जुआ समाज का बड़ा शत्रु है

February 1964

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मानव-प्रकृति में जो कई प्रकार के दुर्गुण पाये जाते हैं उनमें अपहरण की वृत्ति भी सामान्यतः सर्वत्र देखने में आती है। यद्यपि शास्त्रकारों ने अति प्राचीन काल से इस बात का उपदेश दिया है कि “पर द्रव्येपु लोष्टवत्” अर्थात् कभी दूसरे के धन की आकाँक्षा मत करो और उसे मिट्टी के ढेले के समान उपेक्षणीय मानो परन्तु इस उपदेश पर आचरण करने वाले सदा उंगलियों पर गिनने योग्य रहे हैं। उस समय की बात तो छोड़ दीजिये कि जब मनुष्य पाशविक अवस्था में था और दूसरे को मारकर उसका सर्वस्व अपहरण कर लेने में भी कोई दोष नहीं समझता था, पर बाद में जब वह ‘सभ्य’ और ‘धार्मिक’ बन गया तब भी दूसरों की सम्पत्ति ठगने या छीन लेने की प्रवृत्ति बहुसंख्यक लोगों में पाई जाती थी।

फिर भी जहाँ तक प्राचीन साहित्य का अध्ययन करने से पता चलता है उस समय सिक्कों का अधिक प्रचलन न होने और खरीदने बेचने की प्रथा के बहुत सीमित होने के कारण सम्पत्ति का रूप आजकल के समान न था और सामान्य लोगों को वर्तमान समय की तरह छीन-झपट करने की सुविधा न थी। पर जब संसार में सिक्कों का प्रचार बढ़ा और रुपया, अशर्फी और आजकल नोटों के रूप में धन के सहज ही हस्तांतरण होने की-एक के पास से दूसरे के पास पहुँच सकने की सुविधा हो गई तब से यह प्रवृत्ति दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है। इस समय मनुष्य का लक्ष्य ही यह हो गया है कि किसी भी तरह धन संग्रह किया जाय, क्योंकि हर प्रकार के सुखोपभोग का, सुख सामग्री प्राप्त करने का प्रत्यक्ष साधन वही दिखलाई पड़ रहा है। इसलिये नीति और धर्म के सिद्धान्तों का इतना विकास और प्रचार हो जाने पर भी चोरी, डाका, लूटमार, ठगी आदि के द्वारा दूसरों का धन अपहरण करने में संकोच नहीं करते। पर इन सब कामों में खतरा जरूर रहता है, शासन संस्था इनको रोकने के लिये नियम बनाती रहती है और जो कोई उनके अनुसार दोषी सिद्ध हो जाता है वह दण्डित होता है। इसलिये चतुर और सावधान लोग ऐसी तरकीब से काम लेने की कोशिश करते हैं जिससे दूसरे के धन का अपहरण भी किया जा सके और सरकारी कायदे, कानूनों के चक्कर से भी बचा जा सके। जुआ की प्रवृत्ति का बढ़ना इसी परिस्थिति का परिणाम है।

अनेक लोग समझते हैं कि जुआ केवल वही है जो किसी फड़ पर बैठकर कोड़ियों, गोटों या पासों द्वारा खेला जाय। यह ठीक है कि जुआ का पुराना रूप वह है और अब भी पुराने ढंग के साधारण व्यक्ति उसी तरह का जुआ खेला करते हैं। पर उसे भी कानून द्वारा अवैध घोषित कर दिया है और जो लोग उस तरह का जुआ खेलते पकड़े जाते हैं वे राज्य नियमों द्वारा जुर्माने या कैद का दण्ड पाते हैं। जिनको इस दुर्व्यसन की लत पड़ गई ऐसे लोग तो जब कभी मौका लगता है तभी जुआघर में पहुँच जाते है, पर अन्य लोग जो सदा जुआ नहीं खेलते दिवाली के अवसर पर इस प्रकार जुआ खेलना आवश्यक समझते है। उन्होंने इसे भी एक ‘धर्म’ मान लिया है। सच पूछा जाय तो यह धर्म भी घोर अधर्म है, क्योंकि अधिकाँश जुआरियों को जुआ की लत इस दिवाली के दिन खेले जाने वाले जुए से ही लगती है,

पर इस प्रकार का कौड़ियों और गोटों से खेला जाने वाला जुआ अब साधारण अशिक्षित अथवा असभ्य लोगों का काम समझा जाता है। शिक्षित, सभ्य और चतुर-चालाक समझे जाने वाले लोगों ने अब इस दुष्कर्म को भी अपनी विद्या-बुद्धि के बल से ऐसा परिष्कृत रूप दे दिया है कि जिससे न तो उसको निन्दनीय कहा जाय और न वह सरकारी कानूनों के फन्दे में आ सकें। सट्टा, लाटरी, घुड़दौड़, फीचर, दड़ा, प्रतियोगिता आदि विविध नामों और नये-नये तरीकों से जुआ खेला और खिलाया जाता है। इसमें बेवकूफ लोग ही हमेशा फँसते हैं, अपना धन खोते हैं और चालाक लोग नफा कमाते रहते हैं। कार्नीवाल आदि में गेंद फेंककर या निशाना लगाकर जुआ खिलाया जाता है जिसको बुद्धि का खेल कहकर निर्दोष सिद्ध करने की कोशिश की जाती है, पर वहाँ अनेक मनुष्य घण्टे, आधे घण्टे के भीतर हजारों रुपया हार जाते हैं। घुड़दौड़ को भी कानूनन जुआ नहीं माना जाता पर उसमें अनेकों लखपती, करोड़पती देखते-देखते दरिद्री बन गये। दड़ा का जुआ जो आजकल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगरों में जोर पकड़े हुये है गरीबों का गला काट रहा है। इसमें बिल्कुल छोटे मजदूर, खौंचे वाले, इक्के, ताँगे, रिक्शे वाले, तरकारी और लकड़ी तथा घास बेचने वाले तक दो-चार आना फेंककर ही चले जाते है। कभी-कभी किसी को सौ-पचास मिल जाता है तो उसे देखकर अन्य सैकड़ों लोग आकर्षित होकर दड़ा लगाते हैं, पर सौ में से निन्यानवे व्यक्ति अपना पैसा गँवाकर ही आते हैं।

जुआ का व्यसन हर तरह से हानिकारक और पतनकारी है। जो हारता है वह तो तरह-तरह की आपत्तियों में फँस जाता ही है, पर जो जीतता है वह भी उसे मुफ्त का माल समझकर तरह-तरह के दुर्व्यसनों और खराब कामों में खर्च कर देता है। इससे उसकी आदत बिगड़ती है और बाद में अपनी कमाई को भी हानिकारक व्यसनों में खर्च करने लग जाता है। एक जुआ ही नहीं जितना भी धन किसी प्रकार के अनीति के कामों द्वारा कमाया जाता है वह प्रायः इसी प्रकार बर्बाद होता है। यही कारण है कि चोर, डाकू, उठाईगीर, ठग, जेबकतरे यद्यपि काफी धन पा जाते हैं पर दो-चार दिन बाद पहले की तरह ही भूखे-नंगे दिखाई पड़ते हैं। एक साधारण गृहस्थ सौ-पचास रुपया मासिक में भी सुखपूर्वक जीवन निर्वाह कर लेता है पर ऐसे दुष्कर्म वाले सैकड़ों रुपया पा जाने पर भी अभावग्रस्त ही बने रहते हैं।

समाज और देश की दृष्टि से भी यह दुष्प्रवृत्ति बड़ी हानिकारक है। जुआरी व्यक्ति कभी अच्छा नागरिक और समाज का उपयोगी सदस्य नहीं बन सकता। वह तरह-तरह से समाज में अनाचार का बीज वपन ही करेगा। बड़े जुआरी, जो बड़े-बड़े नगरों में शानदार दुकानों पर बैठकर सट्टे का काम करते हैं और सेठजी कहलाते हैं प्रायः बाजार के भावों में उथल-पुथल पैदा करते रहते है। उनकी दिखावटी खरीद फरोख्त के कारण जीवनोपयोगी वस्तुओं का मूल्य व्यर्थ ही बढ़ जाता है, जिससे उनकी जेब तो भर जाती है पर सर्वसाधारण को घोर असुविधा सहन करनी पड़ती है। लोग इसे व्यापार कहते है, पर समाज के हित की दृष्टि से विचार किया जाये तो यह साफ तौर पर जुआ-चोरी है, जिसकी कोई न्यायशील और जनकल्याण का ध्यान रखने वाली सरकार कभी चलने नहीं दे सकती, समाज हितैषी व्यक्तियों का कर्त्तव्य है कि इन तमाम बड़े और छोटे जुओं को समझा बुझाकर और आन्दोलन द्वारा बन्द कराने की चेष्टा करें और समाज में इस धारणा का प्रचार करें कि किसी प्रकार की हराम की कमाई नहीं वरन् ईमानदारी का पैसा ही मनुष्य को सुख और शान्ति प्रदान कर सकता है।


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