अन्दर और भीतर की पवित्रता

February 1964

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पवित्रता, शुद्धता, स्वच्छता मानव-जीवन को ऊँचा उठाने के लिये एक महत्वपूर्ण सद्गुण है। अनेक लोग स्वच्छता अथवा सफाई का अर्थ केवल ऊपर की टीपटाप, आकर्षक शृंगार या बढ़िया फैशन बना लेना ही समझते हैं कुछ लोगों की दृष्टि में बढ़िया वस्त्र, आभूषण, प्रसाधन सामग्री का उपयोग करना सफाई और सौंदर्य का प्रमाण समझा जाता है। कुल लोग ऐसे भी हैं जो शरीर और वस्तुओं की अधिक सफाई सौंदर्य की वृद्धि आदि बातों को साँसारिक प्रपंच मानकर इनकी उपेक्षा करने में ही सफलता का अनुभव करते हैं। पर ये सभी दृष्टिकोण एकांगी हैं। यह हो सकता है कि कुछ लोग विलास-प्रियता का शृंगार के भाव से ही स्वच्छता और सफाई करते है यह भी हो सकता है कि अन्य लोग अपना वैभव, न प्रकट करने के दृष्टिकोण से सफाई पर ध्यान देते है। पर इससे स्वच्छता की प्रवृत्ति को अनावश्यक या अनुकरणीय नहीं माना जा सकता। वास्तव में स्वच्छता, एवं पवित्रता एक ही उच्च मनोवृत्ति के रूप हैं और दोनों का स्वस्थ, मन को प्रसन्न तथा आत्मा को शान्त करने में इनका बड़ा योग रहता है। बाह्य स्वच्छता और पवित्रता से अन्तःकरण की पवित्रता की भी वृद्धि होती है। मन में अशुद्ध भावों का उदय होना स्वयमेव कम पड़ता जाता है।

पवित्रता और स्वच्छता से मनुष्य की श्रेष्ठता अथवा सुखी होने का परिचय मिल जाता है। हमारे देश में ऐसे साधु पाये जाते हैं जो सब तरह से गन्दे और गन्दे काम करने में ही आध्यात्मिकता समझते हैं सर्वसाधारण भी उनको परम आत्मज्ञानी अवधूत आदि समझकर पूजनीय मान लेते हैं। पर यह उनका भ्रम या अज्ञान ही है। मनुष्य के विकास और आध्यात्मिकता का प्रमाण केवल ज्ञान और भक्ति की बातें करने से नहीं मिल सकता। मनुष्य जो कुछ कहता है उसका प्रमाण उसके व्यवहारिक जीवन से ही मिल सकता है। भक्ति तत्वज्ञान के नाम पर स्वच्छता को अनावश्यक बतलाते है, पर थोड़ी सी साँसारिक सामग्री या सम्पत्ति के लिये मरने मारने पर उतारू हो जाते है, अथवा किसी प्रकार का नीच कर्म करने लगते हैं, उनकी बात का विश्वास कौन कर सकता है?

संसार के लोग सुन्दरता के बड़े प्रेमी बनते हैं। क्या साधारण ग्रामीण और क्या नगर निवासी बाबूजी, सेठजी, और रईस, सभी सुन्दरता के प्रशंसक और चाहने वाले होते हैं। पर उनकी सुन्दरता की रुचि या कसौटी पृथक -पृथक होती है। तो भी एक बात सबको माननी पड़ती है कि सुन्दरता में स्वच्छता और निर्मलता का समावेश अवश्य होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति शायद ही कोई होगा जो मलयुक्त वस्तु को सुन्दर बतलाता हो। इसी तथ्य को एक लेखक ने इन शब्दों में प्रकट किया है :-

“संसार में सभी सुन्दरता चाहते हैं। परन्तु वास्तविक सौंदर्य का ज्ञान तो किसी-किसी बुद्धिमान, विवेकी मानव को ही होता है। जो कुछ निर्मल है, निर्लिप्त है, हितकर है वही सुन्दर है। जो मलयुक्त है, दोषयुक्त है वही असुन्दर है। दोष के संग से सुन्दर भी असुन्दर बन जाता है और गुण के संग से असुन्दर भी सुन्दर लगने लग जाता है। जिस प्रकार सुन्दर वस्त्रों के संग से शरीर सुन्दर प्रतीत होता है और सुन्दर शरीर पर वस्त्राभूषण भी सजने लगते हैं, उसी प्रकार सुन्दर, मधुर शब्दों से वाणी सुन्दर होती है, सुन्दर भावों से मन सुन्दर बन जाता है, सुन्दर विचारों से बुद्धि सुन्दर होती है और अनन्त सौंदर्य निधि आत्मा-परमात्मा के संग से जीवात्मा सुन्दर होता हैं।”

वास्तविक सुन्दरता वही है जिससे मनुष्य का जीवन ही ऐसा सुन्दर बन जाय कि सब लोग उसकी तरफ आकर्षित हों, उसकी प्रशंसा करें और उससे प्रेम करने लगें पर ऐसी सुन्दरता तभी प्राप्त हो सकती है जब हमारा शरीर, मन, चरित्र, आचार-विचार आदि सब कुछ निर्मल और पवित्र हो। शारीरिक स्वच्छता और पवित्रता के बिना स्वास्थ्य का ठीक रह सकना सम्भव नहीं होता। जिस व्यक्ति का स्वास्थ्य गिरा हुआ रहेगा वह किसी भी साँसारिक कार्य में अच्छी सफलता न पा सकेगा। मन की शुद्धता के बिना मनुष्य सज्जनोचित व्यवहार नहीं कर सकता। संसार में सच्चे साथी, मित्र, हितैषी, सद्व्यवहार द्वारा ही मिल सकते है। स्वार्थी अथवा कपटी स्वभाव के मनुष्यों को कभी सच्चे मित्र नहीं मिल सकते और उनको अन्य सभी लोग दुर्जन और ठगने वाले ही दिखाई पड़ते हैं। चरित्र की पवित्रता से ही मनुष्य समाज में विश्वसनीय बनता है तथा अन्य लोग उसका सम्मान करते हैं। जिसके चरित्र पर दूसरे व्यक्तियों को सन्देह हो वह सब की निगाह में गिर जाता है और कभी सच्ची प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता।

सारांश यही है कि जिस प्रकार मनुष्य का अस्तित्व अन्योन्याश्रित है उसी प्रकार जीवन के विभिन्न अंग भी एक दूसरे से सम्बन्धित है। किसी एक विषय में उन्नति कर लेने से मानव-जीवन कभी सफल नहीं माना जा सकता। यदि केवल बाहरी सुन्दरता और रंग रूप को ही महत्वपूर्ण समझा जाय तो वह वेश्याओं में भी देखने में आता है, पर उनके जीवन को कौन प्रशंसनीय कह सकता है? इसी प्रकार स्वास्थ्य की निगाह से खूब मजबूत, तगड़े, शक्तिशाली, पहलवान, जिनका चरित्र यदि उत्तम नहीं होता और बोलचाल में भी अक्खड़पन प्रकट होता है कहाँ लोकप्रिय या सम्माननीय समझे जाते है। इसी प्रकार जो लोग पूजा-पाठ में विशेषकर लगे रहते हैं, पर जिनमें परोपकार, विनय, सज्जनता आदि गुणों का अभाव होता है, वे कैसे जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं? इसलिये हमको यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि मानव जीवन के अनेक पहलू हैं उन सभी की उन्नति करने से, उनको शुद्ध तथा पवित्र बनाकर ही हम अपने जीवन को वास्तव में सुन्दर, संसार के लिए उपयोगी, महत्वपूर्ण बना सकते हैं।

इस प्रकार के सर्वांगपूर्ण और सुन्दर जीवन की प्राप्ति तभी हो सकती है जब मनुष्य की आत्मा सुन्दर हो। यों प्रत्यक्ष में मनुष्य का शरीर भौतिक जान पड़ता है और अधिकाँश मनुष्य उसी को सब कुछ समझते भी हैं, पर वास्तव में मनुष्य एक आध्यात्मिक प्राणी है, और जब तक उसका अन्तरंग शुद्ध, पवित्र, सौंदर्यवान न होगा तब तक वह बाहरी दृष्टि से भी अपने जीवन को कदापि सुन्दर बनाने में समर्थ नहीं हो सकता। इसी तथ्य को समझकर भारत के प्राचीन मनीषियों ने मानव प्रकृति के तीन गुणों सात्विक, राजसिक और तामसिक की बड़े गम्भीर भाव से विवेचना की थी और प्रत्येक वस्तु, कार्य और मनुष्य की श्रेष्ठता अथवा निकृष्टता का आधार उसी में ढूंढ़ निकाला था। उनका कथन है कि प्राचीन संस्कारों, बाल्यावस्था के वातावरण और अपने व्यवहार तथा रुचि के द्वारा जिस मनुष्य की आत्मा का जैसा विकास होता है उसी के अनुसार उसे सफलता या असफलता प्राप्त होती है।

जिस मनुष्य ने अपना जीवन आलस्य, अकर्मण्यता में व्यतीत किया है, जिन उद्योग, परिश्रम, अध्यवसाय की रुचि नहीं है, जिनमें हरामखोरी, पराश्रित रहने की प्रवृत्ति ने जड़ जमा रही है, वह कभी श्रेष्ठ और सुन्दर जीवन प्राप्त करने की आशा नहीं रख सकता। चाहे भगवान ने जन्म से उसे सुन्दर शरीर दिया हो तो भी अपने आचरणों और गन्दे मनोविचारों के द्वारा वह उसे वीभत्स बना लेगा। ऐसे लोग सब जगह प्रायः तिरस्कार, लाँछना ओर अपमान ही पाते है और इसलिये उनकी दृष्टि में तमाम दुनिया ही दुःखपूर्ण, कुरूप, घृणा करने योग्य जान पड़ती है। फलतः वे स्वयं भी वैसे ही बनते चले जाते हैं। अन्तः और बाह्य मलीनता ऐसे लोगों में प्रत्यक्ष दिखलाई देती है, और उसके कारण वे सर्वत्र उपेक्षणीय और निकृष्ट ही सिद्ध होते हैं। ये मनुष्य तामसिक श्रेणी के होते हैं।

दूसरे राजसिक श्रेणी के मनुष्य साँसारिक दृष्टि से बहुत कुछ अग्रसर अथवा प्रगतिशील दिखाई पड़ते हैं। वे पर्याप्त परिश्रमी, क्रियाशील, हर तरह के उपायों से अपने उद्देश्य की पूर्ति करने वाले होते हैं। साथ ही वे शारीरिक सुखों के इच्छुक, तरह-तरह के शौकों में लगे हुये, स्वादिष्ट भोजन और सुन्दर वस्त्राभूषणों के प्रेमी भी होते हैं। इस कारण उनमें स्वार्थ की भावना प्रबल हो जाती है और वे तरह-तरह की चालों से काम लेने लग जाते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टि में ईमानदारी या बेईमानी, सच्चाई या झूठ, उदारता या कठोरता, वास्तविकता या ढोंग आदि का कोई महत्व नहीं होता। जिस समय जिस उपाय से अपना स्वार्थ सिद्ध होता हो उसी से वे काम लेने को तैयार हो जाते है। यही कारण है कि ऐसे लोगों का जीवन अस्थिर होता है। कभी वे बड़े भद्र पुरुष जान पड़ते हैं, बड़ी सज्जनता की मीठी बातें करते है, और कभी स्थिति बदलते ही बड़े कठोर, अनुदार, लड़ाका और असभ्यता का व्यवहार करने वाले भी बन जाते है। इसका कारण यही है कि उनकी आत्मा का विकास बहुत कम हुआ होता है और वे इस संसार तथा इसके भौतिक पदार्थों को ही सबसे अधिक महत्व का समझते हैं। इसके फलस्वरूप ऐसे लोगों की बाह्य-सुन्दरता क्षणस्थायी और परिवर्तनशील बनी रहती है। उनकी स्वच्छता, शुद्धता, पवित्रता भी अधिकाँश में दिखावटी ही होती है और उसका वैसा ही परिणाम भी होता है।

इस दृष्टि से जीवन की स्थायी श्रेष्ठता, सच्ची सुन्दरता और वास्तविक उपयोगिता का मूल आधार सात्विक प्रकृति ही हो सकती है। ऐसे मनुष्य में जो शुद्धता, पवित्रता और निर्मलता की भावना होती है वह उसके आन्तरिक धर्म, कर्त्तव्य, आत्मोन्नति के विचारों द्वारा उत्पन्न होती है। वह केवल दिखाने के लिये ही सज्जनोचित व्यवहार नहीं करता वरन् उसके हृदय में दूसरे लोगों के लिये कल्याण-भावना होती है। वह केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये मधुर वाणी में सम्भाषण नहीं करता वरन् उसके भीतर दूसरों के लिये आत्म-भाव की भावना ही प्रबल रहती है। उसका बाह्य शौच, स्नान, ध्यान, व्यायाम, उचित आहार-विहार दिखावटी नहीं होते, वरन् ये उसकी आत्मिक पवित्रता, सत्यता से ही उत्पन्न होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि चाहे आरम्भ में लोग ऐसे मनुष्य की तरफ आकर्षित न हों, पर धीरे-धीरे उसके गुण, उसका महत्व उनकी समझ में आता जाता है, और अन्त में वे उसके प्रशंसक, सम्मान करने वाले, उसका अनुकरण करने वाले बन जाते है।

इस प्रकार मानव-जीवन की सार्थकता-सफलता के लिये भीतरी और बाहरी दोनों प्रकार की सुन्दरता की आवश्यकता है। बाहरी सुन्दरता, श्रेष्ठता के बिना दुनिया जल्दी किसी का आदर-सम्मान नहीं करती और भीतरी उत्तमता के बिना बाहरी आकर्षण ज्यादा समय तक टिक नहीं सकता। इस प्रकार के भीतरी गुणों- दैवी स्वभाव के कारण बाहर से काले, कुरूप दिखाई पड़ने वाले व्यक्ति भी सुँदर बन जाते है, संसार उनकी तरफ बहुत अधिक आकर्षित हो जाता है। जिन महापुरुषों के नाम हम आज याद करते रहते है, जिनके उदाहरण देकर लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जाती है, जिनकी पूजा और उपासना की जाती है, उनमें से बहुसंख्यक गोरे रंग के या नखशिख से बहुत सुँदर नहीं थे। कितने हों तो इस दृष्टि से कुरूप भी कहे जा सकते हैं। पर अपनी आत्मिक सुँदरता के कारण ये लोगों को सुँदर ही लगते थे और आज तक भी इसी कारण उनको स्मरण किया जाता है।

वास्तव में जिस मनुष्य की आत्मा शुद्ध होती है, जिसके विचार शुद्ध होते हैं, जिसका चरित्र पवित्र होता है, वह बाहर से भी कभी मलिन, गन्दा या अपवित्र नहीं रह सकता। उसकी शारीरिक स्वच्छता भी अन्य लोगों की अपेक्षा बढ़कर होती है और वह बाहर से भी वैसा ही स्वस्थ रहता है जैसा कि अन्तर में। चाहे वह अन्य दुनियादार लोगों की तरह बहुत अधिक शृंगार, फैशन, सजावट न करता हो, पर उसकी स्वच्छता, निर्मलता, सुन्दरता में सदैव एक पवित्रता की झलक दिखाई देती रहती है, जिससे लोगों की दृष्टि में उसका महत्व बहुत बढ़ जाता है।


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