सवै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीय मैच्छत्। स हैतावानास। यथा स्त्री पुमाँसौ स परिष्वक्तौ स इम मेवात्मानं द्वेधापातयत्ततः तपिश्च पत्नी चा भवताम्।
वह ब्रह्म आनन्द नहीं कर सका क्योंकि अकेला कोई भी आनन्द नहीं कर सकता। उसने दूसरे की इच्छा की। वह ऐसा था जैसे स्त्री पुरुष मिले हुए होते हैं। उसने अपने इस रूप के दो भाग किये, जिनसे पति और पत्नी हो गये।
देववत् सततं साध्वी भर्तारमनुपश्यति।
दम्पत्यो रेष यै धर्मः सहधर्म कृतः शुभः॥
- विष्णु पुराण
पत्नी पति को देवता के समान और पति-पत्नी को देवी के समान समझे। दोनों का धर्म और कर्त्तव्य समान है।
भार्यापत्युर्व्रतं कुर्याद् भार्यायाश्च पतिर्वतम्।
संसारोऽपि हि सारः स्याद् दम्पत्योरेक कः।
यदि पति-पत्नी एक हृदय हों तो यह असार संसार भी सारवान बन जाता है।
पत्नी के पति के प्रति कैसे भाव रहें इसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार है :-
न कामये भतृविनाकृता सूखं
न कामये भर्तू विनाकृतादिवम्
न कामये भर्तू विना कृता श्रियं
न भतृहीना व्यवसामि जीवितुम
“मैं पति के बिना सुख नहीं चाहती, बिना पति के स्वर्ग नहीं चाहती, बिना पति के धन नहीं चाहती, बिना पति के जीना भी नहीं चाहती।” ऐसे ही भाव पति भी पत्नी के प्रति रखें।
सव्र तीर्थ समो भर्ता सर्व धर्म मयः पति।
मलानाँ यजनात् पुण्यं यद् वै भवति दीक्षिते
तत् पुण्यं समवाप्नोति भर्तुश्चैव हि साम्प्रतम्।
- पघ. भूमि. 41 । 4-15
अर्थात् पति में सब तीर्थ समाये हुए हैं। पति ही सर्व धर्ममय हैं। यज्ञ और दीक्षा का जो पुण्य है वह स्त्री को पति की पूजा से तत्काल प्राप्त होता है।
स्त्री के लिए जो व्यवहार पति के लिए आवश्यक बताया गया है वही व्यवहार पति-पत्नी के साथ भी करे। कहा गया है-
नास्ति भार्यां समं तीर्थ नास्ति भार्यां समं सुखम्।
नास्ति भार्यां समं पुण्यं तारणाय हिताय च।
- पद्मपुराण
पत्नी के समान कोई तीर्थ नहीं, पत्नी के समान कोई सुख नहीं, पत्नी के समान कोई पुण्य नहीं। दुख से तरने और हित साधन करने के लिए पत्नी के समान और कोई नहीं हैं।
इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति अपने शब्दों में महाकवि कालिदास ने इस प्रकार की है :-
गृहिणी सचिवः सखी मित्रः प्रिय शिष्या ललिते कला विधौ।
“पत्नी ही धर्म-मंत्री, मित्र, प्रिय तथा ललित कलाओं की शिष्या है।”
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याण तत्र वै ध्रवम्॥
स्त्रियाँ तु रोचमानायाँ सर्व तद्रोचते कुलम्।
तस्याँ त्वरोचमानायाँ सर्वमेय न रोचते।
मनुस्मृति 3 । 60 । 62
अर्थात् “ जिस कुल में पत्नी से पति और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहते हैं, उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जहाँ
उनमें कलह होता है वहाँ दुर्भाग्य और दारिद्रय स्थिर रहता है स्त्री की प्रसन्नता से ही सब कुल प्रसन्न रहता
है और उसकी अप्रसन्नता से सब अप्रसन्न और दुखदायक हो जाता है।