सतयुग सम्पादक का परिचय

January 1942

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वेद मूर्ति श्रीमान पं. ऋषिराम जी शुक्ल लक्ष्मी और सरस्वती दोनों के ही वर पुत्र हैं। आत्म विद्या की खोज और चर्चा का विषय आप के जीवनेतिहास में नयी घटना नहीं है। प्रौढ़ावस्था से ही आप आत्मा की पुकार सुनने के लिए आतुर रहे और अब उतरती अवस्था में स्वाभाविकतया आपके पूर्व पुराने विचार परिपक्व होकर अध्यात्मिक मार्ग के पथिकों को सुस्वादु फल दे रहे हैं। प्रस्तुत ‘सतयुग‘ अंक आपकी कल्याण कारिणी मनोवृत्ति का शोषक और प्रकाशक है।

आप के पूर्वजों में पं. नैनसुख जी दीवान, ऊँच गाँव, जिला उत्राव (संयुक्त प्रान्त) के अधिवासी थे। घटनावश जब वह नागपुर आये तो उनके शौर्य वीर्य के प्रति आकृष्ट होकर महाराज भोसले ने उन्हें दीवान पर नियुक्त किया था। कालान्तर में उनकी बुद्धिमता और परिश्रम शीलता का विशेष परिचय या दरबार ने उन्हें वैतूल जिलार्न्तगत 84 गाँवों का इलाका जागीर के रूप में प्रदान किया जो वर्तमान में शाहपुर (वैतूल) C.P के नाम से प्रसिद्ध है।

यह इलाका माफी जागीर के रूप में दिया गया था और महाराज भोसले के राजत्वकाल तक आरम्भिक अवस्था में ही कायम रहा। आगे कालक्रम से इसमें अनेक परिवर्तन होते रहे और अब वह जागीर न रह कर माल गुजारी करार दे दी गई तथा गाँव भी संख्या में मात्र 57 रह गये हैं।

श्रीमान पं. ऋषिरामजी इसी प्रतिष्ठित घराने के वर्तमान मुख्य प्रतिनिधि और स्वत्वाधिकारी हैं। इनके पूर्व पुरुष जिस भाँति अपने वीरत्व और वदान्यता आदि गुणों में अद्वितीय थे उसी भाँति वंशानुक्रम के अनुसार आप में भी उनका प्रादुर्भाव हुआ है। आप भारद्वाज गोत्रोत्पन्न, शुक्ल वंशीय कान्य कुब्ज ब्राह्मण हैं। पूर्वजों की कीर्तिलता के बीच आपने अपनी उज्ज्वल कीर्ति का जो नया वितान ताना है, उसने इस घराने की प्रतिष्ठा में चार चाँद लगा दिए हैं।

पुस्तक प्रेम आपकी नस नस में समाया है, विद्वानों और गुणी जनों को देख कर आप उत्फुल्ल हो उठते हैं। दुखी और अपाहिजों के लिए स्वदेश और स्वभाषा उन्नति के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सात्विक दान के नाम पर आपकी मुट्ठियाँ सदैव पर्यन्त खुली रहती हैं। आत्म विज्ञापन के भाव का अभाव होने से भले ही संवाद पत्रों की दुनिया आप को न जानती हो पर कितने ही पत्रकार और विद्वान जन आप में अटूट अनुराग रखते हैं।

अध्यात्म विषय में आपकी प्रीति और प्रतीति दोनों हैं। आपका कथन है कि “जब तक देश पुनः आत्मविद्या की ओर यधावित नहीं होगा तब तक इसके बन्धनों की प्रच्छन्नता नाम शेष नहीं हो सकती पूर्व के अध्यात्मिक सूर्य का एक बार फिर भूतल व्यापी प्रकाश होकर रहेगा और वह स्वर्ण संयोग विश्वास और भावना के एक दम निकट है” ऐसे उच्च भावों के आप पोषक हैं।

राम रूपी सत्य और रावण रूपी असत्य के भेद को सम्यक् रूपेण अनुभव कर आप सत्य अर्थात् ब्रह्म स्वरूप के एकान्त पुजारी और प्रचारक ‘सत्युगाँक’ के सम्पादन और सहायता का गुरु भार ग्रहण कर देखा जाये तो आपने राम रूप सत्य का ही समर्थन किया है। आप कहते हैं सतयुगी भावना के पोषण से ही मानव सतयुगी आचरण पर कटिबद्ध होगा और तब ‘सतयुग‘ का प्रवर्तन होने में क्षण काल विलम्ब नहीं हो सकता।


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