साहसी बुँचे

February 1964

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डॉ. एफ. बुँचे का नाम संसार के सभी विचारशील लोगों की आँखों के सामने उस समय आया जब उन्होंने अरबों और इसराइलों के बीच चलने वाले युद्ध में मध्यस्थ का कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न किया और लड़ाई की आग बुझाकर आशंकाओं को सान्त्वना में बदल दिया।

अमेरिकी प्रशासन में वे प्रथम नीग्रो थे जिन्होंने औपनिवेशिक मामलों में विशेषज्ञ का महत्वपूर्ण पद संभाला। सैनिक सूचना कार्यालय के बड़े पदाधिकारी रहे और विदेश विभाग के सलाहकार नियुक्त हुए। सन् 1949 में उनको अमेरिकी सरदार के सहायक विदेश सचिव का पद लेने के लिए आमंत्रित किया पर वे निजी कारणों में उस समय उसे स्वीकार न कर सके।

जिस प्रकार भारत में हरिजनों के प्रति ऊँच-नीच का भेद-भाव बरता जाता था वैसे ही अमेरिका में आमतौर से नीग्रो नस्ल के लोगों को गोरे लोग हेय दृष्टि से देखते हैं और उन्हें अपनी समानता के स्तर तक नहीं आने देते। कानून ने सुविधायें उन्हें दी हैं, पर व्यवहार में तो अभी भी उन पर बहुत थोड़ा अमल हो पाता है। कालेज में नीग्रो छात्रों के प्रवेश के प्रश्न को लेकर वहाँ अभी भी सत्याग्रह और प्रदर्शन करने पड़ते है। फिर जिस जमाने में डॉ. बुँचे को काम करना पड़ा, वह भेदभाव की दृष्टि से और भी बुरा समय था। उनकी प्रगति के मार्ग हर प्रकार अवरुद्ध थे। फिर भी अपनी प्रतिभा- लगन और अध्यवसाय के बल पर कोई व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी किस प्रकार प्रगति कर सकता है उसका उदाहरण उन्होंने उपस्थित कर ही दिया।

डॉ. बुँचे सन् 1904 में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्में। उनके पिता नाई का काम करके मुश्किल से रोटी कमाते थे। पितामह को तो गुलाम का जीवन बिताना पड़ा। अमेरिका में उस समय मनुष्यों को भी पशुओं की तरह खरीदा बेचा जाता था और वैसा ही उनसे काम लिया जाता था। इन शोषकों के शिकार जो लाखों नीग्रो बने थे उन्हीं में से एक बुँचे के पितामह भी थे। ऐसे घर में जन्मा लड़का नाई के अतिरिक्त और कोई ऊँचा काम कर भी कैसे सकता था।

दुर्भाग्य ने ‘बुँचे’ को गुलाम, और नाई का काम करने वाले पिछड़े वर्ग में अभावग्रस्त जन्म तो दिया ही, पर आगे भी अपना खिलवाड़ बन्द न क्रिया। तेरह वर्ष की आयु होने से पहले माँ-बाप दोनों ही गुजर गये। बेचारा अनाथ बालक सर्वथा असहाय रह गया। पेट की ज्वाला को शान्त करना और जीवित रहना उसके लिए उन दिनों अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न थे। जीवन-मरण से युद्ध की घड़ी सामने आ पहुँचने पर भी बालक हारा नहीं, उसने अपना साहस समेटा और गली कूँचो में अखबार बेचकर किसी प्रकार रोटी भर के लिये पैसे कमाता रहा। कुछ और बड़ा हुआ तो छोटी मोटी वैसी ही नौकरी करने लगा जैसी कि इस स्थिति के बच्चों को मिला करती है।

‘बुँचे’ का दुर्भाग्य प्रचण्ड प्रकोप करके पीछे पड़ा था। अनेक कठिनाइयों का सामना उन्हें रोज ही करना पड़ता था। जो सोचते और करते उसमें आये दिन बाधाएं उत्पन्न हो जाती, फिर भी साहस का धनी यह नीग्रो युवक निराश न हुआ। आशा का संबल पकड़े और परिश्रम, के सहारे उसने अपनी जीवन यात्रा जारी रखी। बचे समय में विद्याध्ययन जारी रखना उसका नित्य नियम था। ज्ञान की साधना को उसने अपना लक्ष्य माना और अध्ययन को प्राण प्रिय विषय मानकर उसके साधन जैसे भी जुट सकें जुटाता ही रहा।

समय बहुत लगा पर एक दिन वह आ ही पहुँचा, जब बुँचे ग्रेजुएट बने और इसके पश्चात उन्होंने हारवार्ड विश्वविद्यालय से राजनीति में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर ली। इतनी ऊँची शिक्षा प्राप्त करने वाले संसार के प्रथम नीग्रो थे डॉ. एफ. बुँचे।

जातीय हीनता और काली चमड़ी के कारण पग-पग पर मिलने वाले उपहास और तिरस्कार की रत्तीभर भी परवा न करते हुए उनने अपना कार्यक्रम जारी रखा। समाज सेवा के लिए एक निस्पृह परमार्थी का जीवन बिताते रहे। अपने वर्ग और देश के लिये ही नहीं समस्त संसार के लिए उनने सराहनीय सेवा कार्य किये उनकी चर्चा का न तो इन पंक्तियों में स्थान है और न उपयोग। महत्व कार्यों का नहीं उन गुणों का है जिनके कारण मनुष्य आगे बढ़ता है। बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को परास्त करता हुआ अपने लिए प्रगति और आशा का मार्ग प्रशस्त करता है।

परिस्थितियों का महत्व है या गुणों का? इस प्रश्न का सही उत्तर देने के लिए डॉ. बुँचे का जीवन एक चमचमाता उदाहरण है। उनने असंख्य पिछड़े और अविकसित लोगों के सामने एक प्रेरणा के रूप में अपना जीवन रखा और मूक वाणी से यह प्रतिपादित किया कि दुर्भाव का अस्तित्व आशा और अध्यवसाय की तुलना में नगण्य के बराबर है। साहस और सद्गुणों को अपनाकर कोई भी व्यक्ति विघ्न बाधाओं को कुचलते हुए कितना भाग्य निर्माण कर सकता है। इसका एक जीवित प्रमाण डॉ. बुँचे के जीवन को पढ़ समझ कर सहज ही ज्ञात किया जा सकता है।

सन् 50 में उन्हें शान्ति प्रयत्नों के लिए विश्व-विख्यात “नोबेल पुरस्कार” मिला और उन्हें राष्ट्र संघ के अण्डर सेक्रेटरी पद में सम्मिलित किया गया। बुँचे का जीवन -आदर्श सज्जनता, श्रमशीलता, और आशा के रूप में निरन्तर बना रहा एक क्षण के लिये उनने इन विभूतियों से अपने को प्रथक न होने दिया।


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