(स्व श्री परमहंस राजनारायणजी षट्शास्त्री)
मनुस्मृति के अध्याय 1, श्लोक 67-70 में चारों युगों की आयु कलियुग से लेकर क्रम पूर्वक इस प्रकार आती है - 4800, 3600, 2400, 1200 मेघातिथि ने भूल में पड़कर सतयुग 4800 वर्षों का समझा, तो उसी हिसाब से त्रेता 3600 का, द्वापर 2400 वर्षों का और कलियुग 1200 वर्षों का हुआ। इनने सोचा होगा कि कलियुग तो मुझ तक ही कई हजार वर्षों का व्यतीत हो चुका है, फिर यह 1200 वर्षों का नहीं हो सकता। तब उनने श्रीमद्भागवत् के स्कन्ध 12, अध्याय 2 के इस 34 वें श्लोक को देखा होगा,
दिव्यव्दानाँ सहस्रान्ते चतुर्थेतु पुनः कृतम।
भविष्यति यदा नृणाँ मन आत्म प्रकाशकम्।
इसका शब्दार्थ यह है कि - “चार हजार दिव्य वर्षों के अन्त के अर्थात् चार हजार दिव्य वर्षों में (कलियुग बीता) फिर सतयुग आयेगा जो मनुष्यों के मन और आत्मा में प्रकाश करेगा।”
इस श्लोक में दिव्य शब्द आया है। मेघातिथि ने इसका अर्थ देवता कर डाला और अभी तक प्रायः सभी पण्डित लोग ऐसा ही अर्थ करते रहे हैं। चूँकि एक मानुषी वर्ष के बराबर देवताओं का एक दिन होता है, यह विचार करके मेघातिथि ने भ्रम से 1200 वर्षों का कलियुग समझा और उन्हें देववर्ष मानकर उनको 360 से गुणा करे 432000 बना दिया और कलियुग की इतनी अवधि लिख दी जो सर्वथा मिथ्या है। ‘दिव्य’ शब्द का अर्थ देवता तीन काल में भी नहीं हो सकता। पहिले मैं इसके प्रमाण देता हूँ। देखो ऋग्वेद 2/164/46
‘इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि माहुः रथो दिव्यः ससुपर्णो गरुत्मान’ अर्थात् - अग्नि रूप सूर्य को इन्द्र मित्र वरुण कहते हैं। वही दिव्य, सुपर्ण, गुरुत्मान है।
यह मंत्र निरुक्त दैवत काण्ड 7/18 में भी आता है। वहाँ दिव्य शक्ति की व्युत्पत्ति यह की गई है - “दिव्यों दिविजोः” अर्थात् जो दिवि में प्रकट होता है, उसे दिव्य कहते हैं। दिवि ‘द्य, को कहते हैं। नैघण्टुककाणड में दिनल के 12 नाम लिखें हैं, उनमें धु शब्द भी दिन का वाचक है, अब दिव्य का अर्थ यह हुआ कि - ‘जो दिन में प्रकट होता है। “ और यह प्रत्यक्ष है कि दिन में सूर्य ही प्रकट होता है। अतः दिव्य सूर्य का नाम है।
ऋग्वेद 1/16/3/10 मन्त्र - ‘ईर्मान्ताँसः सिलिक .............दिव्य मज्मश्रः।” का “अक्ष्वों अग्निर्देवता” अर्थात् आग का घोड़ा (सूर्य) है। इसमें भी सूर्य का वर्णन है। इस मंत्र पर निरुक्त ने दिव्य शब्द की व्युत्पत्ति दिव्या दिविजों की है। बात वही है। जो दिन में प्रकट होता है, वह दिव्य सूर्य है और यह भी स्पष्ट लिखा है कि- “अस्तयादितयस्तुति” अर्थात् इस नाम से सूर्य की स्तुति है। वेद में दिव्य नाम सूर्य का है, देवता को दिव्य कदापि नहीं कहते। यह दो बड़े प्रमाण वेद के हैं।
व्याकरण से भी दिव्य शब्द का अर्थ देवता नहीं बनता। दिव् धातु में “स्वोर्थेयत” प्रत्यय लगाने से दिव्य शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति यह हुई - “दिवि भवं दिव्यनु” अर्थात् जो देवि में प्रकट होता है, वह दिव्य है और दिनों में सूर्य ही प्रकट होता है। अतः दिव्य केवल सूर्य ही को कहते हैं। दिवि धु को कहते हैं और धु दिन का नाम है। देवता शब्द दूसरे “देवातल” आदि सूत्रों से बनता इस कारण ही दिव्य और देवता शब्दों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। दिव्य शब्द और देवता शब्द बनाने के रूप ही अलग-अलग हैं।
कुल्लूक भट्ट ने तो अपनी मनुस्मृति से 171 की टीका करते हुए पूरा खंडन किया है कि “एतस्य श्लोकस्यादो यदे तन्मानुषम् चतुर्युग परिगणितम् एतछवोनाँ युग मुच्यते।” अर्थात् चारों युग मनुष्यों के हैं, इनके बराबर देवताओं का एक युग होता है।
मेघातिथि ने चारों युगों की देवताओं के युग और उनके वर्षों को देव वर्ष लिखा है, जिसका खण्डन कुल्लूक भट्ट 500 वर्ष पहले ही कर चुके हैं। पंडित लोग आंखें बन्द करके मेघातिथि के पीछे चल पड़े, उन्होंने कुल्लूक भटट के खण्डन पर ध्यान नहीं दिया और अब तक प्रायः सब पंडित ऐसा ही मान रहें हैं।
अब विचार की बात यह है कि मेघातिथि ने उलटा हिसाब लगा कर कलियुग को 1200 वर्षों का लिखा है और दिव्य शब्द का अर्थ देवता करके 1200 के 360 से गुणा कर कलियुग को 432000 वर्षों का लिख डाला, परन्तु दिव्य शब्द का अर्थ किसी प्रकार से भी देवता नहीं हो सकता, तब कलियुग के 1200 वर्ष ही रहे और कलियुग की आयु 1200 वर्ष नहीं क्योंकि पंचाँगों के अनुसार ही कलियुग की अब तक 5000 वर्षों से अधिक व्यतीत हो रहे हैं। इस बात से ही स्पष्ट रूपेण सिद्ध हो जाता है कि मेघातिथि ने कलियुग की जगह सतयुग समझ लिया था। वास्तव में सतयुग 1200 वर्षों का होता है, त्रेता 2400 का, द्वापर 360 का और कलियुग 4800 वर्षों का है। यह अब समाप्त हो रहा है। भागवत् के श्लोक में 4000 वर्ष कलियुग के बताये हैं, सन्धया सन्ध्याँस के 800 वर्ष है, इस प्रकार 4800 वर्ष हुए।
एक शंका का उत्तर।
बाल्मीकि रामायण बाल काण्ड अ. 4 में श्लोक 97 में लिखा है।
दर्श वर्ष समस्राणि दश वर्ष षतानि च।
रामो राज्य मुपासत्वा ब्रह्म लोके शामिष्यति॥
अर्थ - “भगवान राम 11 हजार वर्ष तक राज करके ब्रह्मलोक में जायेंगे।” इसके आधार पर बहुत से पंडित यह शंका उठाते हैं कि जब त्रेतायुग 2400 वर्षों का हुआ तो भगवान राम ने 11000 वर्ष तक कैसे राज किया है, उन्हें जानना चाहिए कि वर्ष कई प्रकार के होते हैं। 1 दिव्य वर्ष 360 दिनों का है, जिसका विस्तार किया जा चुका है, एक सौर वर्ष 365 दिनों का है। सूर्याब्द या सूर्य वर्ष 24 घंटों का अर्थात् सूर्य उदय होने से अगले सूर्य उदय होने तक का है। प्राचीन समय में यही वर्ष बहुत प्रचलित था। एक चन्द्र वर्ष तिथियों के हिसाब से 354 दिनों का है। एक नक्षत्र 52 घड़ियों का होता है। भगवान् राम के राज के 11 हजार वर्ष सूर्य वर्ष थे।
देखो वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 73 श्लोक 5-
अप्राप्त यौवनं वाले पंच वर्ष सहस्रकम्।
अकाले काल मापन्नं मम दुःखाय पुत्रकम्॥
अर्थात् भगवान् राम के राज में एक ब्राह्मण का बालक 5 हजार वर्ष की आयु में मर गया था, वह ब्राह्मण उस बालक की लाश भगवान राम के सामने लाकर शिकायत करता है कि यह 5 हजार वर्ष का बालक आपके राज में जवान हुए बिना ही कैसे मर गया है ?
इस श्लोक पर प्रसिद्ध रामाभिरामी टीकाकार ने लिखा है कि - ‘पंच वर्ष सहस्रकं वर्ष शब्दोत्र दिन पर कि चिन्नयूनं चतुर्दश वर्ष मिर्त्यथ।” अर्थात् “पाँच हजार वर्ष कुछ कम चौदह वर्षों के बराबर हुए यह अर्थ है।” इसी प्रकार भगवान् राम के राज्य के 11 हजार वर्ष (सूर्य वर्ष है) अर्थात् 30 वर्ष 6 मास और 20 दिनों ही राम ने राज्य किया था। इसी प्रकार वर्षों की विभिन्नता का ठीक ज्ञान न होने के कारण पंडित लोग सब वर्षों को दिव्य वर्ष (360 दिन) मानने लगते हैं। कलियुग के चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का मानने में भी यही गलती हुई है।