नारी पुनरुत्थान के पुनीत कर्म में लगे हुए महर्षि कर्वे ने अपने रिश्ते की एक बाल विधवा से शादी कर ली। उन दिनों रूढ़िवाद की जड़ों पर किसी ने चोट भी नहीं की थी और वे हिली भी नहीं थी।
पंचों ने कर्वे को जाति बहिष्कृत कर दिया। गाँव के देव मंदिर में जब उत्सव चल रहा था तो वे भी जा पहुँचे। बहिष्कृत को सामूहिक आयोजन में सम्मिलित क्यों होने दिया जाय? आवाजें उठी और उन्हें वहाँ से हटा दिया गया। कर्वे ने कहा यह तो भगवान का द्वार है। जब दूर से चाँडाल भी दर्शन कर लेता है तो मुझे क्यों रोकते हो? प्रसाद तो नीच लोगों को भी मिल जाता है फिर मुझे वंचित क्यों करते हो?
इतनी नम्रता का भी तिरस्कार ही हुआ। महर्षि के तर्क उन पाषाण हृदयों को प्रभावित न कर सकें। उन्हें प्रवेश न मिला। पर धैर्य और लगन का चमत्कार तो देखिए। उन्हीं महर्षि कर्णे के प्रयत्न से महाराष्ट्र आज नारी प्रगति में अग्रणी हैं। उनकी संस्था में सहस्रों नारियाँ उच्च शिक्षा प्राप्तकर समाज सुधार के आन्दोलन को गतिवान बनाने में संलग्न है।