युग-निर्माण आन्दोलन की चर्चा सुनकर कई रूढ़िवादी यह कहते सुने जाते हैं कि अभी तो कलियुग बहुत दिन रहेगा और आगे इससे भी बुरी परिस्थितियाँ पैदा होंगी। कलियुग तो 4 लाख 32 हजार वर्ष का है। अभी से वह कैसे बदल जायगा?
इस संदर्भ में हमें यह विचार करना होगा कि कलियुग क्या है और कब तक वह रहेगा? एक-एक युग की इतनी लम्बी अवधि रखी गई है, उसके मूल में कोई आधार भी है या नहीं?
यदि इस दृष्टि से भारतीय प्राचीन साहित्य का अनुशीलन किया जाय तो विदित होता है कि ग्रन्थों में एक तरह के नहीं कई प्रकार के युगों का उल्लेख किया गया है। युगों का नाम सब से पहले वेदों की संहिताओं में आया है और उनके अनुसार यज्ञ करने के लिये वर्ष को तीन-तीन महीने के चार भागों में बाँट कर उनका नाम युग रखा था। फिर अन्य वैदिक ग्रन्थों में ही पाँच और बारह वर्षों के युगों का वर्णन किया गया है। इसके सिवा ज्योतिष संबंधी गणना के लिये और भी कई प्रकार के छोटे बड़े युग माने गये हैं जिनमें से एक ‘ब्रह्मगुप्त’ का कहा गया युग तो 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है। धार्मिक क्रियाओं के लिये युगों का परिमाण ‘मनुस्मृति’ आदि पुराने ग्रन्थों में 12 हजार वर्ष का बताया गया है- ब्रह्मास्यतु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समाप्तः।
एकं कशो युगानान्तु क्रमशस्तनिनबोधत॥ 68॥ चत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणाँ तु कृतं युगं
तस्य तावत् शती संध्या संध्याशश्च तथाविधिः॥ 69 ॥
इतरेषु स संध्येषु संसध्याशेषु च त्रिषु।
एको पायेन वर्तन्ते सहस्त्राणि शतानिच ॥ 70 ॥
(मनु.- 1)
अर्थात् “ब्रह्मा के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने तक जो युग माने जाते हैं उनका क्रम यहाँ बतलाते हैं। चार हजार वर्ष का सतयुग और उतने ही सकड़ेडडडडड की उसकी पूर्व-संधि तथा उतनी ही उत्तर-संधि। इसी प्रकार तीन हजार की तीन-तीन सौ की, दो हजार की दो-दो सौ की, एक हजार की एक-एक सौ की संधि होती है।”
‘लिंग पुराण’ में इसी विषय का विवेचन इस प्रकार मिलता है :-
चत्वारिच सहत्राणि मानुषाणि शिलासन।
आयुः कृतयुगे विद्धि प्रजानामिह सुव्रत॥ 9॥
ततः कृतयुगे तस्मिन सन्ध्याँशेव गतेतुवै ।
पादवशिष्टो भवति युगधर्म्मसु सुर्वतः ॥ 10॥ चतुर्भागं द्वापरं विद्धि-तदद्ध’ तिष्यमुच्यते ॥ 11 ॥
त्रिशती द्विशती सन्ध्या तथा चैक शतीमुने। सन्ध्याँश कंतीथाऽप्येव कल्पेष्वेवं युगे युगे॥ 12 ॥
अर्थात् “सतयुग मनुष्यों के चार हजार वर्ष का होता है। सतयुग का अन्तिम सन्ध्याँश बीत जाने पर धर्म का तीन हिस्सा रह जाता है। त्रेतायुग तीन हजार का द्वापर दो हजार का और कलियुग एक हजार वर्षों का होता है। इन सब की सन्ध्या और सन्ध्याँश मिल कर क्रम से आठ सौ, छः सौ, चार सौ और दो सौ वर्ष के होते है।”
भागवत पुराण का मत भी संक्षेप में इसी से मिलता-जुलता है :-
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्पुगम्।
दिव्यैद्वदिशभिर्वर्षेः सावधानं निरुपितम्॥
चत्वारि त्रीणि द्वे चैके कृतादिषु यथाक्रमम्।
संक्ष्यातानि सहस्नाणि द्विगुणनि शतानिच॥
अर्थात् -”सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग चारों मिलकर 12 दिव्य वर्षों के होते हैं। इनका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार का होता है, जिसमें द्विगुण सैकड़े की संख्या और बढ़ा देनी चाहिए।”
जैसा हमने ऊपर बतलाया है धर्मग्रन्थों में तथा पुराणों में भी जगह-जगह चारों युगों का मान 12 हजार वर्ष का लिखा है, और कलियुग का परिमाण केवल 1200 वर्ष का बतलाया है पर जिन पण्डितों ने पुराणों की कथाओं में एक-एक राजा की आयु और शासनकाल हजारों वर्ष का लिखा, उनको यह काल - विभाग बहुत ही छोटा या अपर्याप्त जान पड़ा और इसलिये उन्होंने यह सिद्धान्त निकाला कि ये 12 हजार वर्ष देवताओं के हैं, जिनका एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। इस प्रकार उन्होंने 12 हजार से 360 का गुणा करके चारों युगों का परिणाम 43 लाख 20 हजार वर्ष का प्रतिपादित कर दिया। यही बात साहित्य के मर्मज्ञ लोकमान्य तिलक ने अपने “गीता रहस्य” में लिखी है :-
“युगों की काल-गणना इस प्रकार है- कृत युग में चार हजार वर्ष, त्रेतायुग में तीन हजार वर्ष, द्वापर में दो हजार और कलि में एक हजार वर्ष। परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम आरम्भ नहीं हो जाता, बीच में दो युगों के सन्धि काल के कुछ वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार कृतयुग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर चार सौ वर्ष का, त्रेतायुग में आगे और पीछे प्रत्येक ओर तीन सौ वर्ष का, द्वापर के पहले और वाद प्रत्येक ओर दो सौ वर्ष का, और कलियुग के पूर्व तथा अनन्तर प्रत्येक ओर सौ वर्ष का सन्धि काल होता है। सब मिलाकर चारों युगों का आदि अन्त सहित सन्धि काल दो हजार वर्ष का होता है। ये दो हजार वर्ष और पहले बतलाये हुये साँख्य मतानुसार चारों युगों के दस हजार वर्ष को मिलाकर कुल बारह हजार वर्ष होते हैं। ये बारह हजार वर्ष मनुष्यों के हैं या देवताओं के?..................इस विरोध को मिटाने के लिये पुराणों में निश्चित किया है कि ये बारह हजार वर्ष मनुष्यों के तेतालीस लाख बीस हजार वर्षों के बराबर होते हैं।”
इस सम्बन्ध में कुछ अन्य विद्वानों तथा धार्मिक सज्जनों का यह भी मत है कि प्रत्येक युग के बीच में अन्य युगों की अन्तर और प्रत्यन्तर दशाएं आती रहती हैं। जिस प्रकार नवग्रहों की एक विंशोत्तरी दशा तो लम्बी अवधि की होती है पर उस अवधि में ही एक बार नौ ग्रहों की अंतर्दशा बदल जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक युग में उसकी अवधि के भीतर चारों युगों की अंतर्दशाएं भी बदलती रहती है। वर्तमान परिवर्तन काल को कलियुग के बीच सतयुग की एक अंतर्दशा भी माना जा सकता है।
संयोग की बात है कलि संवत् का विचार भी अब से लगभग 1200 वर्ष पहले ही उठा था और कुछ लोग उसे व्यवहार में लाने लगे थे। श्री रावर्ट सिवेल नामक अंग्रेज विद्वान ने सन् 1924 में “सिद्धान्ताज एण्ड इण्डियन कलैण्डर” (सिद्धान्त और भारतीय पंचांग) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में भारतवर्ष में प्रचलित अनेक सम्वतों का जिक्र करते हुए कलि-संवत् के विषय में जो लिखा है, वह विशेष रूप से विचारणीय है :-
“कलि-संवत् का सबसे पुराना शिलालेख, जिससे हमें कलियुग का पता चलता है, वह राजा पुलकेशिन (द्वितीय) चालुक्य का है, जो एहोल नामक स्थान में पाया गया है। उसमें लिखा हुआ रामय ईसवी सन् के हिसाब से 634-635 होता है, दूसरा लेख सन् 770 और तीसरा 866 ई॰ का है। यह सब लेख दक्षिण भारत के है। उत्तर भारत में जो सब से प्राचीन लेख कलियुग संवत् का मिला है वह सन् 1169-70 ई॰ का है।”
इससे यह प्रकट होता है कि वास्तव में कलियुग की भावना का प्रसार उसी समय से अधिक बढ़ा है जब से मुसलमानों का इस देश में आगमन होने लगा है। मुसलमानों का प्रथम आक्रमण सिन्ध पर मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सन् 800 के आस-पास ही हुआ था और उसके कुछ ही समय पश्चात महमूद गजनवी ने भारतवर्ष पर 17 बार आक्रमण करके मनमानी लूट और हिन्दू धर्म को नष्ट करने की चेष्टा की। उस कुसमय को सर्वसाधारण ने कलियुग कह कर और समझ कर संतोष धारण किया और संत लोगों ने भी उसी का आधार लेकर लोगों को विधर्मियों से पृथक और सावधान रहने की शिक्षा दी। इस समय से पहले के ग्रन्थों में कलियुग का जिक्र बहुत कम आया है और वहाँ भी किसी जगह यह प्रकट नहीं किया गया है कि कलियुग इतने लाख वर्ष तक रहेगा और उसमें लोग दिन पर दिन अधिकाधिक पापी बनते जायेंगे। वास्तव में ऐसी धारणा का प्रचार कोई भी संज्ञान, सुयोग्य, समाज- हितैषी नहीं कर सकता। इसलिये हम को एक विद्वान की इस बात के बहुत कुछ तथ्य जान पड़ता है कि मुसलमानी शासन काल में ही उनसे प्रभावित होकर, उनकी खुशामद करने की दृष्टि से अथवा कहीं -कहीं उनके द्वारा लालच दिये जाने पर भी लोगों ने हिन्दू’- धर्मशास्त्रों में ऐसे हीनता के विचारों का समावेश किया और जनता में उनका प्रचार भी किया गया। ऐसे पंडित नामधारी लेखकों ने अनेक समाजोपयोगी बातों को ‘कलिवर्ज्य’ कहकर हिन्दू-समाज की प्रगति में एक रोड़ा लगा दिया, स्त्रियों को हीन तथा अकर्मण्य दशा में रहने को बाध्य कर दिया और बहुसंख्यक जातियों और पेशों को अछूत ठहरा कर हिन्दू जाति को निर्बल तथा विश्रृंखलित करने का मार्ग खोल दिया।
इन बातों पर विचार करने से कलियुग के अभी चिरस्थायी रहने और युगनिर्माण की बात न बन पड़ने की आशंका अनुचित है। ऐसी निराशा मन में लाना किसी भी प्रकार उचित नहीं कि कलियुग नव-निर्माण के प्रयत्नों को सफल न होने देगा।
“ऐतरेय ब्राह्मण” में इस सम्बन्ध में एक प्रकरण बड़ा ही भावपूर्ण और शिक्षाप्रद है। एक ऋषि को हतोत्साहित और निराश देखकर इन्द्र उपदेश देता है।
कलिःशयानों भवति संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठन्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन्॥
चरैवेति, चरेवैति, चरेवैति
अर्थात् -”जिस समय समाज या व्यक्ति निद्रावस्था में बेखबर पड़े रहते हैं अर्थात् अज्ञानावस्था में रहते हैं उस समय कलियुग होता है। जब निद्राभंग होकर वे जँभाई लेते हैं (चैतन्य जान पड़ते हैं) तब द्वापर होता है। फिर जब वे उठकर बैठ जाते हैं तब त्रेता समझना चाहिए। जब वे खड़ा होकर चलने लग जायें, तब कृतयुग अथवा सतयुग समझ लेना चाहिए। इसलिये निरन्तर चलते रहो।
इससे विदित होता है कि आरम्भ में सतयुग- त्रेता आदि युगों की कल्पना समय के लाखों वर्षों के विभागों का विचार रखकर नहीं की गई थी, वरन् समाज तथा व्यक्ति की कर्मशील अथवा अकर्मण्य अवस्था को प्रकट करने के लिये उसका प्रयोग किया गया था। ऐसा ही एक उदाहरण हमको महाभारत में दिखाई पड़ता है। उसमें भगवान कृष्ण ने युद्ध को रोकने के लिये कर्ण को समझाते हुये कहा था-
यदा द्रक्षसि संग्रामे श्वेतश्वं कृष्ण सारथीम्।
एन्द्रमस्त्रं विकुर्वाणाभुवं चाप्याग्नि मारुते॥ 6॥
गाँडीवस्य च निर्धोयं विस्फूर्जितिभिवाशनेः।
न तदा भविता त्रेता न कृतं द्वापरं न च ॥ 7। ।
यदा द्रक्षासि संग्रामे कुँतिपुत्र युधिष्ठिरम्।
जप होम समायुक्तं स्वं रक्षन्तं महा चमूम्॥ 8॥
आदित्यमिव दुर्धर्ष तपंतं शत्रुवाहिनीम्।
न तदा भाविता त्रेता न कृतं द्वापरं न च ॥ 9॥
अर्थात्-”जब संग्राम में श्वेत घोड़ों के सारथी कृष्णा को आग-बबूले की तरह होते और महावीर अर्जुन को गाँडीव धनुष से वज्राघात की सी टंकार करते देखोगे, तब न तो त्रेता ही रहेगा न कृतयुग और न द्वापर।”
“ जब जप होम आदि किये हुये सूर्य के समान प्रखर तेज वाले कुंती पुत्र युधिष्ठिर को अपनी सेना की रक्षा करते और शत्रु की सेना को जलाते देखोगे, तब न त्रेता रहेगा न कृतयुग और न द्वापर।”
महाभारत के शान्तिपर्व में युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश देते हुये भीष्म पितामह ने कहा था-
कालं वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो माभूत् राजा कालस्य कारणम्॥ 79॥
ततो कृतयुगी धर्मो न धर्मो विद्यते क्वचित्।
सर्वेषामेव वर्णानाँ नाधर्मे रमते मनः॥ 82॥
अर्थात् -”हे युधिष्ठिर! काल के वशवर्ती होकर राजा ही कर्ता हुआ करता हैं अथवा यह भी कह सकते है कि राजा के वश में ही काल रहता है- इस विषय में आप कुछ भी संशय न करें। क्योंकि जब राजा- धर्मानुकूल शासन और दण्ड नीति का प्रयोग करता है तो कहीं अधर्म नहीं रहने पाता, चारों वर्ण अपने धर्म का पालन कृत युग (सतयुग) के अनुसार ही करने लगते हैं।”
शास्त्र के अनुसार भी कलियुग समाप्त हो चला फिर मानवीय पुरुषार्थ के सामने उसका ठहर सकना भी किस प्रकार हो सकता है। सामने प्रस्तुत लक्षणों को देखते हुए युग-परिवर्तन का समय निकट ही है।