वयोवृद्ध और उनका आदेश

February 1964

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वृद्धावस्था सम्मान और गौरव की स्थिति है। यौवन समाप्त हो जाने पर इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और शरीर अशक्त बनता जाता है, इसलिए शारीरिक दृष्टि से उसे कष्टकारक भी माना जाता है। पर ज्ञान और अनुभव की दृष्टि से बुढ़ापे तक पहुँचते-पहुँचते मनुष्य की स्थिति काफी अच्छी हो जाती है। जवानी में जोश तो रहता है पर होश की कमी पाई जाती है। अनुभव के अभाव में नवयुवक प्रायः असंगत मार्ग अपना लेते है और पीछे उसका परिणाम भोगते है। अपने तथा दूसरों के जीवन में घटित होती रहने वाली बहुमुखी घटनाओं का अनुभव एकत्रित करके वृद्धावस्था तक मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से बहुत कुछ सीख लेता है, इसलिए उनकी सलाह ओर शिक्षा आमतौर से श्रेयस्कर मानी जाती है। बच्चों और नवयुवकों को सदा से यही शिक्षा दी जाती रही है कि वृद्धजनों का आदर करना चाहिए उनकी सलाह को मानना और आदेश का पालन करना चाहिए।

आदर का आधार -

आदर इसलिए करना चाहिए कि अधिक आयु हो जाने पर मनुष्य अधिक सत्कर्म कर लेता है। मानव-जीवन सत्कर्मों के लिए ही तो मिला है। सन्मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति आयु वृद्धि के साथ-साथ सत्कर्मों की पूँजी भी बढ़ाता चलेगा। आज आमतौर से धनी लोगों का जिस प्रकार समाज में सम्मान होता है उसी प्रकार विचारशीलों की दृष्टि में अनुभवी, लोक-सेवी और धर्म-परायण लोगों को भी प्रतिष्ठा होती है। जो कोई वृद्ध पुरुष अपने जीवन में सन्मार्ग-गामी रहा है और विवेक की दृष्टि से अपनी मनोभूमि को परिमार्जित करता रहता है तो स्वभावतः उसका सर्वत्र आदर होना चाहिए। छोटी आयु के लोगों को उसका आदेश मानना ही चाहिए। गुरुजनों का, वयोवृद्धों का आदर करना, सुख पहुँचाना शास्त्रों में एक श्रेष्ठ धर्म कर्त्तव्य माना गया है। पारिवारिक सुव्यवस्था की दृष्टि से तो यह पद्धति और भी अधिक उपयोगी है। जहाँ वृद्ध-जन आदरपूर्वक जीते हैं और सुख पाते हैं वह घर सदा फलता-फूलता ही रहता है।

अपवादों की सम्भावना-

इस व्यवस्था में कई बार अपवाद भी उत्पन्न होते है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्होंने भ्रष्ट-जीवन व्यतीत किया है। वृद्धावस्था में अनेक कुसंस्कार और भी अधिक विकृत रूप में उपस्थित होते है। स्वयं तो शरीर और मन की दुर्बलता से कुकर्म नहीं कर पाते पर दूसरों को खोटी सलाह देते रहते है। उनकी बात न मानी जाय तो नाराज होते हैं, और हठ करते है। धर्म की दुहाई देकर, बड़ों की आज्ञा पालन करना उचित बता कर अपनी अनुपयुक्त रीति-नीति पर छोटों को चलने के लिए विवश करते है। ऐसी दशा में उनके लिए एक धर्म-संकट उपस्थित हो जाता है, जो बड़ों की आज्ञा मानने उनका आदर करने के साथ-साथ उचित, अनुचित एवं कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य का भी विचार करते हैं और सन्मार्ग को प्रधानता देना चाहते है।

एक ओर वृद्ध पुरुष हठ करते हैं कि उन्हें ऐसा करना चाहिए, दूसरी ओर औचित्य यह कहता है कि यह आदेश गलत है। धर्म और कर्त्तव्य के विपरीत है। ऐसी दशा में दो में से एक का चुनाव करना पड़ता है। गुरुजनों की बात मानें या औचित्य को शिरोधार्य करें? ऐसा धर्म संकट उपस्थित होने पर धर्म, औचित्य एवं कर्त्तव्य को ही प्रधानता दी जानी चाहिए।

गोस्वामी तुलसीदास जी का एक पद्य इस प्रसंग में अच्छा मार्गदर्शन करता है। कहा गया है कि :-

“जा के प्रिय न राम वैदेही।

त्जिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम स्नेही।

पिता तज्यो प्रहलाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी।

गुरु बलि तज्यो, कंत ब्रज वनितन भेंमुद मंगलकारी॥

प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यपु की आज्ञा का उल्लंघन किया, विभीषण ने भाई रावण को त्यागा, भरत ने माता कैकेयी के आदेश को न माना, राजा बलि ने गुरु शुक्राचार्य की धर्म विरोधी सलाह ठुकराई, गोपियों ने कृष्ण भक्ति के लिए पतियों की अप्रसन्नता पर ध्यान न दिया। उतना होते हुए भी यह सब अवस्थाएं मंगलमय ही मानी गईं।

संकीर्णता का वातावरण-

कई बार आदर्शमय जीवन की महत्ता से अपरिचित होने और जिस संकीर्ण वातावरण में जीवन भर रहने का अवसर मिला है उसी से प्रभावित होने के कारण वृद्धजन उसी छोटी सीमा में रहने की सलाह अपने से छोटों को देते हैं। इसमें उनका अज्ञान और मोह ही प्रधान कारण होता है। शिक्षा की कमी, सीमित दायरा और दूर-दृष्टि के अभाव में कई बार वृद्धजन ऐसी सलाह देते देखे गये हैं ऐसे हठ करते देखे गये हैं कि यदि उनकी बात मानी जाय तो उससे केवल भयंकर दुष्परिणाम ही निकल सकते है। बाल-हठ, त्रिया-हठ, राज-हठ की तरह एक वृद्ध-हठ भी होती है जिसमें वे हर सलाह को अपने सम्मान का प्रश्न बना लेते हैं। और उसके न माने जाने पर अपना अपमान अनुभव करते हैं। विचार-विनिमय की, और उचित-अनुचित का विवेचन करने की गुंजाइश न छोड़कर केवल आदेश को ही सर्वोपरि मानना किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।

क्या यह उचित है?

एक पिता अपनी कन्या का विवाह सम्बन्ध किसी प्रलोभन के वशीभूत हो कर अनुपयुक्त व्यक्ति के साथ पक्का कर आते हैं। कन्या, उसके भाई, बहिन तथा माता इस अत्याचार के विरुद्ध हैं पर पिता महोदय गृह स्वामी होने के कारण अपनी ही बात पर अड़े हैं और उस अनुचित कार्य को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनायें हुए हैं। आप सोचें कि ऐसी स्थिति में वयोवृद्ध का आदेश माना जाने योग्य है या नहीं ?

एक युवक का विवाह हुए कई वर्ष हो गये। संतान नहीं हुई। पिताजी पोते का मुँह जल्दी देखने के लिए आतुर हैं और अपने बेटे का दूसरा विवाह करने की तैयारी में लगे हैं। आप ही बतायें कि उस पिता की इच्छा उचित है या अनुचित है ?

पिछले स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वालों को घर के बढ़े बूढ़ों का विरोध सहना पड़ता था। आज भी राष्ट्र रक्षा के लिए जो सैनिक भर्ती हुए है उन सब को अपने बड़े-बूढ़ों की सहमति कहाँ प्राप्त हो सकती है? मोह की प्रबलता भला इतने बड़े त्याग की बात सहन भी कैसे कर सकती है?

एक पिता मिलावट और बेईमानी का व्यापार करते हैं। टैक्स की चोरी करते हैं। जवान लड़का इससे सहमत नहीं होता। पिताजी इसमें घर की आर्थिक हानि की सम्भावना सोचते हैं और लड़के पर दबाव डालते हैं। बड़ों की आज्ञा आंखें बन्द करके मानने वाले धर्मोपदेश सुनाते हैं। लड़का सोचता है क्या करूं? आप उसे क्या सलाह देंगे?

अनुपयुक्त का मोह -

कितनी ही माताएं अपने बच्चों को आँखों के आगे रखना चाहती हैं। घर से दूर गाँव में पढ़ने नहीं भेजना चाहतीं। बच्चा अशिक्षित रह जाता है। क्या यह दृष्टिकोण उचित था? छोटे बच्चों की जल्दी शादी करने के व्यामोह में कितने ही माता-पिता अपने बच्चों की जिन्दगी बर्बाद करते हैं। क्या उनका यह निर्माण बुद्धिमता पूर्ण होता है? उसी प्रकार समाजिक कुरीतियों के अन्ध-विश्वासी होने के कारण कई वृद्धजन हठवश कोई खर्चीला कार्यक्रम घर वालों पर थोप देते हैं और उससे परिवार की अर्थव्यवस्था ही नष्ट हो जाती है। कई वृद्धाएं पर्दा प्रथा की कट्टर पक्षपाती होने के कारण अपनी बहू बेटियों को पढ़ने नहीं देती, घर से बाहर पैर नहीं रखने देती, अपने शासन के आगे दूसरों की इच्छा और आवश्यकता की परवाह नहीं करतीं। ऐसी स्थिति में उनका आदेश चलता भी रहे तो क्या भीतर ही भीतर घोर असंतोष न सुलगता रहेगा और उसका दुष्परिणाम उत्पन्न न होगा ?

पिता अपने ही व्यवसाय में अपने बच्चों को लगायें रखना चाहता है पर बच्चों की प्रतिभा एवं अभिरुचि दूसरी दिशा में सुविधा खोजती है। क्या यह उचित होगा कि बच्चों की आकांक्षा को निरस्त करके बड़ों की व्यवस्था ही प्रधान रहे ? यदि ऐसा ही किया जाता रहता तो संसार के लगभग सभी महापुरुष अपने पिता के आशाकारी बेटे और उन्हीं के छोटे-मोटे व्यवसायों को चलाते रहने वाले तुच्छ व्यक्ति बने रहते।

महापुरुषों की परम्परा-

संसार के प्रायः सभी महान व्यक्तियों ने अपने घर वालों के मत से भिन्न दिशा में कदम उठाया है और वह उनके लिए कुछ अशुभ नहीं हुआ। भगवान बुद्ध, महावीर, गान्धी, शंकराचार्य, दयानन्द, मीरा, नानक आदि किसी भी महापुरुष को उनके कार्यों के लिए घर वालों का प्रोत्साहन कहाँ प्राप्त था? घर की परम्पराओं से जरा भी भिन्न बात सोचने पर आमतौर से वृद्धजनों का विरोध सहना पड़ता है। छोटी-सी सामाजिक कुरीति की उपेक्षा करने की बात तक पर घर में कुहराम मच जाता है। ऐसी दशा में इन वयोवृद्धों को ही सब कुछ मान लिया जाय तो प्रगति की सम्भावना ही समाप्त हो जायेगी।

संसार में समझदार और वृद्ध पुरुषों की कमी नहीं। उनके अनुभव तथा ज्ञान से नई पीढ़ी का भारी मार्गदर्शन होता है। इसीलिए उनकी महत्ता को सदा से अक्षुण्य रखा जाता रहा है। गुरुजनों की सेवा, शिक्षा और आज्ञा का समुचित ध्यान रखना कर्त्तव्य माना गया है। वैसा ही हमें करना भी चाहिए। उनके शारीरिक सुख और सुविधा का तो पूरा-पूरा ही ध्यान रखा जाना चाहिए और यदि उनका कोई सुझाव या आदेश व्यवहारिक न हो तो कम से कम अपमान के शब्दों में प्रत्युत्तर तो नहीं ही देना चाहिए। ऐसे प्रसंगों पर चुप हो जाने से तात्कालिक कटुता उत्पन्न होने से रोकी जा सकती है।

औचित्य ही सर्वोपरि है-

औचित्य और आज्ञा के धर्म संकट में जो उचित है, जो धर्म है जो कर्त्तव्य है उसे ही प्रधानता दी जानी चाहिए। वृद्ध पुरुष बड़े है पर धर्म कर्त्तव्य उससे भी बड़ा हैं। बड़ों का आदेश पालन किया जाना चाहिए पर विवेक की पुकार उससे भी पहले सुनी जानी चाहिए। व्यामोह यदि वृद्धों के कलेवर में प्रवेश करके बोले तो उसे सुनने से पूर्व औचित्य का ध्यान आवश्यक है फिर चाहे वह बालक के मुख से ही उच्चारित हुआ हो। आयु-वृद्ध से ज्ञान- वृद्ध बड़ा है। आयु का महत्व निश्चय ही बहुत है पर विवेक से बढ़कर उसकी महत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती। बड़ों की सभी बातें हम मानें, उनको सब प्रकार सुखी संतुष्ट बनाने का प्रयत्न करें पर जब वे अनैतिक, असंगत, अविवेक पूर्ण आदेश देने लगें तो उसकी पूर्ति के लिए तत्परता दिखाना आवश्यक नहीं। वृद्धावस्था की प्रतिष्ठा, ज्ञान, विवेक, धर्म और दूरदर्शिता के कारण ही होती है यदि यह तत्व उसमें न रहे तो वृद्ध पुरुष गुरुजन न रहकर बूढ़े आदमी मात्र रह जाते हैं। हमें वृद्ध पुरुषों और गुरुजनों का परिपूर्ण अनुगमन करना चाहिए पर यह जरूरी नहीं कि सफेद बालों के कारण विवेक-हीन बूढ़े आदमी भी हमारे मार्ग-दर्शक बनें ही।


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