बात उस जमाने की है जब कबूतर झाड़ियों में बच्चे दिया करते थे। लोमड़ी आती और उनके अण्डे खा जाती। रखवाली का कोई ठीक प्रबन्ध न बन पड़ा तो कबूतरों ने दूसरी चिड़ियों से बचाव का उपाय पूछा। उनने कहा पेड़ पर घोंसला बनाने के अलावा और कोई चारा नहीं।
कबूतर ने घोंसला बनाया पर वह ठीक तरह बन न सका। आखिर उसने तय किया कि दूसरी चिड़ियों की सहायता से घोंसला बनाने का काम पूरा किया जाय।
चिड़ियों को बुलाया तो वे खुशी खुशी आई और कबूतर को अच्छा घोंसला बनाना सिखाने लगी। अभी बनना शुरू ही हुआ था कि कबूतर ने कहा- ऐसा बनाना तो हमें आता हैं यों तो हमीं बना लेंगे। चिड़ियां वापिस चली गई।
कबूतर ने बहुत कोशिश की पर घोंसला ठीक से बना नहीं। वह फिर चिड़ियों के पास गया। लीजती हुई वे फिर आई और तिनके ठीक तरह जमाना सिखाने लगी। आधा भी काम पूरा न हो पाया था कि कबूतर उचका। उसने कहा- “ऐसे तो मैं जानता ही हूँ।”
चिड़ियाँ वापिस चली गई। कबूतर लगा रहा पर वह बना फिर भी न सका। चिड़ियों के पास फिर पहुँचा तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया और कहा - जो जानता कुछ नहीं और मानता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ, ऐसे मूर्ख को कोई कुछ नहीं सिखा सकता।
नासमझ कबूतर अपने ओछे अहंकार में किसी से कुछ न सीख सका और अभी तक उसका घोंसला अन्य चिड़ियों की बनिस्बत भौंड़ा ही बनता है।