प्रगतिशील जातीय संगठनों की आवश्यकता

February 1964

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दिव्य समाज की नव-रचना करने के लिए हमें दूसरों को उपदेश देने की अपेक्षा आदर्श विवाहों के सजीव आन्दोलन अपने परिवार से ही आरम्भ कर देने चाहिए। गत वर्ष रजत-जयन्ती को युग-निर्माण योजना का प्रेरणापर्व मान कर स्वजनों ने जैसी श्रद्धा अभिव्यक्त की है उसे देखते हुए कुछ ही दिनों में यह संख्या एक लाख तक पहुँच जाना स्वाभाविक है। इतने बड़े संगठन को एक बड़ी जाति बिरादरी भी कहा जा सकता है। एक लाख सदस्यों के स्त्री, बच्चे, माता, पिता, परिजन एवं प्रभाव में चलने वाले लोगों की संख्या दस लाख से कम किसी भी प्रकार नहीं होगी। इतने लोगों की बिरादरी हिन्दुस्तान में थोड़ी-सी ही होंगी। अधिकाँश तो इससे बहुत कम है।

“अखण्ड-ज्योति” परिवार एक आध्यात्मिक एवं साँस्कृतिक संगठन है और उसका लक्ष केवल वही रहेगा। पर वैवाहिक कुरीतियों की असुरता से निपटने के लिए उसका एक सामयिक दूसरा मोर्चा भी खोला जाना आवश्यक हो गया है। परिवार की एक दूसरी पंक्ति जातीय संगठनों के रूप में भी रहे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं। हमारा विचार है कि अखण्ड-ज्योति संगठन बनाने का भी एक काम सौंप दें और सहायक आन्दोलन के रूप में हम सब उस कार्य को भी चलाते रहें। विवाहों को जाति के अन्दर ही करने की मान्यता जब तक प्रचलित है तब तक इस प्रकार के संगठन भी तात्कालिक समस्या हल करने में, उपयुक्त सम्बन्ध तलाश कराने में बहुत सहायक बन सकते हैं

स्पष्ट है कि हम गुण, कर्म, स्वभाव को जाति का आधार मानते हैं। पर प्रचलित वंश परम्परा के अनुसार जाति में शादियों की समस्या जब तक बनी हुई है तब तक प्रगतिशील लोगों के जातीय संगठन बना लिए जाय तो उसमें कुछ हर्ज नहीं। ऐसे संगठनों में संकीर्णता बढ़ने और फूट फैलने का खतरा रहता है पर उसकी सावधानी आरंभ में रखी जाय तो उससे बचते हुए लाभ का अंश प्राप्त किया जा सकता है। विष को भी शोधित करके बलवर्धक औषधियाँ बना ली जाती हैं। जातीय संगठनों में भी हम अनेकता से एकता की ओर बढ़ने का लक्ष्य ऊँचा हो तो फिर बुरे परिणाम हो ही कैसे सकते हैं?

कुँए में गिरे हुए को निकालने के लिए कुंए में घुसना पड़े तो दोनों की क्रियाएँ एक सी दीखते हुए भी परिणाम भिन्न ही होंगे। एक अपने प्राण बचाने के लिए नीचे उतरा तो उनके कृत्य और परिणाम में अन्तर मानना ही पड़ेगा। जातीय संगठनों के आधार पर भी हम विवाह में होने वाले अपव्यय को ही नहीं, अन्य प्रकार की अनेक कुरीतियों को मिटाने एवं सत्वृत्तियों को बढ़ाने में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

सन् 64 की प्रथम छमाही में अखण्ड-ज्योति की रजतजयन्ती से सम्बन्धित पंच-सूत्री कार्यक्रम में सभी परिजन लगे हैं। वसंत-पंचमी को यों रजत-जयन्ती का हर्षोत्सव मनाया गया है पर उसके साथ ही जो अनेक कार्यक्रम जुड़े हुए हैं उनमें भी तो क्रियान्वित करना है, इसके बिना उस उत्सव का कोई मूल्य नहीं रह जाता। अखण्ड-ज्योति परिवार की संख्या वृद्धि, उसे एक लाख बना देने की बात भी सामने है। इसके बिना युग-निर्माण का कोई ठोस कदम उठ भी नहीं सकेगा। थोड़े आदमी महान कार्य का सम्पादन करने में समर्थ कैसे हो सकते हैं? इसलिए परिवार के हर व्यक्ति को यह प्रेरणा दी गई है कि वह अपने सम्बन्धित और परिचित क्षेत्र में युग-निर्माण का संदेश पहुँचाने के लिए अखण्ड-ज्योति का प्रवेश कराने का प्रयत्न करे और उसमें आलस्य एवं उपेक्षा की तनिक भी गुंजाइश न रहने दें।

वर्ष की दूसरी छमाही में जुलाई से अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों को प्रगतिशील जातीय संगठनों के रूप में एक दूसरा सामाजिक मोर्चा बनाने के लिए संगठित करेंगे। जून की पत्रिका में एक फार्म लगा कर प्रत्येक परिजन से यह पूछेंगे कि वह किस वर्ण के अंतर्गत किस जाति या किस उपजाति का है। उसकी विवाह शादी अपनी ही उपजाति में होती है या अन्य उपजातियों में भी। इन प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर जिनमें परस्पर विवाह शादियाँ होती है उनके क्षेत्रीय संगठन बना देंगे। उनके संचालकों की नियुक्ति कर दी जायगी और उनसे कहा जायगा कि अपने समान प्रगतिशील विचार के लोगों को उस संगठन के अंतर्गत भर्ती करने और अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाने की तैयारी में लग जावें।

लोग अपने आस-पास के क्षेत्र में ही विवाह शादी करना पसंद करते हैं, इसलिए प्रत्येक प्रान्त को दस-दस क्षेत्रों में बाँटकर उन क्षेत्रों की प्रगतिशील जातीय सभाएँ बनाई जायेगी। उनके प्रतिनिधियों का संगठन प्रान्तीय एवं प्रांतियों का अखिल भारती भी बन जायगा। प्रत्येक क्षेत्र की प्रत्येक उपजातियों की सभाएं रहेंगी और उनके कार्यालय में उस क्षेत्र की सभी ग्राम सभाओं के विवाह योग्य लड़के और लड़कियों के सम्बन्ध में पूरे विवरण सहित आवश्यक जानकारी रहेगी। ग्राम सभाएं अपनी क्षेत्रीय सभा के कार्यालय में प्रतिवर्ष अपने यहाँ के विवाह योग्य लड़के-लड़कियों की सूचनाएं भेजा करेंगी। जिन्हें लड़कों की जानकारी प्राप्त करनी हुआ करेगी वे उसी क्षेत्रीय कार्यालय में आवश्यक जानकारी प्राप्त करके खोज-बीन करेंगे। वर-कन्या की पसंदगी एवं आवश्यक जानकारी परस्पर दोनों पक्ष करेंगे। केवल आदर्श विवाह कराने के लिए आवश्यक बल देने का कार्य क्षेत्रीय सभा का होगा।

यों जातीय सभाएं पहले से भी मौजूद हैं, पर उनके और इन अपनी सभाओं के उद्देश्य में आकाश-पाताल का अन्तर है। इसलिए इनके नाम के आगे “प्रगतिशील कायस्थ सभा”, प्रगतिशील अग्रवाल सभा, प्रगतिशील चौहान सभा, प्रगतिशील सनाढ्य सभा आदि। इन सभाओं में सम्मिलित होने वाले नये सदस्यों को उस प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे, जिसमें दहेज, जेवर, बरात एवं अपव्यय का परित्याग करके विवाह करने की बात पर सहमति एवं स्वीकृति होगी। ऐसे सदस्यों की संख्या बढ़ाने का प्रत्येक सभा शक्ति भर प्रयत्न करेगी। प्रचारक रखेगी। सम्मेलन करेगी और अभिभावकों को व्यक्तिगत प्रेरणा देगी कि वे अपने बच्चों का विवाह आदर्शवादी पद्धति से ही करें विवाहों के अतिरिक्त जो अन्य कुरीतियाँ इस जाति के उस क्षेत्र में फैली हुई होंगी, उनका भी यह सभाएं विरोध करेंगी और संध्या, गायत्री, यज्ञोपवीत, सदाचार, शिष्टाचार, शिक्षा, व्यायाम, स्नेह, सद्भाव एवं जो अन्य सत्प्रवृत्तियाँ सम्भव होंगी, उनका भी प्रसार करेंगी। बाल विवाह, अनमेल विवाह, कन्या विक्रय आदि का विरोध करेंगी। बड़ों के चरण स्पर्श, तू न कहकर तुम या आपका संबोधन करना, प्रौढ़ शिक्षा, कन्या शिक्षा आदि जिन अच्छाइयों को जहाँ बढ़ाने का अवसर होगा वहाँ उनके लिए प्रयत्न करेंगी।

इन प्रगतिशील सभाओं में परस्पर पूर्ण सहयोग रहेगा। एक जाति के अंतर्गत जितनी उपजातियाँ होंगी, उनका एक वार्ड बना दिया जायेगा जो इस बात का प्रयत्न करता रहेगा कि जहाँ उपर्युक्त वातावरण हो वहाँ एक जाति के अंतर्गत जो उपजातियाँ हैं उनमें परस्पर विवाह शादी होने लगे। संकीर्णता को बढ़ाना नहीं वरन् उदारता एवं आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ाना ही इनका उद्देश्य रहेगा। यह प्रगतिशीलता ही तो उनकी उपयोगिता का मेरुदण्ड है अन्यथा संकीर्णता की अभिवृद्धि करने वाले संगठनों से तो उनका न बनना ही अच्छा।

जून के अंत में जो फार्म लगाया जायेगा उसका उत्तर आने पर प्रत्येक क्षेत्र में किस उपजाति के कितने सदस्य हैं उसका पता चल जायेगा। उनके संचालकों की नियुक्ति यहाँ से कर दी जायेगी और उन्हें उस प्रान्त के सदस्यों की सूची भेजकर उनका संगठन सुव्यवस्थित करने की प्रेरणा की जायेगी। आरम्भ में इन प्रगतिशील जातीय सभाओं का निर्माण हम कर देंगे, पीछे वे अपना क्षेत्र एवं कार्यक्रम स्वयं बढ़ाती रहेंगी।

एक उपजाति में प्रगतिशीलता लाना भी उतने अंश में राष्ट्र को प्रगतिशील बनाना ही है। एक गाँव को न सही- एक उपजाति को सही, आदर्शवादी बनाने के लिए यदि कुछ प्रयत्न किया जाता है तो उससे राष्ट्र का हित साधन ही होगा।

दहेज एवं विवाहों में होने वाले अपव्यय को मिटाकर सादगीपूर्ण मितव्ययी विवाहों की प्रथा प्रचलित होने से हिन्दू जाति की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सेवा होगी। इस अपव्यय से बचा हुआ पैसा बच्चों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के विकास में लगाया जा सकेगा और अभिभावकों को नारकीय चिन्ता की चिता में जलते रहने से छुटकारा मिलेगा। मजबूरी में जो अनीति का आश्रय लेना पड़ता है, विवाह की सरलता हो जाने पर उससे भी पीछा छूटेगा और सरल सदाचारी जीवन बिताने की सम्भावना बढ़ेगी। इन कुरीतियों का उन्मूलन देश, धर्म और संस्कृति की सच्ची सेवा है, उसके लिए हम सब को कुछ करना ही चाहिए। इस परिवर्तन की पुण्यबेला में भारतीय धर्म के पुनरुत्थान का जो महान प्रयत्न किया जा रहा है उस गोवर्धन को उठाने में हमारा भी योगदान रहना ही चाहिए।


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