पृथ्वी के खम्भ

January 1942

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(ले. रामनारायण श्रीवास्तव “हृदयस्थ”)

कैलाश के शुभ शिखर पर भूत भावन शंकरजी शान्त भाव से बैठे हुए श्री पार्वतीजी के प्रति साँसारिक जीवों के पाप और ताप की चर्चा कर रहे थे, कलियुगी अनेक वीभत्स दृश्यों का चित्रण करते हुए शिवजी कहने लगे अब तो धरातल पर पाप ही विशेष रूप से दिखाई दे रहा है।

माता गौरी शंकित और खिन्न भाव से बोली कि हे प्रभो, अब तो यह पृथ्वी रसातल को जाने वाली ही समझो? इसके ऊपर एक एक पाप का भार असह्य है। शिवजी ने कहा अभी ऐसा तो नहीं है। अधिक न सही तो एक एक सती, सूरमा प्रत्येक छोटे से छोटे गाँव में भी मिलेगा, और उन्हीं ऐसे अनेक सुदृढ़ स्तम्भों के सहारे पृथ्वी टिकी हुई है। वे बोली कि देवेश ! संसार को इस भीषण प्रगति में भी अपने यतीत्व, सतीत्व और शौर्यत्व को अचुत्य बनाये रहने वाले मानवी देवों का दर्शन भी मेरे लिये विशेष शान्ति का कारण होगा।

घर में तीन प्राणी थे, दो भाई और बड़े भाई की स्त्री। दरिद्री नारायण का यह छोटा सा परिवार जनता की दृष्टि में दीन, हीन, निरक्षर एवं दुर्भाग्य का प्रतीक था, कारण रोज-रोज की मेहनत मजदूरी और कृषि कर्म में एक दिन का विश्राम भी उन के भूखे रह जाने का निश्चय था। किन्तु उनकी कल्पना में उन्हें कोई अभाव नहीं था वे अपने को पूर्ण सुखी मानते थे।

दोनों भाइयों के मानस क्षेत्र में पवित्रता, साहस, शौर्य, धैर्य, और क्षमा का चरम विकास था, और कर्त्तव्यशीलता तो उनमें विधाता ने कूट कूटकर भरी थी, दोनों सहोदर तो थे ही। पत्नी में पतिव्रत की प्रतिभा और कर्तव्य पालन में दृढ़ता, ये दो विशेष गुण थे, स्त्री जाति में जहाँ यह गुण होते हैं वहाँ अन्य अपेक्षित गुणों का उदय होना अधिकाँश में सम्भव है।

एक दिन भगवान् शंकर पार्वतीजी सहित साधु वेश में जगती के तापों से झुलसते हुए जीवों को अपने उपदेशामृत से शाँति वितरण करने के लिये चल दिये, विचरण करते करते जब संध्या का समय हुआ तो पार्वती जी बोली कि नाथ! यदि आप स्वीकार करें तो आज इस ग्रामीण प्रदेश में ही विश्राम कीजियेगा। ठीक है, ऐसा कहकर शिवजी पास ही की एक छोटी सी बस्ती की ओर चल दिये, संयोगवश उन्हीं दरिद्र नारायण के यहाँ इनके रजनी विश्राम का सुयोग लगा। अतिथियों को आदर सहित ठहरा कर राम मनोहर भीतर गये और अपनी स्त्री से बोले कि दो मेहमान आये हुए हैं उनके खाने के लिए क्या करोगी? उसने कहा कि तुम्हें मालूम है आज तीन दिन से लला (तुम्हारे भाई) की आँखें आ जाने के कारण तुम्हारा मजूरी से ही काम चल रहा है। फिर थोड़े से घी के बिना सूखे आटे से अतिथियों का सत्कार कैसे हो सकेगा। दो थालियों में से एक थाली ले जाकर किसी बनिया के यहाँ डालकर घी ले आओ तो काम बन जावेगा। पत्नी के आदेशानुसार ही अतिथियों का सत्कार किया गया, फिर सब सो रहे।

राधेलाल की आँखों में दर्द बड़े जोर से हो रहा था, और वह मारे वेदना के आते स्वर में अम्मा, भाभी, दादा, आदि नामों से पुकार रहा था, राम मनोहर की स्त्री जाग पड़ी और राधे के पास जाकर बोली, लला, आज तो तुम बुरी तरह रो रहे हो, आँखों को दाब कर सो जाओ। राधे बोला भाभी कैसे दाबूँ, किसी करवट चैन नहीं। तब तो भाभी उसकी आँखों को अपने वक्षस्थल से दबा कर (माता जिस प्रकार पुत्र को रोने से चुपाती है) शाँत करने का उपक्रम करने लगी। कुछ देर इस आनन्द मय वात्सल्य प्राण तत्व का आश्रय पाकर राधे को चैन मिला, और सो गया। भाभी भी यह सोच कर कि थोड़ी देर में इसकी नींद उचट न जाये, उसके साथ ही पड़ रही। अंतिम पहर की शाँति दायिनी वायु के झकोरों से उसे भी नींद आ गई,

राम मनोहर प्रातः 4 बजे उठे और देखा, मेरी स्त्री राधे के साथ सोई हुई है, वे हल और बैलों को लेकर खेतों में जुताई करने के लिये चल दिये, सोचा, रोज की तरह यह सवेरे उठकर मेरे लिये खाना बनाकर ले ही आयेगी, खेत इसे मालूम हैं अभी क्यों जगाऊँ।

राम मनोहर के जाने के पश्चात भगवान शंकर महारानी शिवा से कहने लगे कि देखो, यती और सती दोनों की संयम पराकाष्ठा को। कलियुग के अंतर्गत यह सतयुग का साक्षात चित्रण। चलो, अब दोपहर को राम मनोहर के शौर्यत्व को देखना। हल चलाते हुए हलवाहे की टकटकी बराबर गाँव की ओर लगी रही, लेकिन आज ठीक दोपहर होने को आया वह अभी तक कलेउ (भोजन) लेकर नहीं आई, जब सब के बैल हलों में से छूटने लगे तो राम मनोहर ने भी अपने बैलों को चरने के लिए छोड़ दिया, और घर के लिये चले आये।

घर आकर राम मनोहर ने देखा, दोनों देवर और भावी उसी अचेत अवस्था में पड़े सो रहे हैं। उन्होंने सोचा रात भर इसकी आँखों में दर्द होने के कारण यह भी न सो सकी होगी, सोने दो। जगाना ठीक नहीं, चौका आदि ठीक ठाक कर के राम मनोहर ने नहाया, फिर रोटी बनाई खाई। तब वे उन्हें जगाने को पहुँचे, ठीक उसी समय महादेवजी पार्वती को लेकर इस क्षमा स्वरूप शूरवीर को देखने के लिये आये। राममनोहर अत्यन्त शाँत भाव से स्त्री को जगा कर कह रहे थे कि अब उठ बैठो तो मैं रोटी खाकर फिर खेतों पर चला जाऊँ, चौका सूना रहेगा। राम मनोहर की स्त्री उठी और अपने स्वामी से अपने देर तक सोते रहने की माफी माँगने लगी, उसकी भाषा में भी भोलापन था। राधे की आँखें भी अब कुछ कुछ ठीक ठीक थीं, उठकर दोनों भाइयों ने थोड़ा बहुत भोजन किया और अपने आवश्यक कामों में लग गये।

महारानी पार्वती जी कहने लगी, धन्य है प्रभो? वास्तव में यही है पृथ्वी के खम्भ इसी प्रकार सभी मानव समुदाय का हृदय निष्पाप हो जाये तो निःसंदेह कलियुग नहीं, सतयुग ही कहा जाएगा।


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