भव्य समाज की नव्य रचना

February 1964

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विवाहों में अपव्यय की कुप्रथा

प्राचीन काल की गौरवमयी परम्पराओं को अपनाकर ही हम अपने खोये अतीत को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था किसी समय समाज के ढाँचे को सुगठित बनाये रखने में बड़ी सहायक हुई है पर आज उसका जो विकृत स्वरूप है उसके कारण हमारा समाज दिन-दिन अधःपतन की ओर गिरता चला जा रहा है। कितनी ही ऐसी कुरीतियों ने हमारी समाज व्यवस्था में प्रवेश कर लिया है जिसके कारण अन्य समाजों की तुलना में हमारा समाज दिन-दिन हेय और घृणित बनता चला जा रहा है। इन विकृतियों की और हमें ध्यान देना होगा और समय रहते सुधार के लिए आवश्यक कदम बढ़ाना होगा। अन्यथा एक दिन वह आवेगा कि लोग अपने को हिन्दू कहलाना भी अपमान की बात समझेंगे।

हमारे समाज की सब से बड़ी कुरीति है-विवाह शादियों के समय होने वाला अपव्यय। बेटे वाला चाहता है कि लड़की वाले का घर-घूरा बिकवा कर जो कुछ उसके पास हो वह तथा कर्ज लेकर जितना भी वह इकट्ठा कर सके, दहेज के नाम पर वसूल कर ले। बेटी वाला भी कम नहीं, वह चाहता है कि लड़के की पढ़ाई में जिसने अपना घर खाली कर लिया है वह सेठ साहूकारों की तरह सोने, चाँदी, हीरे, मोती के बहुमूल्य जेवर और रेशम, मखमल के रईसों, अमीरों जैसे कपड़े लड़की के लिए चढ़ा कर अपनी आर्थिक स्थिति को नष्ट कर दे।

दोनों ही पक्ष अपनी शतरंज की चाल चलते रहते हैं। बेटे वाला चाहता है कि अधिक से अधिक दहेज मिले, ऐसा सम्बन्ध पक्का किया जाय और लड़की वाला उस घर को तलाश करता है जो अधिक जेवर चढ़ा सके। इस प्रतिस्पर्धा में दोनों पर भारी आर्थिक दबाव पड़ता है और एक-दो ब्याह शादियों में ही आर्थिक दृष्टि से खोखले ही जाते हैं।

विवाह के उत्सव का व्यय भार भी तो कम नहीं होता। बरात सजाने और ले जाने में बेटे वाले को और स्वागत सत्कार में बेटी वाले को कमर तोड़ आर्थिक दबाव सहना पड़ता हैं। बराती अपना काम छोड़ते है, सजधज के कपड़े, लत्ते बनवाने में पैसे खर्च करते हैं और जो बारात में ले गया है उस पर अहसान जताते है। बेटे वाला भी अपनी शोभा बनी देख कर बराती का उपकार मानता है और उसे ले जाने में सवारी एवं अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करता है। बेटी वाला अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न करते हुए भी उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता तो उसका चित्त भी दुखी ही रहता है। बरात को ठहराने, खिलाने एवं स्वागत सुविधा के साधन जुटाने में उसे कितनी चिन्ता और भाग दौड़ करनी पड़ती है उसे भुक्तभोगी ही जानता है।

बहुमूल्य मिष्ठान्न पकवानों की लम्बी-चौड़ी दावतें इस महंगाई के जमाने में कम पैसा नहीं काटती। बाजे गाजे, आतिशबाजी, उपहार, अलन-चलन, नेग-जोग का ढोंग जितना निरर्थक होता है उतना ही खर्चीला भी। दोनों पक्ष से ऐसे उपहार भेजे जाते हैं जिनमें पैसा तो अन्धाधुन्ध खर्च होता है पर वे जगह घेरने और बेकार पड़े रहने के अतिरिक्त और किसी काम नहीं आते। विवाह से पहले और बाद में बेकार के इतने रस्म रिवाज पूरे करने पड़ते है जिनमें विवाह के बराबर नहीं तो कुछ ही कम-बढ़ खर्च पड़ जाता है। बरात, दावत, उपहार, अलन-चलन, दहेज, जेवर, गाजे-बाजे आदि का खर्च इतना बढ़ जाता है कि उन्हें पूरा करने में दोनों ही पक्ष दिवालिया हो जाते हैं।

प्रचलित रूढ़ियों के कारण हिन्दू के लिए ‘विवाह’ एक इतना बड़ा भार है कि उसे जीवन का अधिकाँश भाग इसी की चिन्ता में घुलते हुए बिताना पड़ता है। सभी के घर में बच्चे होते हैं और सभी को विवाह करने पड़ते हैं। कोई गृहस्थ ऐसा नहीं जिसके कन्या, पुत्र न होते हों। लड़के के विवाह में तो ऐसा भी हो सकता है कि जेवर एक बहू का उतार कर दूसरी पर और दूसरी का तीसरी पर चढ़ा दिया जाय तो वक्त की शोभा हो जाती है और उसमें होने वाले खर्च की बचत हो जाती है। पर कन्या वाले को वह लाभ भी नहीं मिलता। लड़के वाला दहेज पाकर उस समय थोड़ा नफे में रहे तो भी उसे प्रथा से कुछ विशेष लाभ नहीं होता क्योंकि उसके घर में भी तो कन्या होती है, उसके विवाह में उसे भी अपना घर खोखला करना पड़ता है।

उँगलियों पर गिनने लायक चन्द अमीरों की बात छोड़िये। अधिकाँश लोग निम्न या मध्यम श्रेणी के होते हैं। उनके लिए इस महंगाई और बेकारी के जमाने में अपनी गुजर करना ही कठिन पड़ता है। भोजन, वस्त्र, दवा, फीस, मकान किराया, अतिथि सत्कार, तीज-त्यौहार जैसी दैनिक आवश्यकताओं को ही लोग मुश्किल से पूरा कर पाते है। ऐसी दशा में जब कई कन्या, पुत्र विवाह के योग्य हो जाते हैं और उस कार्य के लिए बहुत धन जुटाने की आवश्यकता पड़ती है तब अभिभावकों की चिन्ता और परेशानी का कोई ठिकाना नहीं रहता।

कर्ज लेकर, जीवनोपयोगी वस्तुओं को बेचकर, बेईमानी, ठगी आदि जो भी उपाय संभव हो उसे अपना कर विवाहों का खर्च अनिवार्यतः जुटाना पड़ता है। हिन्दू सारा जिन्दगी अपने बच्चों के विवाह शादी की चिन्ता में घुलता रहता है। उसका आधे से अधिक जीवन समस्याओं को सुलझाने में लग जाता है। आमदनी का प्रायः आधा खर्च उसी मद में चला जाता है। मजबूरी हर काम कराती है। ईमानदारी से पैसा नहीं मिलता तो बेईमानी करनी पड़ी है। हमारी समाज में फैली हुई और स्वार्थपरता का एक कारण यह भी है कि हर हिन्दू को अपने बच्चों के विवाह में खर्च करने के लिए बहुत पैसा चाहिए। ईमानदारी से तो गुजारे के लायक सीमित आमदनी ही हो सकती है। अतिरिक्त धन जमा करना है तो चोरी, बेईमानी, ठगी, अनीति एवं शरीर और मन को घुला डालने वाली किफायतशारी के अतिरिक्त और कोई तरीका नहीं रह जाता। इस कुचक्र में पड़े हुए हम अपना शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य संतुलन बुरी तरह खोते चले जा रहे हैं। विवाह की चिन्ता हर अभिभावक को चिता की तरह जलाती रहती है।

विवाहों में होने वाले अपव्यय को जुटाने के लिए जो तरीके अपनाने पड़ते हैं वे प्रायः अनुचित ही होते है। कर्ज लेना और फिर उसे न चुका सकना, मकान, जमीन, जेवर, बर्तन आदि बेच देना, बेईमानी करके पैसे कमाना यही तो अतिरिक्त आमदनी के स्त्रोत हो सकते हैं। इनके कारण मनुष्य अपना लोक, परलोक, धर्म, ईमान, यश, सम्मान, सभी कुछ खो बैठता है और अपराधी जैसी दुर्गति भोगते हुए निष्कृष्ट जीवन अपनाने के लिए विवश होता है। जो लोग इस प्रकार भी इस समस्या को नहीं सुलझा पाते उन्हें अयोग्य वरों के हाथों अपनी सुयोग्य कन्याएँ सौंपनी पड़ती है जिससे उन बच्चियों का सारा जीवन दुःखमय बीतता है। कम दहेज दे सकने पर कितने ही लड़के वाले बहुओं को बुरी तरह सताते हैं ताकि उनके पिता से और भी अधिक पैसा मिले। कितनी ही घटनाएँ ऐसी भी होती रहती हैं कि एक बहू को अत्याचारों द्वारा या विष देकर मार डाला जाता है और लड़के का दूसरा विवाह करके फिर दहेज कमाया जाता है। अभिभावकों को चिन्ताग्रस्त देखकर कई भावुक लड़कियाँ आत्महत्या तक कर बैठती हैं, घर छोड़कर भाग खड़ी होती हैं या आजीवन कुमारी रह जाती हैं। असफल अभिभावकों का भी कई बार ऐसा दुःखद अन्त देखा जाता है कि उसका स्मरण मात्र करने से आँसू भर आते हैं। लाखों, करोड़ों अभिभावकों और बच्चे-बच्चियों को, इन कुरीतियों के कारण घुल-घुल जो अप्रत्यक्ष आत्महत्याएं करनी पड़ती हैं उनका करुण चित्र कोई चित्रकार यदि खींच सके तो पता चले कि हिन्दू समाज को भीतर ही भीतर कितनी घुटन और पीड़ा घुन की तरह खाये जा रही है।

कन्या और पुत्र में अन्तर इस विवाद में होने वाले अपव्यय ने ही प्रस्तुत किया है अन्यथा बच्चे और बच्ची में से किसी को सौभाग्य और किसी को दुर्भाग्य माने जाने का कोई कारण नहीं। लड़की की शिक्षा, दीक्षा, पालन-पोषण एवं मान सम्मान में इसलिए अन्तर किया जाता है, क्योंकि वह विवाह की खर्चीली प्रथा के कारण घर के लिए भार या कंटक सिद्ध होती है। किसी जमाने में तो पैदा होते ही लड़कियों को गला घोंटकर या विष देकर मार डाला जाता था। इस व्यापक कुप्रथा के विरुद्ध अंग्रेजी सरकार ने एक ‘दुख्तर कुशी’, कानून ही बनाया था। अब वैसा तो कम ही होता है पर लड़कियाँ जिस उपेक्षा से पलती और शिक्षा, दीक्षा से वंचित रहती हैं उसे देखते हुए उनकी आधी हत्या तो अभी भी हो जाती है। सुयोग्य कन्याओं को सुयोग्य पति प्राप्त करने से इसलिए वंचित रह जाना पड़ता है कि उनके अभिभावक सुयोग्य लड़कों द्वारा की गई दहेज की माँग पूरी नहीं कर सकते। इसके विपरीत अयोग्य कन्याएं सुयोग्य लड़कों के गले केवल पैसे के बल पर आसानी से मढ़ दी जाती हैं।

संसार भर के समस्त देशों और समाजों पर दृष्टिपात कीजिए, कहीं भी विवाह के नाम पर होने वाला अपव्यय दिखाई न पड़ेगा। विवाह एक साधारण-सी मानव-जीवन की स्वाभाविक घटना है। इस अवसर पर प्रसन्नता की अभिव्यक्ति के लिए छोटा उत्सव समारोह हो सकता है। सभ्य संसार में ऐसा ही होता भी है। असभ्य जंगली जातियों में भी इसे खर्चीला नहीं बनाया जाता। यह अभागी हिन्दू जाति ही है जिसमें विवाह के समय होने वाले थोड़े अमीरी के स्वाँग को इतना महत्व दे रखा है, जिसके कारण उसका जातीय-जीवन बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट हुआ जा रहा है। इसी देश में ईसाई, मुसलमान, बौद्ध आदि अन्य समुदाय के लोग रहते और विवाह शादी करते हैं पर उनमें इसे कमर तोड़ आर्थिक दबाव का रूप नहीं दिया जाता। हम अपने को सभ्य कहें या असभ्य? विवेकशील कहें या अविवेकी? यह समझ में नहीं आता। इतनी भयंकर कुरीतियों को जो समाज छाती से चिपकाये बैठा है, इतना त्रास सहकर भी जिसे सुधार एवं परित्याग का साहस न होता हो उस समाज को मृतक नहीं तो अर्धमृत कहना ही चाहिए। ऐसे निष्प्राण लोग सभ्य संसार की प्रगति के साथ कदम से कदम मिला कर चल सकेंगे और अपना पिछड़ापन दूर कर सकेंगे इसकी आशा नहीं बंधती।

संसार के सभी धर्म और समाज प्रगति कर रहे हैं। ईसाई धर्म को जन्मे पूरे दो हजार वर्ष भी नहीं हुए कि उसने विश्व की आधी जनसंख्या को दीक्षित कर लिया। इस्लाम को 1300 वर्ष हुए हैं और वे धर्मों की दृष्टि से दूसरे नम्बर की जनसंख्या को अपने में समेटे हुए हैं। भगवान बुद्ध को दो हजार वर्ष हुए है और उनका धर्म भी संसार के तीसरे नम्बर पर है। यह अभागी हिन्दू जाति ही है जो सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक का इतना भव्य इतिहास और दर्शन होते हुए भी दिन-दिन स्तर की दृष्टि से भी घट रही है और संख्या की दृष्टि से भी। संसार के अन्य देशों की बात तो कौन कहे हिन्दू अपने देश में भी उस गति से नहीं बढ़ रहे जिस गति से ईसाई, मुसलमान बढ़ रहे हैं। इसके कई कारणों में सब से प्रमुख कारण यह है कि इसके भीतर रहने से लोगों की आत्मा विद्रोह करने लगी है। विवाह में होने वाले विवाह की कुप्रथा एक के तोड़े टूटती तो है नहीं, मजबूरी से उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। किन्तु प्रतिफल में जो दुखद दुष्परिणाम भोगते पड़ते हैं उससे विक्षोभ तो उत्पन्न होता ही है। जिस जाति में आत्मविक्षोभ भरा होगा, वह कभी फल-फूल नहीं सकेगी वरन् विनाश की ओर ही चलेगी। आज हो भी यही रहा है। अपने धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वालो की संख्या अब दिन-दिन घट रही है। आज हकीकतराय, बैरागी, शिवाजी और गुरु गोविन्दसिंह मुश्किल से ही निकलेंगे। लोग स्वेच्छा से अपनी चोटी कटाते चले जा रहे है, जनेऊ पहनना बेवकूफी समझते है, धर्म परम्पराओं का उपहास उड़ाते है। ऐसे समाज के बढ़ने और फलने-फूलने की क्या आशा की जा सकती है? इस अश्रद्धा के उत्पन्न होने में हमारी सामाजिक बुराइयों का भी एक बड़ा कारण है, जिनने अपने अनुयायियों को केवल त्रास ही दिया है।

इन कुरीतियों का शोधन करना हमारे जातीय जीवन की जीवन-मरण समस्या है। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा और यदि अपनी महान संस्कृति को उपहासास्पद एवं घृणित होने से बचाना है, उसे मरणोन्मुख नहीं होने देना है तो हमें इसके लिए कुछ करना ही चाहिए। वैवाहिक अपव्यय जैसी सत्यानाशी कुरीतियों का काला मुँह करने के लिए तो बिना एक क्षण भी प्रतीक्षा किए तत्काल कटिबद्ध होना चाहिए।


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