उद्धरेदात्मनाऽत्मानम्

February 1964

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आत्म-निर्माण द्वारा युग-निर्माण

अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है। समाज या संसार कोई अलग वस्तु नहीं, व्यक्तियों का समूह ही समाज या संसार कहलाता है। यदि हम संसार का उद्धार या कल्याण करना चाहते हैं तो वह कार्य अपने आप से आरम्भ करना चाहिए। क्योंकि अपना आपा ही सबसे निकट है। अपने को सुधारना सबसे अधिक सरल एवं संभव हो सकता है। दूसरे लोग कहना मानें या न मानें, बताये हुए रास्ते पर चलें या न चलें यह संदिग्ध है, पर अपने ऊपर तो अपना नियन्त्रण है ही। अपने को तो अपनी मर्जी के अनुसार बना या चला सकते ही हैं। इसीलिए विश्वकल्याण का कार्य सबसे प्रथम आत्मकल्याण का कार्य हाथ लेते हुए ही आरम्भ करना चाहिए।

संसार का एक अंश हम भी है। अपना जितना ही सुधार हम कर लेते है उतने ही अंशों में संसार सुधर जाता है। अपनी सेवा भी संसार की ही सेवा हैं। एक बुरा व्यक्ति अनेकों तक अपनी बुराई का प्रभाव फैलाता है और लोगों के पाप तापों एवं शोक सन्तापों में अभिवृद्धि करता है। इसी प्रकार एक अच्छा व्यक्ति अपनी अच्छाई से स्वयं ही लाभान्वित नहीं होता वरन् दूसरे अनेकों लोगों की सुख-शान्ति बढ़ाने में सहायक होता हैं। सामाजिक होने के कारण मनुष्य स्वभावतः अपना प्रभाव दूसरों पर छोड़ता है। फिर जो जितना ही मनस्वी होगा वह अपनी अच्छाई या बुराई का भला-बुरा प्रभाव भी उसी अनुपात से संसार में फैलावेगा। इस प्रकार मनुष्य अपना सुधार करने में लग जाय तो वह संसार का बहुत भारी सुधार कर सकता है। अपनी सच्ची सेवा भी विश्वसेवा का ही एक अंग मानी जा सकती है। संकुचित भौतिक स्वार्थों की इसीलिए ऋषियों ने निंदा की है कि उनमें ग्रस्त होकर मनुष्य अपने धर्म कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने लगता है।

दूरदर्शितापूर्ण स्वार्थ भी परमार्थ ही होता है। आत्मा का स्वार्थ जिन विचारों और कार्यों द्वारा सिद्ध होगा उन्हीं के माध्यम से संसार का हित साधन भी बनेगा उत्कृष्ट स्तर का स्वार्थ वस्तुतः परमार्थ ही बन जाता है। अपना आत्म-सन्तोष, आत्म-कल्याण, सद्भावनाओं के अपनाने एवं सत्कर्म करने से ही संभव होता है। यही प्रक्रिया लोकहित का माध्यम बन जाती है। सत्कर्म स्वतः ही परोपकार होते हैं। आत्म-कल्याण उन्हीं गतिविधियों को अपनाने से संभव है जिनसे जन-साधारण का हित साधन होता हो।

मानव-जीवन का सदुपयोग परमार्थ से है। परमार्थ का तात्पर्य है, सच्चे, स्वार्थ की साधना। झूठा स्वार्थ वासनाओं और तृष्णा से ग्रसित होकर अकर्म या कुकर्म करने से माना गया है। ऐसे मार्ग पर चलने वाला क्षणिक लाभ भले ही प्राप्त कर ले अन्ततः उसे लोकनिन्दा, अविश्वास, घृणा, असन्तोष, राजदण्ड, आत्म-प्रताड़ना, विक्षोभ, असंतोष, नरक एवं पतन के रूप से ही भोगना पड़ता है। इसलिए मनीषियों ने उसे निन्दित एवं हेय ठहराया है। परमार्थ की प्रशंसा इसलिए की है कि वह प्रारम्भ में थोड़ा कष्ट साध्य भले ही हो, वासना और तृष्णा की सीमित पूर्ति ही उससे भले होती है पर अन्ततः सब प्रकार की प्रगति के द्वार उसी से खुलते हैं। परमार्थी व्यक्ति अपनी सच्चरित्रता, कर्त्तव्य परायणता एवं उदारता के कारण दूसरों के हृदय में अपने लिए स्थान बनाता है और उनका सद्भाव सहयोग पाकर लौकिक दृष्टि से भी लाभ में रहता है, और आध्यात्मिक दृष्टि से तो आत्मसन्तोष का सुख हमें निरन्तर मिलता ही रहता है।

अपने जीवन को सार्थक बनाने की दृष्टि से भी और विश्वहित साधन का पुण्य परमार्थ करने की दृष्टि से भी हमें सबसे पहले यह प्रयत्न करना चाहिए कि अपना व्यक्तित्व निर्दोष, निर्मल एवं निष्पाप हो। दोष, पाप और मल ही हमारी प्रगति में सबसे बड़े बाधक हैं। उन्हें जितना ही हटाया या मिटाया जायेगा उतनी ही अंतर्ज्योति प्रदीप्त होती चलेगी और उसके प्रकाश में जीवन का प्रत्येक पहलू प्रकाशवान बनता चलेगा। उस प्रकाश में भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की सभी समस्याएँ अपने आप ही सुलझती चलेंगी।

अध्यात्म विद्या का प्रथम सूत्र यह है कि प्रत्येक भली-बुरी परिस्थितियों का उत्तरदायी हम अपने आपको माने बाह्य समस्याओं का बीज अपने में ढूंढ़े और जिस प्रकार का सुधार बाहरी घटनाओं व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में चाहते हैं उसी के अनुरूप अपने गुण कर्म स्वभाव में हेर-फेर प्रारम्भ कर दे। भीतरी सुधार बाहरी समस्याओं को सुधारने में सबसे बड़ा, सबसे प्रभावशाली उपाय सिद्ध होता है। माना कि दूसरों की गलतियों और बुराइयाँ भी हमें परेशान करती हैं और अनेक प्रकार की बाधाएं खड़ी करके प्रगति का द्वार रोकती हैं। संसार में बुरे लोग हैं और उनमें बुराइयाँ भी कम नहीं हैं इस बात से कोई इनकार नहीं करता, पर साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई वस्तु सजातीय एवं अनुकूल परिस्थितियों से ही बढ़ती एवं पनपती है। बुराई को अपना रूप प्रकट करने का अवसर तभी मिलेगा जब वैसी ही बुराई अपने अन्दर भी हो। अपना स्वभाव उत्कृष्ट हो तो बुरे लोगों को भी झक-मारकर निरस्त होना पड़ता है।

क्रोधी मनुष्य को आक्रमण करने का अवसर उसी पर मिलता है जो स्वयं भी क्रोधी हो। क्रोध से क्रोध बढ़ता है और उसकी क्रिया−प्रतिक्रिया द्वन्द्वयुद्ध का रूप धारण कर लेती है। यदि एक व्यक्ति नम्र, सहनशील, हंस-मुख, क्षमाशील और दूरदर्शी हो तो क्रोधी स्वभाव का मनुष्य भी उसे उत्तेजित नहीं कर पाता। वह अपनी नम्रता और सज्जनता से उसे शान्त कर देता है और क्रोध का जो मूल कारण था उसके समाधान का भी उपाय सोच लेता है। इसके विपरीत यदि दोनों ही क्रोधी हुए तो कोई बड़ा कारण न होते हुए भी केवल शब्दों की उच्छृंखलता लेकर परस्पर लड़ मरते हैं और मित्रता शत्रुता में बदल जाती है।

दुराचारी की दाल वहीं गलती है जहाँ सदाचार का पक्ष दुर्बल हो। ठग हमेशा लोभी पर हाथ साफ करते है। दरिद्रता, आलसी के घर आती है, बीमारियाँ असंयमी पर हावी होती हैं, भय डरपोक को सताता है, अदूरदर्शी एवं जल्दबाज को चिन्ताएं घेरती हैं। यदि अपना व्यक्तित्व सदा खरा और मजबूत हो तो इन बाहरी विकृतियों को उलटे पाँवों लौटना पड़ेगा। पत्थर पर तलवार का प्रहार क्या सफल होगा ? ताली दोनों हाथों से बजती है। मक्खी गन्दगी पर बैठती है। घाव होगा तो उससे कीड़े भी पड़ेंगे। यदि अपना पक्ष पहले से ही स्वच्छ रखा जाय तो सारे संसार के दोष मिलकर भी व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। चन्दन के पेड़ से लिपटे रहने वाले अनेकों सर्प उसे विषैला नहीं बन सकते। दुष्टों की दुष्टता सज्जनों की खरोच भले ही पहुँचावे पर उन्हें परास्त नहीं कर सकती। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस बात का साक्षी है कि सज्जनता को नहीं दुर्जनता को ही परास्त होना पड़ा है।

कोई आध्यात्मवादी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसे ग्रहदशा ने, भाग्य ने, परिस्थितियों ने या दूसरों ने सताया है। वह सदा यही मानेगा कि अपने भीतर कोई कमी रह गई जिसके कारण दुष्टता को सफल होने का अवसर मिल गया। प्रत्येक बाह्य आघात या असफलता का कारण वह अपने अन्दर ढूंढ़ता है और जो त्रुटियाँ सूझ पड़ती हैं उन्हें सुधारने के लिए जुट जाता है। इस तरीके को अपनाने से तीन चौथाई समस्याएं हल हो जाती हैं। एक चौथाई जो अनिवार्यतः बनी रहती हैं उन्हें वह उपेक्षा में अपनी सहन-शीलता के बलबूते हँसते खेलते भुगत लेता है। कठिनाई के कारण दूसरे लोग जिस पर उद्विग्न रहते और रोते चिल्लाते हैं वैसी परिस्थिति उसकी गम्भीरता उत्पन्न ही नहीं होने देती। तितिक्षा और सहन-शीलता के बल पर बड़े से बड़े अभाव एवं कष्टों को हँसते हुए भुलाया या भुगता जा सकता है।

इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि बाहर से जो बाधाएँ उपस्थित होती हैं उन्हें हटाने का कोई प्रयत्न न किया जाय। वह तो करना ही चाहिए। संघर्ष में ही जीवन है। प्रत्येक पुरुषार्थी को मार्ग की बाधाएँ हटाकर ही उनसे छूटकर ही अपना मार्ग बनाना पड़ता है। पर छूटने की शक्ति भी तो आत्मनिर्माण से ही, प्राप्त होती है, यदि मनुष्य अस्त−व्यस्त मनोभूमि का हुआ तो उसके लिए बाधाओं से लड़कर प्रगति का मार्ग बना सकना तो दूर होगा, उल्टे उनकी कल्पना और आशंका से ही भयभीत होकर वह मानसिक सन्तुलन खो देगा और चिन्ता एवं परेशानी से अपना स्वास्थ्य तक गँवा देगा।

अपने स्वभाव और दृष्टिकोण को सुधारने की ओर जिसका ध्यान है जो अपनी त्रुटियों को ढूंढ़ने और हटाने में सचेष्ट है उसे बुद्धिमान और दूरदर्शी कहना चाहिए। अपनी परिस्थितियों जिन्हें सुधारती हों अपने भाग्य और भविष्य को जो उज्ज्वल देखना चाहते हों उनके लिए एकमात्र उपाय यही है कि अपनी दुर्बलता पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाय और यह पता लगाया जाय कि अब की अपेक्षा हम किन श्रेष्ठताओं को और भी बढ़ा सकते हैं और किन त्रुटियों का किस सीमा तक किस प्रकार संशोधन कर सकते हैं। यह आकाँक्षा जितनी ही तीव्र होगी, जितना ही इस दिशा में प्रयत्न बढ़ेगा उतना ही उत्थान का मार्ग प्रशस्त होगा।

आहार और विहार के असंयम की कठोर समीक्षा करते हुए यदि अपना रहन-सहन सुव्यवस्थित करने पर ध्यान किया जाय, जिह्वा और कामेन्द्रिय पर काबू रखा जाय, अनियमितता को हटाकर दिनचर्या को सुव्यवस्थित बनाया जाय, आलस्य को छोड़कर समय के एक-एक क्षण को मनोयोगपूर्वक निर्धारित कार्यक्रम में संलग्न रखा जाय तो शरीर का बिगड़ा हुआ ढंग देखते-देखते कुछ ही दिनों में ठीक हो सकता है और बीमारी कमजोरी के कारण जो आये दिन चिकित्सकों के दरवाजे पर नाक रगड़नी पड़ती है उससे सहज ही छुटकारा मिल सकता है। दवाई का खर्च, अस्वस्थता के कारण पीड़ा एवं परेशानी, काम का हर्ज, सम्बन्धियों का तिरस्कार, कुरूपता, बुढ़ापा एवं अकाल मृत्यु की छाया इन सब विपत्तियों का तीन चौथाई निवारण मनुष्य स्वयं कर सकता है। यदि वह असंयम से छुटकारा पा सके तो अस्वस्थता भी पीछा जरूर छोड़ देगी।

मानसिक दृष्टि से अगणित व्यक्ति चिन्ता, भय, शोक, लोभ, आवेश, उत्तेजना, ईर्ष्या, द्वेष, निराशा, आशंका आदि से ग्रस्त होकर उद्विग्न जीवन बिताते हुए नारकीय यंत्रणाएं सहते रहते हैं। इनके कारणों के तलाश करने पर वस्तुस्थिति बहुत ही सामान्य होती है। आत्म-हत्या तक कर बैठने वालों के संक्षोभ का कारण तलाश करने पर बात बहुत ही सामान्य सी निकलती है, कई बार तो इतनी छोटी होती है कि उसे उपेक्षा से गुजारा जा सकता था, या कोई दूसरा उपाय उस क्षोभ से बच निकलने का आसानी से ढूंढ़ा जा सकता था, पर उतावली एवं आवेश में वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अपनी विवेकशीलता खो बैठे और न करने लायक कर गुजरे। ऐसे उत्पाती, अधीर और आवेशग्रस्त मनुष्य साधारण घटनाओं को लेकर विक्षुब्ध बने फिरते हैं और अपने लिए तथा अपने सम्बन्धित लोगों के लिए अशाँति की ज्वाला प्रज्वलित करते रहते हैं। यदि इस स्थिति की भयानकता को मनुष्य समझे और अपनी धैर्यवान गम्भीर, विचारशील एवं हंस खेलकर कठिनाई को काट देने को आदत बना ले तो निश्चय ही उसका मन सदा सन्तुलित और प्रसन्न बना रहे। कुढ़ने की अपेक्षा समस्या का हल वह अधिक आसानी से सोच सके और गई गुजरी परिस्थितियों में आशा एवं उत्साह की कोई किरण उपलब्ध कर ले।

मन को सन्तुलित करने के लिए किया हुआ प्रयत्न जीवन के सारे स्वरूप को बदल देता है। नरक को स्वर्ग में परिवर्तित करने को ही कुँजी मनुष्य के हाथ में है। सोचने का तरीका यदि बदल डाले, खिलाड़ी की भावना रखकर जिन्दगी का खेल खेले, नाटक के पात्रों की तरह अभिनय का आनन्द लेते हुए दिन गुजारे, बुराई में से भलाई और निराशा में से आशा की किरणें ढूंढ़ने का अभ्यास करे तो कोई कारण नहीं कि रोता रहने वाला मनुष्य हँसते खिलते गुलाब के रूप में परिणित होकर न केवल अपनी ही मानसिक समस्या हल कर ने वरन् पड़ौसियों और सम्बन्धियों के लिए भी प्रसन्नता, आशा एवं प्रेरणा का केन्द्र बन जाय।

हमें अपना उद्धार करना चाहिए, आज की अपेक्षा कल अधिक निर्मल और अधिक उत्कृष्ट बनने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि इस मार्ग को अपना सकना हमारे लिए सम्भव हो सका तो न केवल अपना वरन् सारे समाज का सारे विश्व का भी हित साधन करने का श्रेय प्राप्त करेंगे। युग निर्माण का कार्य व्यक्ति निर्माण से ही आरम्भ होता है। संसार की सेवा करने का व्रत लेने वाले प्रत्येक परमार्थी को अपने आपकी सेवा करने का व्रत लेकर विश्व मानव की उतने अंश में सेवा करने को तत्पर होना चाहिए जितने का कि उत्तरदायित्व अपने ऊपर है। समस्त संसार की सेवा कर सकना कठिन है। अपनी सेवा तो आप कर ही सकते हैं। समस्त संसार को सुखी बनाना और सन्मार्ग पर चलाना यदि अपने लिए कठिन हो तो अपने को सुखी-सन्तुलित एवं सन्मार्गगामी तो बना ही सकते हैं। दूसरों का उद्धार कर सकना उसी के लिये सम्भव होता है जो अपना उद्धार आप कर सकने में समर्थ होता है।


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