हमारी संकीर्णताजन्य दुष्प्रवृत्ति

February 1964

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वैदिक-कालीन समाज में और उसके पश्चात् जब चार आश्रमों वाली समाज की स्थापना हुई तो यहाँ के मनुष्यों के सामने संभवतः एक ऊँचा सामूहिक आदर्श था कि प्रत्येक को अपनी शक्ति, बल, प्रतिभा, विद्वता का उपयोग समाज की प्रगति के लिये करना चाहिए। ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार किये जाने के अवसर पर उस मानव की आध्यात्मिकता और व्यापकता का उपदेश दिया जाता था और उसे सदैव उसे उपदेश का ध्यान बना रहे उसके चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत धारण कराया जाता था। जब तक वह प्रथा जीवनयुक्त रही यहाँ के सभी महान पुरुष अपनी शक्तियों को समस्त समाज के लिये उपयोग में लाते रहे। जो ऋषि-महर्षि एकान्त में रहकर वर्षों तक कठोर तपस्या करते थे वे भी शक्ति को प्राप्त करके फिर से लोकालय में आकर उसका उपयोग समाज की प्रगति और सेवा के लिये ही करते थे। इसी प्रवृत्ति के कारण उस समय भारतीय-संस्कृति की इतनी तीव्र गति से उन्नति हुई और थोड़े ही समय में उसका प्रभाव समस्त विश्व में फैल गया जिसके कुछ चिह्न अब भी खोज करने पर मिला करते है।

पर जब इस दृष्टिकोण में विकृति उत्पन्न होकर लोगों में व्यक्तिवाद की भावना बढ़ने लगी और वेदान्त सिद्धान्त का विपरीत अर्थ किया जाने लगा तब मनुष्यों के सामने सबसे बड़ा उद्देश्य अपनी ‘मोक्ष’ का ही रह गया। संसार को एक बंधन या मायाजाल समझा जाने लगा और उसे काटकर, संसार से पृथक होना, अपने लिये मुक्ति का प्रयत्न करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया। लोगों को उपदेश दिया जाने लगा कि “तू यहाँ अकेला आया है और अकेला ही जायेगा दुनिया में कोई किसी का नहीं है।” ऐसे उपदेशों के फल से अधिकाँश लोग त्यागी के बजाय महास्वार्थी बन गये।

यहाँ के जो साधू-संन्यासी बड़े त्यागी और ईश्वर-भक्त समझे जाते थे, वे समाज की कमाई से जीवन-धारण करते हुए उसी की निन्दा करने लगे और अन्य लोगों को भी अपनी ही तरह ‘निकम्मा’ बनने का उपदेश देने लगे। एक त्यागी तो इंग्लैंड का वह डॉक्टर था जिसने शाहजहाँ बादशाह की पत्री जहाँआरा को रोग मुक्त करने और उसके उपरान्त बादशाह के यह कहने पर कि तुम चाहे जो माँग लो, अपने लिये किसी तरह की याचना न करके अपने देश के माल पर से चुँगी हटा देने की माँग की थी। उसके ‘त्याग’ का लाभ उसके समस्त समाज को मिला और वह शीघ्र ही इस देश का शासक बन जाने में समर्थ हो गया। और एक यहाँ के त्यागी हुये जो समाज के धन से पाले पोसे जाकर, शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके, अनेक प्रकार की विशेष शक्तियों और योग्यता प्राप्त करने के उपरान्त कहने लगे कि “यह संसार मिथ्या है, यहाँ कोई किसी का नहीं, इसलिये साँसारिक कार्यों को त्यागकर एकान्त में बैठकर अपनी मोक्ष के लिये प्रयत्न करो।”

इस प्रकार परमार्थ-अध्यात्म के क्षेत्र में भी यहाँ स्वार्थ का उपदेश दिया जाने लगा। जिसके प्रभाव से सामूहिकता की भावना बिल्कुल जाती रही और प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ भी भला या बुरा काम करने लगा उसका लक्ष्य एकमात्र अपनी भलाई ही रह गया। जिस “अद्वैत” का अर्थ परायेपन का विचार त्यागकर सब मनुष्यों को आत्म-स्वरूप समझना, उनके दुःख-सुख की हर तरह से चिन्ता करना था, उसी के नाम पर लोग जगत को मिथ्या बताकर उससे परान्मुख होने को सबसे बड़ा आदर्श मानने लगे। इसी मनोवृत्ति को देख कर स्वामी विवेकानन्द ने पृथकता की भावना का उल्लेख करते हुए कहा था-”हिन्दू-धर्म के समान उदार तत्वों को बताने वाला कोई दूसरा धर्म नहीं है और हिन्दू लोगों के समान प्रत्यक्ष आचरण में जैसे अनुदार लोग भी दूसरी जगह नहीं मिलेंगे।”

वास्तव में यह एक आश्चर्य की घटना ही है कि एक ओर तो मनुष्य ज्ञान, विज्ञान, आवागमन, व्यापार, शिक्षा आदि विषयों में इतनी उन्नति कर रहा है कि विभिन्न राष्ट्रों और जातियों को पृथक करने वाले सब अवरोध नष्ट होते जाते हैं ओर एक ‘विश्व-मानव’ अथवा ‘विश्व-सभ्यता’ की स्थापना का समय निकट दिखलाई पड़ता है। एक भारतीय विद्वान के ही शब्दों में “विभाजन के बड़े-बड़े कारण महासागर और पर्वत अब प्रभाव-हीन हो गये हैं। परिवहन और संचरण की इस समय उपलब्ध सुविधाओं के कारण संसार एक छोटा-सा पड़ोस बन गया हैं धर्म और प्रथाओं के विपरीत, जो अधिकाँश में स्थानीय ढंग की होती है, आधुनिक-विज्ञान राजनीतिक या सामाजिक सीमाओं को अमान्य करता है और एक ऐसी भाषा में बात करता है जिसे सब समझते है।”

औद्योगिक क्रान्ति ने आर्थिक सम्बन्धों को इतना बदल दिया हैं कि अब हम एक विश्व-समाज बन गये है। विज्ञान ने मानव-जीवन का आधार एक ही ब्रह्माण्डीय-तत्व को बतलाया है और यह भी कल्पना की है कि प्रकृति और मानवता के पीछे एक सार्वभौम चेतना है। “इस प्रकार मानवता की जड़े गहरी पहुँचने के साथ-साथ ही विभिन्न देशों में एक ऐसी संकीर्ण राष्ट्रीयता का उदय हो रहा है जिससे मनुष्य एक दूसरे के साथी और सहयोगी होने के बजाय एक दूसरे को अपना प्रतिद्वन्दी शत्रु समझते हैं और विनाश की तैयारी में संलग्न है। ऐसी ही भावना ने हिटलर जैसे मनुष्यों को जन्म दिया जिसने बिना किसी संकोच के कहा-”बनने दो हमें अमानव। यदि हम जर्मनी की रक्षा कर पायेंगे, तो समझो हमने संसार का सबसे महान कार्य कर लिया है। होने दो हमें अनैतिक, यदि हम अपने देशवासियों की रक्षा कर सके, तो समझो हमने नैतिकता की पुनः स्थापना के लिये द्वार खोल दिया है।” भारतवर्ष में बहुसंख्यक मनुष्य हिटलर से भी कहीं अधिक संकीर्णतावादी बन गये हैं और वह जिस मार्ग को अपने राष्ट्रीय हित की दृष्टि से उचित बतलाता था यहाँ के मनुष्य केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये उन सब बातों को ठीक मान लेते हैं। ऐसे लोग स्वप्न में भी यह विचार नहीं करते कि देश और जाति किस चिड़िया का नाम है। उनका तो आजकल यही सिद्धान्त हो रहा है कि “आप मरे तो जग डूबा”। देश भाड़ में जाय और जाति चूल्हे में पड़े, केवल हम हर तरह से मौज और सुख को जिन्दगी व्यतीत करते रहें। और तारीफ की बात यह है कि इतने पर भी इनमें से कितने ही लोग दूसरों को ‘एकोबह्म द्वितीयो नास्ति’ का उपदेश भी देते रहते हैं।

इस प्रकार हमारा वर्तमान जीवन आर्य-जाति के प्राचीन निष्काम कर्म के आदर्श से सर्वथा विपरीत चल रहा है। हममें सामूहिकता का, सच्ची-भावना का सर्वथा अभाव हो गया है। थोड़े से लोगों में समय-समय पर राष्ट्रीयता की भावना का उदय हो जाता है पर जन-समूह में व्याप्त व्यक्तिवाद के कारण वे भी अपने स्थान पर ज्यादा देर तक टिके नहीं रह पाते। ऐसी दशा में विश्व मानव की भावना और तदनुसार आचरण जो कि भारतीय-संस्कृति का सच्चा आदर्श है-की आशा कैसे की जा सकती है। यही कारण है कि शंकराचार्य जैसे महापुरुष ने यद्यपि अपनी अद्वैत-गर्जना से द्वैत-सिद्धान्त रूपी स्यारों को भगा दिया, लेकिन हमारे समाज में से द्वैत भावना नहीं भागी। ऊँच-नीच का भेद, छूत-अछूत का भेद, ब्राह्मण-शूद्र का भेद, गरीब-अमीर का भेद, स्वामी-दास का भेद आदि बातें तब भी बनी रहीं और अब तक जीवित बनी हैं।

ऐसी ही हीनता और संकीर्णता की भावनायें इस समय जन-मानस में उत्पन्न होती रहती हैं, जिनके कारण, सब कुछ साधन पा जाने और अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रगति होने पर भी लोगों को चैन, शान्ति नहीं है और सब हाय-हाय करते हुये भगवान और प्रकृति को कोसते रहते हैं। पर उनकी समझ में यह नहीं आता कि हम जो कुछ दुःख भोग रहे हैं वह हमारी करतूतों का, स्वार्थपरता का परिणाम है। यदि हम केवल अपनी भलाई का ही विचार छोड़कर दूसरों की भलाई का भी ध्यान रखें, सबके हित में अपना हित समझें, अपने सामने सामूहिक अभ्युदय और प्रगति का आदर्श रखें तो कोई कारण नहीं कि वर्तमान जगत ही हमारे लिये सुख और शान्ति का आवास-स्वर्गीय आनन्द का स्थान न बन जाय।


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