हमारा हर कार्य विवेकपूर्ण हो?

February 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सत्कर्म से ईश्वर पूजा -

‘कार्य ही पूजा’ है। इस कथन पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो उसमें एक बहुत बड़ी सच्चाई सन्निहित जान पड़ती है। जब हम अपने कार्य को पूजा मानकर करते हैं, तब हमारे भीतर ईश्वरीय शक्ति द्वारा प्रकाशित अनुपम ईमानदारी, सहृदयता, पवित्रता, साधुता, सरलता, शक्ति, कार्यनिष्ठा जागृत हो जाती है। हमारे तन, मन, प्राण एक रस होकर काम में एकाग्र हो जाते हैं। एक गुप्त शक्ति हमारे कण -कण में काम के प्रति दिलचस्पी और एकरसता भर देती है। जिसने अपनी भावना का तार-तार ईश्वर से संयुक्त कर दिया है, वह जानता है कि दैवी शक्ति के तादात्म्य से हमारी कार्य सम्पादिका शक्ति की कैसी सुन्दर तथा महान अभिवृद्धि हो जाती है।

यदि हम अपने स्थान पर रहकर पूरा और खरा काम करते हैं, अनुचित रीति से आर्थिक लोभवश अपने मालिकों को धोखा नहीं देते हैं, तो हम कर्म मार्ग के पथिक बन जाते हैं। पूरे और खरे कार्य के समक्ष सब को झुकना पड़ता है। जो छोटे से छोटा कार्य निकम्मा, अधूरा अथवा आधे मन से किया जाता है, वही परमात्मा की सेवा, अपना कर्त्तव्य समझकर सम्पूर्ण चातुर्य और कला से अच्छा से अच्छा भी किया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति के लिए इस से अधिक लज्जा की बात क्या होगी कि उसे एक कार्य को दुबारा करने को कहा जाय, क्योंकि उसने अपना कार्य आधे मन से किया है। जिस शैली या ढंग से कोई काम किया जाता है वही कार्य करने वाले व्यक्ति के चरित्र को प्रकट कर देता है। रिश्वत या ऊपरी आमदनी के मोह में फंसे हुए आदमी का दिल कार्य में नहीं होता वह आदमी चाहे किसी परिस्थिति में क्यों न हो, कम काम करके अधिक पैसा खींचने के लोभ में लगा रहता है। यह वृत्ति सर्वथा त्याज्य है। कुछ व्यक्ति मालिक की उपस्थिति में तो ठीक काम करते हैं, किन्तु अनुपस्थिति में कुछ नहीं करना चाहते । ऐसे व्यक्ति भी चोर हैं। हमें अपने जीवन को इतना पूर्ण और परिश्रमी बनाना चाहिए कि बेईमानी से कुछ प्राप्त करने की इच्छा ही मन में शेष न रहे

-स्वर्ण पथ

भाग्य नहीं पुरुषार्थ ही प्रधान है -

“ईश्वरेच्छा या प्रारब्धानुसार ही सब कुछ होता है।” “जिन्दगी दो दिन की है” “किसी की आशा रखना व्यर्थ है” “दुनिया में कोई किसी का नहीं” “ये दिन भी चले जायेंगे”- “शरीर रोग का भण्डार है”- “मौत किसी की नहीं टलती” - “यह जगत माया का बाजार है”- ऐसे अनेक उद्गार मनुष्यों के मुँह से निकलते रहते हैं। अनेक व्यक्ति इन उद्गारों में ज्ञान भरा हुआ समाप्त कर इन्हीं को जीवन का महान सिद्धान्त समझते हैं और जानबूझकर उदासीनता -विरक्तता का जीवन बिताने का प्रयत्न करते है। परन्तु हमें रखना चाहिये कि ऐसे उद्गार तात्विक दृष्टि से सत्य हो या न हों, फिर भी उनको जीवनसूत्र बनाकर उनके अनुसार नित्य का जीवन चलाने का प्रयत्न करना गलत है। निराश और निरुत्साहित बने हुये, रोगों में ग्रस्त, गरीबी से दुखी, लोगों के छल-कपट के शिकार बने हुये, मौत के किनारे लगे हुए, किसी-न-किसी दुःख में भग्न हृदय बने हुये तथा जिनका जीवन लगभग असफल सिद्ध हो चुका है ऐसे व्यक्तियों के मुँह से निकले हुए उद्गारों को जीवन का सिद्धान्त मानकर सारे मानव-जीवन के विषय में राय बनाना और उसे अपने जीवन का ध्येय ठहराना सर्वथा अनुचित है। एकांगी सत्य को सम्पूर्ण सत्य समझना सदा गलत ही माना जाएगा।

- विचार दर्शन

त्याग का अर्थ घर छोड़ना नहीं-

‘आत्मत्याग’ का सच्चा मतलब समझे बिना लोग उसके बदले में कई भिन्न प्रकार की क्रियाओं का आचरण करके संतुष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि कई लोगों ने तो उसका मतलब आत्मघात तक समझ लिया है! कितनों का विश्वास है कि बाह्य-वस्तुओं -धन, कुटुम्ब, ऐश्वर्य तथा घर बार को छोड़कर जंगल में जा बैठना आत्म-त्याग है कितने नाना प्रकार की यातनाओं द्वारा शरीर को कष्ट देकर सुखा डालने को आत्म-त्याग समझते हैं। कितने साँसारिक यश की इच्छा से प्रेरित होकर अपने धन और प्राण को समाज और देश के नाम पर न्यौछावर कर देने को आत्म-त्याग मानते हैं। इस प्रकार जिसकी दृष्टि में जो काम महान और बड़ा जान पड़ता है उसी को वह आत्म त्याग के रूप में समझ लेता है।

वास्तव में आत्म त्याग स्वार्थत्याग का ही दूसरा नाम है और स्वार्थ कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो हृदय से बाहर फेंकी जा सके। वह तो मन की एक अवस्था विशेष है। जिसको दूसरे रूप में बदलने की आवश्यकता है। इसलिए आत्म त्याग का अर्थ आत्मा को नष्ट करना या अनावश्यक कष्ट देना नहीं, किन्तु वासनाओं और इच्छाओं से लिप्त आत्मा को परिवर्तित करना है । स्वार्थ का अर्थ है क्षणस्थायी सुखों में फँसकर सदाचरण और विवेक को भूल जाना। स्वार्थ हृदय की उस वासनात्मक और लोभपूर्ण अवस्था का नाम है जिसका त्याग किये बिना हमारे भीतर सत्य का उदय नहीं हो सकता और न शान्ति और सुख का ही हृदय में संचार हो सकता है।

- जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्न

अन्धश्रद्धा अहितकर है-

हिन्दू धर्म सिखलाता है-”श्रद्धावान लभते ज्ञानम्” अर्थात् श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है। जब हिन्दू धर्म ज्ञानवादी है तो वह श्रद्धा से पृथक कैसे हो सकता है? परन्तु इस श्रद्धा और दासता में बड़ा अन्तर है। पैगम्बरवाद और गुरुडमवाद अन्धविश्वास सिखलाते हैं, पागल बनाते हैं और अपने सम्प्रदाय का गुलाम बनाते हैं। श्रद्धा होती है विवेक के साथ, जब भक्ति के साथ विवेक भी रहे तो उसका नाम श्रद्धा है। पर जब वही भक्ति अन्धविश्वास के साथ हो तो उसे दासता कहते हैं। हिन्दूधर्म श्रद्धावादी हैं, दासतावादी नहीं। श्रद्धा सात्विक गुण है, वह आत्मा को ऊँचा उठाता है, उसे उन्नत पथ दिखलाता है। इसके विपरीत अन्धभक्ति तमोगुणी वृत्ति है, यह दासता की जड़ और विकास की शत्रु होती है। हिन्दू धर्म माता, पिता, गुरु, आचार्य और वयोवृद्ध विद्वानों के प्रति विवेकपूर्ण भक्ति सिखलाता है और कहता है कि यदि तुम्हारा मत किसी विद्वान से न मिले तो भी तुम्हें श्रद्धाभाव से उसके गुणों को ग्रहण करना चाहिये।” हम है हंस, कौआ नहीं, हमें दूध लेना है और पानी छोड़ देना है। इस संसार से झगड़ा करने के लिए यहाँ नहीं आये हैं, हम तो ज्ञान संचय के लिये आये हैं। हम दूसरों के किसी सिद्धान्त का, किसी पैगम्बर का, किसी आचार्य अथवा गुरु का फीतदास बनने के लिये नहीं आये हैं, हम तो लोगों को ऐसा भ्रमर बनना सिखलाते हैं जो पुष्पों का रस ग्रहण करता है। विवेकपूर्ण श्रद्धा आत्मा का उत्थान करती है, व्यक्ति में भला-बुरा पहिचानने की शक्ति उत्पन्न करती है, उसे चिन्ताशील बनाती है और उसमें आत्मनिर्भरता भरती है।

- हिन्दू धर्म की विशेषता

सच्चे ज्ञान से ही कल्याण होगा-

सच पूछा जाय तो श्रद्धा ही हमारा श्रेष्ठ धर्म है। वर्तमान समय में जबकि पृथ्वी पर सच्चे ज्ञान का सर्वत्र अभाव दिखाई पड़ता है, और संकीर्णतायुक्त स्वार्थ का, अविद्या का अंधेरा छाया हुआ है, ऐसी परिस्थिति में हम केवल अपने श्रद्धा दीप की सहायता से ही जीवन के अन्तिम ध्येय तक पहुँच सकते हैं। परन्तु हमारी यह श्रद्धा ध्रुवतारा के जैसी अचल होनी चाहिए, बिजली के चमकने की तरह क्षणिक नहीं। अगर हमारे भीतर श्रद्धा, आत्मश्रद्धा हो तो हमको संसार में कोई भी बात भौतिक अथवा आधिभौतिक असंभव नहीं रह सकती। इस श्रद्धाबल से हम जो कुछ विचार करें जो कुछ चाहें वही कर सकते हैं। श्रद्धा और विश्वास के द्वारा हम अपार शक्ति प्राप्त कर सकते है। मनुष्य अपने को जैसा जानता है वैसा ही बन जाता है। एक महान दार्शनिक ने कहा है कि “मनुष्य किसी विशेष मान्यता के आधार पर ही जीवित रहता है। अगर उसको यह विश्वास न हो कि जीने के लायक कुछ है, तो वह जीवित रह नहीं सकता। जैसे-जैसे वह नश्वर जगत की अवास्तविकता को देखता और समझता जाता है वैसे-वैसे उसके भीतर अनन्त के प्रति श्रद्धा का आविर्भाव होता है। उसे श्रद्धा रखनी पड़ती है, क्योंकि श्रद्धा के बिना जीवन ही नहीं रह सकता।

विज्ञान और उसी प्रकार आत्मज्ञान के लिये श्रद्धा और धैर्य अत्यन्त आवश्यक सीढ़ियाँ है। सबसे पहले अपने में श्रद्धा रखो और उसके पश्चात् परमेश्वर में सच्ची श्रद्धा रखने से मुट्ठी भर मनुष्य संसार को हिला सकते हैं। परन्तु इसके लिये भावनायुक्त हृदय, विचारशील मन, कार्य करने की दृढ़ इच्छा, लगन और इन सबको स्थिर रखने वाली श्रद्धा की आवश्यकता है।

शास्त्र चर्चा-


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118