विवाह शादियों में होने वाले अपव्यय की हानि और बुराई को लोग समझते न हो सो बात नहीं है। किसी भी विचारशील से पूछा जाय तो वह उस कुप्रथा की भर पेट निन्दा करेगा और जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी उसे समाप्त करने की बात कहेगा। लेखों द्वारा, भाषणों द्वारा, प्रस्तावों द्वारा इसका बहुत समय से विरोध होता चला आ रहा है। पर कोई कारण ऐसा बना हुआ है जो इतने विरोध एवं इतने त्रास के बावजूद भी वह बुराई को ज्यों-का-त्यों कायम रखे हुये है। घटने के बजाय उसकी वृद्धि ही होती चलती है। हर नये साल पिछले वर्ष की अपेक्षा यह बुराई और भी भयंकर रूप से दृष्टिगोचर होती है। आइए इस कारण को ढूंढ़े जो इसे न हटने देने, न घटने देने का प्रमुख कारण बना हुआ है।
कारण यह है कि एक पक्ष सादगी का विवाह करना चाहता है पर उसे अपनी जैसी विचारधारा और परिस्थिति का दूसरा पक्ष नहीं मिलता। यदि कोई ऐसा उपाय हो कि समान परिस्थिति और विचारधारा के दोनों पक्ष मिल जायें तो दहेज तथा अन्य आडम्बर छोड़कर मितव्ययितापूर्वक विवाह करने की प्रक्रिया सहज ही चल पड़े। इसलिए एक कारण यह है कि दोनों पक्ष एक समान नहीं मिलते और मजबूरी में इच्छा के विरुद्ध फिजूलखर्ची का तरीका अपनाना पड़ता है।
दूसरा कारण है समाज में अप्रतिष्ठा का भय। सोचा जाता है कि यदि सादगी का विवाह किया गया तो लोग हमें गरीब या कंजूस समझेंगे। हँसी उड़ायेंगे, अपमानित करेंगे। घर की स्त्रियाँ विरोध करेंगी और रिश्तेदार ताना मारेंगे। इसलिये इस झंझट में क्यों पड़ा जाय? कई व्यक्ति लड़की के विवाह में देकर उसी स्टैंडर्ड से लड़के के विवाह में पाने की आशा लगाये रहते है। और इस प्रकार वही चरखा चलता रहता है। यदि सादगी का विवाह करने से अधिक सम्मान मिलने लगे, जमाने का स्तर ऐसा हो जाय कि फिजूलखर्ची करने वालों को भर्त्सना की जाय और सादगी अपनाने वालों को यश एवं सम्मान मिले तो निश्चय ही लोग यह पसन्द करेंगे कि उन्हें मितव्ययिता और प्रशंसा का मार्ग ही अपनाना चाहिए। हमें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि एक समान विचारधारा एवं परिस्थितियों के घर-घर ढूंढ़ने की सुविधा हो जाय और ऐसे प्रगतिशील जो भी विवाह हो वे ऐसे सुव्यवस्थित ढंग से हों कि उनके संयोजकों को जनता का समर्थन एवं सम्मान भी भरपूर प्राप्त हो।
लड़के ढूंढ़ने में एक कठिनाई यह भी है कि एक सीमित क्षेत्र में एक सीमित जाति में ही वह ढूंढ़-खोज करनी पड़ती है। हर आदमी की जानकारी सीमित होती है इसलिये वह तलाश भी छोटे दायरे में ही कर सकता है। जब उतनी परिधि में अनुकूल अवसर नहीं मिलता तो उसे वर्तमान ढर्रे पर ही चलने को विवश होना पड़ता है। इसलिये हमें ऐसे साधन भी जुटाने पड़ेंगे कि हर स्थिति के व्यक्ति को अपनी आवश्यकता के अनुरूप लड़का प्रगतिशील सुधारवादी लोगों में से ही मिल जाय। यदि यह साधन बन पड़ा तो फिर आदर्श विवाहों का ताँता लगने में देर न लगेगी।
आमतौर से हमारे समाज में अपनी उपजातियों में ही विवाह करने की प्रथा थी। उस दायरे से बाहर रोटी-बेटी व्यवहार करना हेय माना जाता है। उपजातियों के सीमित दायरे में अच्छे लड़के ढूंढ़ना काफी कठिन पड़ता है। जहाँ अच्छे घर-वर, होते हैं वहाँ नीलामी बोली इतनी ऊँची हो जाती है कि उस खरीद में सफल होना हर लड़की वाले का काम नहीं होता। ‘जो बढ़े सो पावे’ की नीति जहाँ अपना ली गई है वहाँ तो अमीर ही बाजी मार सकते हैं। यदि उपजातियों का दायरा बड़ा होकर उस पूरी जाति तक बढ़ सका होता तो लड़के ढूंढ़ने की समस्या का आधा हल अपने आप हो जाता। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यह चार ही जातियाँ ब्रह्माजी ने बनाई थीं। वेद-शास्त्रों में इन चार का ही वर्णन मिलता है। उपजातियाँ तो उनके निवास-स्थान को लेकर बन गई। मालवा में रहने वाले-मालवीय, कन्नौज के आस पास रहने वाले कन्नोजिया, (कान्य-कुब्ज) सरयू किनारे रहने वाले सरयू पारीण, मिथिला प्रान्त में रहने वाले मैथिल कहलाते। इसी प्रकार अन्य कारणों को लेकर एक ही जाति की अनेक उपजातियाँ का भेद छोड़कर यदि एक वर्ण के लोग अपने वर्ण में विवाह करने लगें तो इसमें किसी रूढ़ि का उल्लंघन भले ही होता हो धर्म और शास्त्र के अनुसार इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। ब्राह्मण यदि अन्य ब्राह्मणों में शादी करने लगे तो इसमें नया अधर्म होगा? इसी प्रकार यदि क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ, स्वर्णकार आदि अपनी पूरी जाति में विवाह, शादियों का दायरा बढ़ा लें तो उन्हें अच्छे लड़के बहुत जल्दी ढूंढ़ने में भारी सुविधा हो सकती है और उस विशाल क्षेत्र में सुधारवादी एवं प्रगतिशील ऐसे लोग भी आसानी से मिल सकते हैं जो आदर्श विवाहों के लिये खुशी-खुशी तैयार हो जायें।
विवाह को दहेज, जेवर और फिजूलखर्ची से मुक्त बनाने के लिये हमें एक संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष की पूर्ण सफलता उपजातियों के विस्तार पर ही निर्भर है। पर दोनों-दोनों मोर्चों पर संघर्ष छेड़ना असामयिक होगा इसलिये अभी प्रारम्भ में इतना हो सके तो भी कम नहीं कि उपजातियों में ही प्रगतिशील लोगों को अपने विचार और परिस्थितियों के सम्बन्ध ढूंढ़ने की सुविधा हो जाय। यदि यह सुविधा संभव हो सकी तो आधा मोर्चा फतह हो जाने का साधन बन जायेगा।
हमने पिछले दिनों इस सम्बन्ध में काफी प्रयत्न किया है। कितने आदर्श विवाह कराये भी हैं। और समय-समय पर उपस्थित स्वजनों को इसकी प्रेरणा भी दी है। उन आदेशों को लोगों ने स्वीकार भी किया है। पर पता लगाने पर यही विदित हुआ कि उन सहमति प्रकट करने वालों में से भी कोई आदर्श विवाह न कर सका। कारण यही था कि उन्हें अपने अनुरूप विचार एवं स्थिति के लोग अपनी जाति में न मिले और एक पक्षीय व्यवस्था बन नहीं सकती थी इसलिये विवश होकर उन्हें अपना मत बदलना पड़ा। ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के स्वजनों में से अधिकाँश हमारी ही विचारधारा के हैं वे खुशी-खुशी आदर्श विवाह करने को तैयार हैं पर दूसरा पक्ष भी उन्हें वैसा ही मिले तब तो बात आगे बढ़े। जिसकी कन्या सयानी हो गई है उसे तो जल्दी रहती है, जहाँ अवसर मिल जाता है वहीं सम्बन्ध करना पड़ता है। अपने परिवार की हर शाखाओं में भी अनेकों सदस्य होते हैं पर जाति का बन्धन रहने से उनमें भी विवाह होने का योग जम नहीं सकता। ऐसी दशा में अब तक के हमारे सब प्रयत्न निष्फल होते रहे हैं।
दहेज और वैवाहिक अपव्यय का विकास इतना भयानक है कि इसे रावण और कंस की उपमा दी जाय तो भी कम है। रावण प्रायः ऋषियों को मारता था और कंस ने बालकों का वध कराया था। पर यह असुर तो बाल-वृद्ध का अन्तर किये बिना हिन्दू-जाति के प्रत्येक सदस्य को चिन्ता की चिता में तिल-तिल कर जलाता रहता है। हमारे जातीय जीवन को इसी ने नष्ट किया है। सदाचार और धर्म के पथ में यही सबसे बड़ा बाधक है। कन्या और पुत्र में अन्तर कराने का, नारी को नर से निकृष्ट समझे जाने का प्रधान कारण उसी को मानना चाहिए। इस समय हिन्दू-जाति की आत्मा इसी दुष्ट के उत्पीड़न से नारकीय यन्त्रणा भुगत रही है। यदि इस वृत्रासुर, महिषासुर, बाणासुर, भस्मासुर से भी अधिक भयंकर महाराक्षस को परास्त किया जा सके तो ही हिन्दू-जाति के जीवन एवं उत्थान की बात सोची जा सकती है।
युग-निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए हमें इन विकृतियों और कुरीतियों का शोधन करने के लिए सुव्यवस्थित मोर्चाबन्दी करनी पड़ेगी। इसके बिना हम अपने सामयिक उत्तरदायित्वों से उऋण नहीं हो सकते। यों कहने को दहेज विरोधी कानून बन गया है और दहेज लेने तथा देने वाले दोनों ही अपराधी माने जा सकते हैं और राज दण्ड के अधिकारी बन सकते हैं। पर कानून से ही सब कुछ नहीं हो सकता। कानून तो खाद्य-पदार्थों में मिलावट, रिश्वत, बालविवाह, छुआछूत, नाली और सड़कों पर गंदगी फैलाना, कम तोलना, कम नापना आदि सभी बुराइयों के विरुद्ध बना हुआ है पर उनसे कितनी रोकथाम होती है यह हम सब जानते ही हैं। इसलिये उस पर निर्भर न रह कर हमें प्रभावशाली कदम उठाने होंगे जिनसे समस्या का वास्तविक हल निकाल सके।
आमतौर से दहेज के खिलाफ बहुत कुछ कहा जाता है। उसकी भर पेट निन्दा की जाती है। पर इतने मात्र से काम नहीं चल सकता। दहेज की जड़ जेवर में है। लड़की वाला जेवर की माँग करेगा तो लड़के वाला दहेज भी जरूर माँगेगा। यदि बन्द होने होंगे तो दोनों एक साथ बन्द होंगे और यदि बने रहेंगे तो दोनों साथ-साथ चलेंगे। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए हमें आदर्श विवाहों की भूमिका में इन दोनों ही कुप्रथाओं का उन्मूलन करने की बात लेकर चलना चाहिए। लड़के वाला न तो दहेज माँगे और न उसे दिया जाये। लड़की वाले को कुछ देना हो तो वह अपनी कन्या को स्त्री-धन के रूप में दे। उसका न तो दिखावा किया जाये और न चर्चा का विषय चलाया जाये। यह तो लड़की और उसके अभिभावकों के बीच निजी बात है उसमें लड़की के ससुराल वालों को कोई दिलचस्पी न होनी चाहिए। जो दिया गया है वह गुप्त रहे और उसे लड़की की निजी सम्पत्ति माना जाय। इसी प्रकार विवाह के अवसर पर लड़के वाला खादी की साड़ी और अंगूठी लेकर आवे। पीछे उन्हें अपनी वधू को कोई जेवर आदि देना हो तो विदा कराने पर अपने घर ले जा कर दे। लड़की वाले के दरवाजे पर उसका प्रदर्शन करने की कोई आवश्यकता न हो। शकुन के रूप में जहाँ आवश्यकता हो वहाँ एक रुपये का प्रयोग किया जाय।
बारात में कम से कम आदमी जाये। इनकी संख्या इतनी कम हो जिसके बिना काम ही न चले। अधिक से अधिक वे 25 हो सकते हैं। बेटे वाले के सम्बन्धी, व्यवहारी, मित्र बहुत हों तो उनका सम्मान एवं प्रीतिभोज अपने घर पर वधू के घर आने पर उसके सम्मान में करना चाहिए। बेटी वालों के यहाँ उन्हें ले जाने की क्या जरूरत है? हर कार्य में सादगी बरती जाय, मितव्ययिता का पूरा ध्यान रखा जाय और विवाह संस्कार शिक्षाप्रद एवं प्रेरणा देने वाले धर्म संस्कार के रूप में उत्साह एवं आनन्द के वातावरण में सम्पन्न किया जाये। छोटी-मोटी अन्य आवश्यक बातें स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार तय कर ली जायें। उनके दिल में यही भावना रहनी चाहिए कि विवाह को अधिक से अधिक सादा और सस्ता बनाया जाय।
चूँकि इन आदर्श विवाहों को सारे समाज में व्यापक बनाना है इसलिए उनका स्वरूप ऐसा बनाना होगा जिससे इस कदम उठाने वालों को आवश्यक सम्मान मिले। एवं अधिक लोगों को उसमें भाग लेने एवं प्रेरणा ग्रहण करने का अवसर मिले। विवाह का मंडप आकर्षक बनाया जाय, उसे खुले स्थान पर रखा जाय, संस्कार बहुत ही प्रभावशाली ढंग से सुविज्ञ व्यक्तियों द्वारा कराया जाय, स्थानीय विचारशील लोगों को आशीर्वाद देने के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किया जाय, उपस्थित लोग पुष्प मालाएँ और अपनी भावना के अनुरूप उपहार लेकर आवें। संभव हो तो छोटा जलपान भी रखा जाय। आशीर्वादों का क्रम प्रवचन एक हृदयग्राही रूप में रहे। दूर-दूर से शुभ कामना संदेश मंगाये जाएं और बन पड़े तो अखबारों और पर्चों द्वारा इस आयोजन की जानकारी अधिकतर लोगों को कराई जाय। ऐसे कई विवाह मिलकर एक बड़ा सामूहिक आयोजन बन पड़े तो और भी उत्तम। इस प्रकार कुशल मस्तिष्क के लोग स्थानीय परिस्थिति के अनुसार इस विवाह कृत्य की ऐसा आकर्षक बनायें कि सादगी एवं मितव्ययिता को पूर्ण रक्षा होते हुए भी उस प्रेरणा को अधिक व्यापक क्षेत्र में सम्मानित एवं प्रसारित किया जा सके।
आज की परिस्थितियों में हिन्दू जाति की अन्तरात्मा पुकार-पुकार कर यह कह रही है कि विवाह में होने वाले अपव्यय के कारण उत्पन्न होने वाले उत्पीड़न से उसकी रक्षा की जाय। समय की पुकार को हमें सुनना समझना चाहिए और उसकी पूर्ति के लिए युग प्रहरी की तरह हमें साहसपूर्वक कुछ करने के लिए अग्रसर होना चाहिए।