आविर्भाव हुआ है और दोनों में कुछ ऐसे पृथक-पृथक गुणों का विकास किया गया है कि जिनके सम्मिलन से सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त की जा सकती है। शास्त्रों के मतानुसार पुरुष में जिन शक्तियों का विकास हुआ है उनमें ज्ञान, बल, तेज की प्रधानता है और नारी को जो शक्तियाँ प्रदान की गई हैं उनमें श्रद्धा, भक्ति, सेवा की प्रमुखता है। ये दोनों ही प्रकार की गुण मानव-समाज के प्रगति और उन्नति के लिए अनिवार्य हैं। यही कारण है कि जब तक स्त्री और पुरुष अपने-अपने कर्त्तव्यों का यथोचित रीति से पालन करते रहते हैं तब तक समाज में सुख, संतोष, शक्ति, प्रगति के दृश्य दिखाई देते रहते हैं और सब प्रकार की अमंगलजनक परिस्थितियाँ टलती रहती हैं। पर इसके विपरीत जहाँ वे अपने स्वाभाविक कर्त्तव्यों को भूल जाते हैं और एक दूसरे के अधिकारों का अन्यायपूर्वक अपहरण करने की चेष्टा करते हैं वहाँ तरह-तरह की कठिनाइयाँ आपत्तियाँ और क्लेश ही उत्पन्न होते हैं और समाज अवनति की ओर अग्रसर होने लगता है।
जिस प्रकार नर और नारी में पारस्परिक प्रतियोगिता एक दूसरे के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों पर हस्तक्षेप अप्राकृतिक और समाज हित के लिये घातक है उसी प्रकार नारी को नर की अपेक्षाहीन अथवा घटिया समझने की प्रवृत्ति भी असत्य और सर्वथा त्याज्य है। यह ठीक है कि बहुत समय से संसार के एक बड़े भाग में पुरुष का कार्यक्षेत्र घर के बाहर रहा है और स्त्री को घर के भीतर ही रह कर अपने कर्त्तव्य का पालन करना पड़ा है। इसके परिणाम स्वरूप पुरुष में शारीरिक शक्ति, साहस, पुरुषार्थ, सूझबूझ, बुद्धिमता का विशेष रूप से विकास हो गया है। इसके विपरीत नारी का मुख्य कार्य सन्तानोत्पादन तथा शिशु-पालन रहा है, जिसमें उसे एक प्रकार की साधना और तपस्या का जीवन बिताना पड़ा है। सन्तान के लिये माता को कितना त्याग करना पड़ता है और अनेक बार आत्म-बलिदान तक कर देना पड़ता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। नारी का केवल यही एक गुण इतने महत्व का है जिनके कारण पुरुष को उसके सामने सदैव नतमस्तक रहना चाहिए और कभी उसके हीनत्व की भावना का मन में उठाना भी न चाहिये। यदि नारी आज शारीरिक शक्ति, विद्या, बुद्धि में कुछ पिछड़ी हुई दिखाई देती है तो इसका कारण यही है कि उसने अपनी समस्त शक्ति और साधनों को पुरुष के उच्च निर्माण में लगा दिया है। इस स्थिति में उसमें हीनात्मा की कल्पना करना विवेक शून्यता के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।
साथ ही यह भी प्रत्यक्ष है कि जहाँ कहीं अवसर मिला है, आवश्यकता पड़ी है, अनेक नारियों ने बड़े से बड़े कार्यों को पूर्ण योग्यता से कर दिखाया है। उस समय उनकी शक्ति, प्रतिभा और योग्यता का लोहा पुरुषों को भी मानना पड़ा है। विदेशों को बात को छोड़ दीजिये, जहाँ किसी समय नारियों के राज्य भी कायम थे और वे पुरुषों को अपने नियंत्रण में उसी प्रकार रखती थीं और अब तक भी रखती हैं, जिस प्रकार हमारे यहाँ स्त्रियों को रखा जाता है। हमारे देश में भी समय-समय पर ऐसी नारियाँ होती आई हैं जिन्होंने आवश्यकता पड़ने पर पुरुषों से भी अधिक शौर्य, वीरता, बुद्धिमता, आध्यात्मिकता का परिचय दिया है, और इस प्रकार यह सिद्ध कर दिया है कि वास्तव में नारी किसी दृष्टि से हीन नहीं है, वरन् उसने समाज के कल्याण, हित, सुव्यवस्था के लिये वर्तमान स्थिति को स्वीकार किया है। इसके लिये समाज को उनका सदैव कृतज्ञ होना चाहिये, उनके दर्जे को किसी प्रकार नीचा समझने की बात तो घोर मूर्खता और अज्ञान की परिचायक ही है।
फिर भी संयोग और परिस्थितियों के कारण वर्तमान समय में हमारे देश में नारियों की जो स्थिति है वह न तो उनके लिये शोभनीय और सुखप्रद है और न समाज के लिये सम्मानजनक और कल्याणकारी है। आज अधिकांश पुरुषों की यही धारणा बन गई है कि नारी का स्थान केवल घर के भीतर है और उसका काम पुरुष की कामुकता की भूख को शान्त करना, सन्तान पालन, भोजन बनाना तथा अन्य घर की सेवा के कामों को करना है। वे यह भी समझते हैं कि चूँकि पुरुष धन कमाकर लाता है, इसलिये स्त्री उसकी आश्रित है और उसे उसकी प्रत्येक आज्ञा को बिना ननुमन किये मानना चाहिए। कितने ही लोग तो स्त्री का धर्म ही यह बतलाते है कि सब प्रकार के सुख-दुख, मान-अपमान तथा कष्टों को सहकर पति और परिवार की सेवा में पूर्णतया संलग्न रहे। ऐसे पुरुषों की भी कमी नहीं है जो स्त्रियों को बहुत दबाकर, कठोर नियंत्रण में रखने के पक्षपाती है जिससे उनमें अपने अधिकारों का अथवा आत्मसम्मान का भाव पैदा न हो जाय और वे उनके अन्यायों का विरोध करने लगें।
इस प्रकार की विचारधारा का परिणाम यह हुआ है कि इस देश की बहुसंख्यक स्त्रियाँ अत्यन्त दुर्दशा को प्राप्त हो गई है। उनको सैकड़ों वर्षों से पर्दे के भीतर कैदी की तरह रखा जाता है, उनको पढ़ाना-लिखाना बुरा समझा जाता है और अवसर पड़ने पर ये अपने आवश्यक कामों को ठीक ढंग से पूरा करने में असमर्थ रहती हैं। यदि पति की असामयिक मृत्यु हो जाय तो ऐसी स्त्रियाँ उनके चलते हुये कारबार, व्यापार, जायदाद आदि की स्वयं व्यवस्था नहीं कर सकती। उनको विवश होकर किसी पास के या दूर के पुरुष सम्बन्धों का सहारा लेना पड़ता है जो प्रायः उनको लूटकर अपना घर भरने का ही प्रयत्न करते हैं। इतना ही नहीं समयोचित ज्ञान के अभाव और मानसिक संकीर्णता के कारण वे अपने परिवार तथा घर की उचित व्यवस्था भी नहीं कर पाती। प्रायः पारस्परिक झगड़ों, वस्त्राभूषणों में अन्य लोगों की प्रतियोगिता, दिखावटी रीति रस्मों में अन्धाधुन्ध खर्च करके वे घर की आर्थिक स्थिति को निर्बल बना देती हैं। अज्ञान और अविद्या के कारण वे ही सब प्रकार के अन्ध-विश्वासों में अधिक फंसती है तथा पंडित, पुजारी, स्याने, ओझा आदि के चक्कर में पड़कर हर तरह से ठगी जाती हैं। इस प्रकार वे स्वयं तो दुःखी पीड़ित होती ही हैं साथ ही सब घर की हानि और कष्टों में भी वृद्धि करती हैं। पर जिस अज्ञान तथा अन्धकार की दशा में उनको रखा गया है उसमें इसके सिवा उनसे अन्य प्रकार की आशा भी कैसे की जा सकती है।
समाज के उत्थान और राष्ट्र को शक्तिमान बनाने के लिये इस परिस्थिति में परिवर्तन करना अनिवार्य है। देश की जनसंख्या में से आधा भाग नारियों का है। यदि वह ऐसी अविकसित, पिछड़ी हुई, कर्त्तव्य ज्ञान से रहित अवस्था में पड़ा रहेगा तो हम संसार के अन्य उन्नतिशील देशों के मुकाबले में कभी न टिक सकेंगे और हमको पुनः किसी न किसी शक्तिशाली का आश्रित या अधीन ही होना पड़ेगा। प्रकृति ने स्त्री को पुरुष का पूरक, सहायक बनाया है, पर ऐसी परिस्थिति में वे उसके लिये भारस्वरूप, बाधास्वरूप और उसकी प्रगति को रोकने वाली सिद्ध होती है।
नर और नारी का दर्जा समानता का है। जीवात्मा और प्रकृति की दृष्टि से उनमें छोटे-बड़े का कोई भेदभाव नहीं किया गया है। अब यह हमारा काम है कि हम दोनों को उपर्युक्त कार्यों में नियोजित करके उन्हें उपयोगी बनावें - समाज के सुख और समृद्धि का साधन होने का अवसर दें। अब तक की गलती का सुधार करके नारी को उसका उचित और उच्च स्थान देना परमावश्यक है जिससे वह अपने समाजोत्थान के महान कर्त्तव्य को भली प्रकार पूरा कर सकें।