गायत्री की उच्चस्तरीय साधना

February 1964

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भारतीय तत्व-ज्ञान का सार और संदेश

गायत्री उपासना हिन्दू-धर्म के एक अंग विशेष की नहीं वरन् वह भारत की राष्ट्रीय उपासना है। राष्ट्रीय ही क्यों उसे सार्वभौम भी कहा जा सकता है। सद्भावनाओं में ईश्वर की स्थिति और आभा का दर्शन कराने वाला कोई मंत्र ही मानव-जाति के भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाला हो सकता है। गायत्री के 24 अक्षरों में जिस तत्वज्ञान को कूट-कूटकर भरा गया है उसे मानवीय धर्म-कर्त्तव्य की ईश्वरीय प्रेरणा ही मानना चाहिए। ऐसे तत्व-ज्ञान की उपासना ही मनुष्य जाति के भाग्य का निर्माण करने में प्रमुख आधार बन सकती है।

मुसलिम-धर्म में जिस प्रकार ‘कलमा’ मूल मन्त्र माना जाता है वैसे ही हिन्दू-धर्म का अनादि गुरुमन्त्र गायत्री है। चारों वेद भारतीय-संस्कृति के आदि उद्गम हैं। उन चारों वेदों का प्रादुर्भाव गायत्री के चार चरणों से हुआ है। गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या स्वरूप एक-एक वेद बना है। वेदों की ऋचाओं में जिस ज्ञान-विज्ञान का अक्षय भंडार भरा पड़ा है वह बीज रूप से गायत्री में मौजूद है। समस्त भारतीय सभ्यता, भावना और विचारणा को यदि अत्यन्त संक्षिप्त रूप में कहना चाहें तो उसे गायत्री के 24 अक्षरों में व्यक्त किया जा सकता हैं। इसलिए ऋषियों ने यह आवश्यक समझा कि भारतीय धर्म और संस्कृति में आस्था रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति गायत्री को अपना उपास्य माने और उससे जीवन का मार्गदर्शन करने वाली ईश्वरीय प्रेरणा का अनुभव

करते हुए आत्म-कल्याण की ओर जीवन की सार्थकता के लिए निष्ठापूर्वक अग्रसर होता रहे।

शास्त्रकारों ने गायत्री रहित को हेय एवं तिरस्कृत माना है, उसकी कटु शब्दों में भर्त्सना की है और उसे धर्म कृत्यों में सम्मिलित होने का अनाधिकारी बताया है। प्राचीनकाल में जो लोग इस राष्ट्रीय उपासना की उपेक्षा करके धर्म अनुशासन की उपेक्षा करते थे उन्हें समाज से बहिष्कृत कर अछूत बना दिया जाता था। यह एक सामाजिक दंड विधान था और इसलिए बनाया गया था कि लोग इस प्रकार की अवज्ञा एवं उपेक्षा का साहस न करें। अब तो वह दंड-विधान अधिकार-अनाधिकार का प्रश्न बन बैठा है और इसी आधार पर यह कहा जाता है कि अमुक जाति में उत्पन्न हुए लोग उसे जप सकते हैं, अमुक जाति में जन्में नहीं। इस भेदभाव का स्वरूप आज विकृत रूप में भले ही समझा जाय प्राचीनकाल में यह अवज्ञाकारियों के लिए भर्त्सना भरी दंड व्यवस्था मात्र थी। यों प्रत्येक ईश्वरीय कृति पर उसके सभी पुत्रों का अधिकार रहता है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, हवा, वर्षा, शीत, ग्रीष्म, अन्न, जल आदि का उपभोग सभी धर्म और वर्ण के लोग करते हैं तो उसी प्रभु की महान प्रेरणा गायत्री पर देश-धर्म, जाति के आधार पर प्रतिबंध हो ही कैसे सकता है?

यह चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि यह समझ लिया जा सके कि गायत्री-मंत्र हमारा अनिवार्य उपास्य है और उसकी उपेक्षा ऋषियों की दृष्टि में एक धर्म अपराध माना गया है। नित्यकर्म में इस उपासना को इतनी कठोरता के साथ सम्मिलित करने का उद्देश्य यह है कि मनुष्य नित्य ही इस बात का अनुभव करता रहे कि उसके उत्थान पतन का हेतु केवल उसकी आस्था, विचारणा एवं भावना ही है। उसे उत्कृष्ट बनाने में ही मानव-जीवन की सार्थकता है और उसे अपनाकर ही भौतिक क्षेत्र में सुख एवं आत्मिक क्षेत्र में शान्ति को प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत जिसकी मनोभूमि कुविचारों और दुर्भावनाओं से भरी रहेगी उसे दुख दारिद्र्य के शोक-सन्ताप के अधःपतन रूप गर्त में गिरकर नष्ट ही होना होगा।

इस अकाट्य जीवन-दर्शन को समझ लेने और हृदयंगम कर लेने से जीवन नीति का उचित निर्धारित कर सकना सरल हो जाता है। जिसने विचारों का महत्व न समझा, जो भावना की शक्ति से अपरिचित है, जिसे अपनी मनोभूमि के परिष्कार एवं निर्माण की चिन्ता नहीं उसे बिना पतवार के नाव चलाने वाले मल्लाह की तरह अनाड़ी ही मानना होगा। उसे पग-पग पर आपत्तियों की संभावना का सामना करना पड़ेगा। अधिकाँश व्यक्ति ऐसा ही निरुद्देश्य जीवन व्यतीत करते हैं और रोते-कलपते हुए भव-बंधनों की यंत्रणा सहते हुए नर्तन का लाभ उठाने के स्थान पर हाथ मल-मलकर पछताते हुए यहाँ से विदा होते हैं। ऋषि नहीं चाहते कि भारतीय धर्म के अनुयायी इस प्रकार का असफल जीवन व्यतीत करें। इसीलिए उन्होंने प्रत्येक विचारशील मानव के लिए गायत्री उपासना को अनिवार्य ठहराया और उसकी उपेक्षा करने वाले की भरपेट भर्त्सना की।

भारतीय धर्म की अनुयायियों को द्विज कहा जाता है। द्विज का अर्थ है दो बार जन्म होना। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज माने जाते हैं। एक जन्म माता-पिता के द्वारा उत्पन्न शरीर का माना जाता है। इस में पाशविक वृत्तियाँ ही प्रधान होती हैं। दूसरा जन्म यज्ञोपवीत संस्कार के समय गायत्री माता और यज्ञ पिता द्वारा होता है। इसे आदर्शवाद, धर्म, सदाचार, परमार्थ एवं देवत्व का प्रवेश द्वार कह सकते हैं। इस संस्कार में मनुष्य को यही शिक्षा दी जाती है कि उसे स्वार्थी, असंयमी, निरुद्देश्य, पाश्विक दृष्टिकोण का परित्याग कर वह सोचना चाहिए, वह करना चाहिए जो मानव के महान गौरव को समुज्ज्वल बना सके। इस प्रकार के व्रत-बंध के साथ यज्ञोपवीत धारणा करने वाला व्यक्ति एक प्रकार से दिव्य-जीवन जीने की प्रतिज्ञा करता है। उस समय मार्गदर्शक गुरु का काम गायत्री मन्त्र ही करता है। सनातन धर्म और आर्य-समाज दोनों की ही संस्कार विधियों में गायत्री को गुरुमंत्र कहा गया है। प्रत्येक यज्ञोपवीतधारी को गायत्रीमंत्र को जीवन सूत्र मानकर कंधे पर, हृदय पर, कलेजे पर और पीठ पर- अन्तःकरण को आवृत करते हुए धारण करना पड़ता है।

यज्ञोपवीत गायत्री की ही प्रतिमूर्ति है। नौ शब्दों को लेकर नौ धागे लिए गए हैं। त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों की प्रतीक तीन लड़े हैं। भूर्भुवः स्वः इन तीन व्याहृतियों से तीन गाठें लगाई जाती हैं और ॐ का प्रतिनिधि ब्रह्म के रूप में ब्रह्म-ग्रंथि को माना गया है। इस प्रकार यज्ञोपवीत को गायत्री की ही प्रतिमा कहा जाता है। उसे धारण करने वाले की यही भावना रहती है कि भारतीय-धर्म के मूल उपास्य गायत्री मन्त्र को शरीर रूपी मन्दिर पर देवता के रूप में स्थापित किया और उसकी नित्य उपासना का, उस भावना को हृदयंगम किये रहने का व्रत लिया। जो लोग इस सुसंस्कार का तिरस्कार करते थे उच्छृंखल बनकर इस आध्यात्मिक अनुशासन को अस्वीकार करते थे उन्हें सामाजिक बहिष्कार के रूप में शूद्र बनना पड़ता था।

शिखा और सूत्र यह दो प्रतीक हिन्दू धर्म के हैं। सिर पर चोटी के बालों के रूप में भी गायत्री की ही ध्वजा फहराई जाती है। जिस प्रकार राष्ट्रीय झंडा पार्लियामेंट भवन पर सदा फहराता ही रहता है उसी प्रकार मस्तिष्क रूपी किले पर सदुद्देश्य के लिए जीवन जीने की प्रतिज्ञा का उद्घोष करने वाली धर्म-पताका-शिखा को भी फहराये रखना पड़ता है। चोटी का वर्णन शास्त्रकारों ने धर्मध्वजा के रूप में ही किया है और गायत्री का उसे प्रतीक बनाया है। इस प्रकार प्रत्येक शिखा-सूत्रधारी हिन्दू अनिवार्यतः गायत्री का उपासक बनता है। ईश्वर प्रार्थना के रूप में पूजा अर्चना को अनिवार्य माध्यम मानने के अतिरिक्त उसे यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि मेरा जीवन क्रम इस गुरु मन्त्र में सन्निहित भावनाओं के अनुरूप ढलता चले। उपासना की अधिकृत विधि को ‘सन्ध्या’ कहते है। संध्या की कई विधियाँ प्रचलित हैं, पर गायत्री का जप प्रत्येक में अनिवार्य है। ऐसी कोई संध्या विधि नहीं जिसमें गायत्री की उपेक्षा की गई हो। शिखा-सूत्र धारण करने वाला-संध्या-वन्दन में विश्वास रखने वाला कोई भी भारतीय धर्मानुयायी स्वभावतः गायत्री उपासक बनता है।

हमारा देश दार्शनिकों और कवियों का देश है। यहाँ वस्तुओं और भावनाओं को भी प्रतीक रूप से देवता के अलंकारिक रूप दिये गये हैं। चेतन जगत की सूक्ष्म-शक्तियों और स्थूल-जगत के पंच-तत्वों में जो गुह्य आत्मा रहती है उसे भावनापूर्वक देवत्व के रूप में प्रकल्पित किया गया है। यों ईश्वर एक अत्यन्त सूक्ष्म एवं निराकार व्यापक शक्ति है, पर उपासना का आयोजन पूरा करने के लिए उसे मानव-रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य, सरस्वती, दुर्गा, राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के रूप में इसीलिए प्रतिष्ठित करना पड़ा कि नाम, रूप के बिना कल्पना एवं ध्यान की गति नहीं बनती। और इसके बिना उपासना का कोई स्वरूप ही नहीं बन पाता। उपासना के बिना न मन एकाग्र होता है और न परम तत्व की उपलब्धि संभव होती है। इसलिए संसार में सर्वत्र ईश्वर को मानव रूप में, मानव गुणकर्म स्वभाव में परिकल्पित करके उसके पूजा विधान का प्रचलन किया है। इन स्वरूपों में गायत्री का ध्यान सर्वोत्तम है क्योंकि उसमें माता का स्नेह वात्सल्य, महत्व एवं पवित्रता की अनुभूति साधक को पग-पग पर होती चलती है।

नारी की गरिमा और पवित्रता को भारतीय धर्म में अत्युच्च स्थान प्राप्त हैं। भगवान के नामों में उसकी पत्नी को भी सम्मिलित रखा गया है, सम्मिलित ही नहीं रखा गया वरन् प्रथम स्थान भी दिया गया है। लक्ष्मीनारायण, सीताराम, राधेश्याम, गोरीशंकर आदि ईश्वर के नामों में इसी तथ्य का प्रतिपादन होता है। माता, बहिन और पुत्री के रूप में नारी को अत्यंत पवित्र, पूज्य और उच्च स्थान प्रदान किया गया है। विवाहिता पत्नी को भी विलास एवं विकार के लिए नहीं धर्म वृद्धि के लिए ग्रहण किया जाता है। इसलिए उसे धर्म-पत्नी कहते है। स्मरणी का नारकीय स्वरूप यहाँ सर्वथा निन्दनीय माना गया है और उसकी कटु से कटु शब्दों में निन्दा करते हुए उस मृग मरीचिका से बचने पर निरन्तर जोर दिया गया है। सन्त साहित्य में नारी निन्दा का बहुत वर्णन है। उसका तात्पर्य कामिनी रुक्मणी को विकारग्रस्त भावना का परित्याग करना मात्र है।

देखा जाता है कि मनुष्य की निकृष्ट वृत्तियाँ धन और नारी के प्रति लोलुपता का परिचय देती रहती है। इनका दमन किये बिना मानवीय महानता की उपलब्धि संभव नहीं। नारी में पवित्र एवं पूज्य भाव रखने से ही आध्यात्मिक-ब्रह्मचर्य के द्वारा ब्रह्म तेज की प्राप्ति, शारीरिक जीवनी-शक्ति का संरक्षण, गृहस्थ जीवन की सफलता, दाम्पत्य-निष्ठा की परिपक्वता, सुसन्तति, परिवार का आर्थिक एवं स्नेह संतुलन, समाज में सुख-शान्ति गृहस्थ की सार्थकता संभव होती है। इस तथ्य को जीवनचर्या में उतारने के लिए यह एक महत्वपूर्ण उपाय है कि ईश्वर को नारी के रूप में पूजा जाय। गायत्री को माता के रूप से आराध्य मानने का भी यही रहस्य है।

यों ईश्वर एक सूक्ष्म शक्ति है। न वह पुरुष है न नारी। अपनी उपासनात्मक आवश्यकता के लिए ही उसे विभिन्न रूपों में कल्पित और प्रतिष्ठित करते हैं। “त्वमेव माता च पिता त्वमेव, भ्रातश्च सखा त्वमेव” की उक्ति में उस परमात्मा को माता, पिता, भ्राता सखा आदि के रूप में मान्यता दी है।

जिस स्वरूप या रिश्ते से उपासना में सुविधा हो उसी से उसका ध्यान, पूजन किया जा सकता है। इस संदर्भ में नारी के रूप में या माता के रूप में परमात्मा की उपासना अधिक श्रेयस्कर है क्योंकि नारी को निरंतर पुण्य वृत्ति में ध्यान करने पर लौकिक जीवन में भी वही प्रवृत्ति विकसित होती है और व्यक्ति सच्चे अध्यात्म की ओर द्रुत-गति से अग्रसर होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि जिस स्वरूप में प्रभु का ध्यान किया जाता है उसी भावना के अनुरूप प्रत्युत्तर एवं प्रतिध्वनि भी लौटकर साधक को मिलती है। माता का रिश्ता सबसे अधिक उत्कृष्ट प्रेम का परिचायक है। वात्सल्य से अधिक मधुर और कोई रस नहीं। माता के रूप में प्रभु की आराधना करने से उसका प्रत्युत्तर साधक को वात्सल्य स्नेह के रूप में प्राप्त होता है और वह उस अनुभूति से कृत-कृत्य हो उठता है। यह लाभ पुरुष प्रतीकों की उपासना में संभव नहीं। पिता से माता का स्नेह स्वभावतः अधिक होता है। इसलिये परमात्मा की अधिक उच्च-स्तरीय वात्सल्य प्राप्त करने के लिए गायत्री शक्ति का माता के रूप में ध्यान करना ही अधिक श्रेयस्कर माना गया है और ऋषियों एवं शास्त्रकारों ने वैसी ही प्रतिष्ठा एवं भावना करने का हमें आदेश किया है। गायत्री का मातृ-मूर्ति के रूप में ध्यान, स्तवन, पूजन, करने का प्रायः सभी उपासना ग्रन्थों में निर्देश मिलता है। इस स्थापना के पीछे उपरोक्त तथ्यों का तो स्पष्ट समाधान है ही और भी कितने अज्ञात एवं रहस्यमय कारण हो सकते हैं।

रुचि भिन्नता के लिये भारतीय धर्म में उदार स्थान दिया गया है। कोई साधक अपनी अभिरुचि एवं आकाँक्षा के अनुरूप किसी भी देवता, मंत्र या दृष्ट की उपासना कर सकता है। इतनी छूट होते हुए भी गायत्री को अनिवार्य उपास्य माना गया है। समस्त भारतीय समाज को एकता के भावना सूत्र में पिरोये रखने के लिये गायत्री को एक जातीय जीवन तत्व का स्थान प्राप्त है। इसे राष्ट्रीय संगठन मन्त्र भी कह सकते हैं। भिन्नताओं में एकता की अनुभूति हम गायत्री को सार्वभौम-सर्वजनीन बना कर ही कर सकते हैं। भारतीय दर्शन की व्यापकता इसी माध्यम से परिपुष्ट हो सकती हैं। कोई व्यक्ति अपनी विशेष उपासना किसी भी विधि या माध्यम से करे पर उसे तत्वदर्शन के रूप में गायत्री को तो प्रथम स्थान देना ही चाहिए। विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, संस्थान, संगठन अपने-अपने अलग-अलग झंडे रखें तो हर्ज नहीं पर राष्ट्रीय ध्वज तो उनसे भी ऊँचा माना जाना चाहिए। इसी प्रकार भिन्न उपासना विधियों को काम में लाने वालों को भी गायत्री उपासना तो करनी ही चाहिए। शास्त्रकारों ने कहा है “जो गायत्री उपासना नहीं करता उसके अन्य मंत्र भी निष्फल चले जाते है” इस निर्देश के पीछे एक महत्व का तथ्य छिपा हुआ है और उसे हम सबको गंभीरतापूर्वक समझना चाहिए और श्रद्धापूर्वक अपनाना भी चाहिए।


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