तप से ही इच्छित फल की प्राप्ति होती है। पूर्वकाल में साधारण मनुष्यों ने तप करके बड़े बड़े महत्व प्राप्त किये थे। रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद ने अपने शीश तक को तिलाँजलि देकर चिरकाल तक एकनिष्ठ तप किये थे, तब कहीं उन वरदानों को प्राप्त किया था, जिनके कारण वे इतने प्रतापी बने। भस्मासुर ने कितना प्रचण्ड तप किया था, हिरण्यकश्यप तप के बल से ही अमर बना फिरता था। पार्वतीजी ने उग्र तप करके शिव से विवाह किया। विश्वामित्र साधारण राजा से बढ़कर ब्रह्मर्षि के पद तक तप द्वारा पहुँचे। भागीरथ तप द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाये। आज भी जितने श्री- सम्पन्न और प्रतापी पुरुष दृश्यमान हो रहे हैं, वे पूर्व तप के कारण ही सुख भोग रहें हैं, गीता में कहा है कि -”धीनाना श्रीमताँगेहे याग भ्रष्टों भिजायते।”
कल्याण मार्ग तप ही है। ध्रुव ने तप करके परमपद को पाया था, शिवजी तपोबल से ही कण्ठ में कालकूट धारण किये हुए है। शेषजी तप की शक्ति से पृथ्वी का भार उठाये हुए हैं। बड़े बड़े महान् कार्यों की बात छोड़कर छोटे से छोटे साधारण व्यापारिक एवं व्यवहारिक कार्यों पर ध्यान दिया जाय तो प्रतीत होता है कि तपस्वी कृतकार्य होते हैं और आलसी दुर्भाग्य का रोना रोते हैं। उद्योग, प्रयत्न, लगन का नाम ही तप है। यह तप जितनी श्रद्धा और निष्ठा के साथ होता है, उतनी ही सफलता की अधिक सम्भावना रहती है।
जितना महान् कार्य पूरा करना हो, उतना प्रचण्ड तप करने की आवश्यकता होती है। जब कृष्णावतार हुआ था, तो देवता लोग ग्वाल-बालों के रूप में आ छिपे थे, सुर बालाओं ने भगवान का लीलामृत पान करने के लिए गोपियों में जन्म लिया था। गोपियों के पति जब उन्हें समझाते थे कि, कृष्ण के रास मण्डल में जाने से हमारी कुल कानि घटती है, गृहस्थी के काम काज में हानि होती है, घर वाले नाराज रहते थे, पर गोपियों ने किसी की परवाह न की। क्योंकि वे साधारण स्त्रियाँ नहीं थी, उनका कर्तव्य लोकेतर था, वे साधारण औरतों की अपेक्षा उच्च आत्माएं धारण किये हुए थीं, इसलिए उनने अपने जन्म धारण का मूल उद्देश्य ध्यान रखा और अनेक आपत्तियां सहती हुई भी ब्रज बिहारी से पृथक् न हुईं। रामावतार में अनेकों बानर अपना कामकाज छोड़ कर लंका के युद्ध में बिना किसी वेतन, पुरस्कार, लोभ लालच या इच्छा के प्राणों का मोह त्याग कर लड़ने के लिए पहुँचे थे। उन बानरों के भी स्त्री बच्चे होंगे, कुटुम्ब परिवार होगा, व्यापार व्यवसाय होता होगा, प्राणों का मोह होगा, किन्तु इन सब मोह ममताओं को उनने तिलाँजलि दे दी और लाल बुझक्कड़ जिसे ‘आगा पीछा सोचना’ कहते हैं, उसको मस्तिष्क में रत्ती भर भी स्थान नहीं दिया। कारण यह था कि वे बानर साधारण विटप बिहारी नहीं थे, उनकी आत्मा जागृत थी, व दिव्यात्मा अपना जीवन धन्य करने और भू भार हरने के लिए आये थे। उस समय भी अनेकों बानर ऐसे होंगे, जो युद्ध का नाम सुनते ही गश खाते होंगे और अनेकों गोपियाँ ऐसी होंगी जो कृष्ण के नाम से भी घबड़ाती होंगी।
अब युग परिवर्तन का समय आ रहा है। अवतार के स्वागत की तैयारियाँ हो रही है। क्या इसका स्वागत, सत्कार, अर्चन करने के लिए कोई भी दिव्य आत्माएं इस पुण्यभूमि में मौजूद नहीं है? बरात की अगवानी तैयारी के लिए जब इतनी तैयारी की जाती है, राजा के आगमन पर जब इतनी सजावट की जाती है, तो क्या नवयुग और परमात्मा सत्ता के पधारने के समय कुछ भी उत्सव न होगा? आप यह कह कर छुट्टी नहीं पा सकते कि हम अकेले क्या कर सकते हैं, जो सब करेंगे वह हम भी करने लगेंगे। सब की प्रतीक्षा देखना आपको शोभा नहीं देता। क्योंकि जिन पाठकों के हाथ में यह लेख होगा, उनमें ही अधिकाँश देवता रहें होगे। साधारण मूर्ख जनता अन्धी भेड़ों के समान होती है। जब दिन फैल जाता है, तब वह जागती है। किन्तु ब्रह्मवेत्ता यह कह कर छुट्टी नहीं पा सकते कि सब जगेंगे तब हम भी जाग जायेंगे, उन्हें ब्राह्ममुहूर्त में जगना होगा और सूर्योदय से पूर्व उठ कर सन्ध्या वंदन में प्रवृत्त होना होगा। जो जितना ही जागृत है, उसका उतना उत्तरदायित्व अधिक है। परमात्मा ने कृपा पूर्वक जिनके हृदयों में अधिक विवेक दिया है उसका कारण यह है कि उनमें दैवी अंश अधिक है। राष्ट्र रक्षा का उत्तरदायित्व मामूली घसखोदों की अपेक्षा सैनिकों और सेनापतियों पर अधिक है। लड़ाई में कोई देश हार जीत जाये, तो मामूली घसखोदों की अपेक्षा सैनिकों और सेनापतियों की निन्दा प्रशंसा अधिक होती है। जिनके हृदयों में दैवी प्रेरणा का आभास आता है, जो अन्तःकरण में ईश्वर की वाणी सुनते हैं, जिनका आत्मा सत्य नारायण की ओर आकर्षित है, वह अच्छी तरह समझलें कि यह अकारण ही नहीं है। आत्मा की छोटी सी स्फुरण को तुच्छ मत समझिए, उसका निरादर मत कीजिए यह युगवाणी है और ईश्वरीय संदेश है। जगदीश्वर अपनी प्रेरणा उन्हीं आत्माओं में करते हैं, जो इसकी पात्र होती हैं।
यदि आपकी आत्मा सत्य, प्रेम और न्याय का सन्देश सुनाती हो और ऐसा प्रतीत होता हो, तो भगवान हाथ पकड़ कर आपको अपने महान् उद्देश्य की पूर्ति का सन्देश वाहक बनाना चाहते हैं, तो हे पाठक! भूल मत करना! आलस्य और प्रमाद की उलझन में मत पड़े रहना, वरन् गोपियों की तरह सब बन्धनों को छोड़ कर मुरली की मधुर तान सुनते ही दौड़ पड़ना और पुकारना “नाथ! मैं तुम्हारा हूँ ! तुम्हारे आदेश को पूरा करने आया हूँ। तुम्हारी वाणी की ध्वनि पर थिरकता हुआ आता हूँ। प्रभो, मेरा कुछ नहीं है, जो कुछ है तुम्हारा ही है। तुम्हारी वस्तु तुम्हें सौंपने में मुझे कुछ हर्ज नहीं है। आप अवतरित हो रहे है मुझे आपकी बधाई बाँटने में आनन्द है। आप मेरे घर आ रहे हैं, मैं आपकी सूचना सर्वत्र पहुंचायें देता हूँ।”
इस पाप ताप परितप पृथ्वी पर अब सत्य धर्म की स्थापना होगी। हाहाकारी वेदना से जलते हुए प्राणियों को सन्तोष की साँस लेने का अवसर मिलेगा। इस गंगावतरण के स्वागत के लिए हे नान्दीगणें! प्रसन्न हो जाओ। इस कृष्ण जन्म के लिए हे बाल गोपालो! उत्सव मनाओ। उस रामावतार के लिए हे देवताओं! पुष्प बरसाओ। हे जागृत आत्माओं! इस आगामी युग का सन्देश दूत बना कर प्रभु ने तुम्हें इस भूतल पर भेजा है। अपना कर्तव्य पालन करो। प्रभु की इच्छा पूरी होने दो। लोभ मोह के बन्धनों में अपने को जुटा दो। इस एक ही कार्य में लग जाओ। भगवान् सत्य आप की जय हो, भगवान प्रेम आपकी जय हो, भगवान न्याय आप की जय हो। ऐसी ध्वनि पृथ्वी के कौने कौने में गुँजित करने में लग जाओ। यह कर्तव्य की पूर्ति एक महान तप है। हे भागीरथों! तप में प्रवृत्त होओ, जिससे स्वर्गीय सुरसरि इस भूलोक पर शीघ्र ही प्रकट होकर मृत प्राणियों के मुख में अमृत टपका दे। तपस्वियों! यह कार्य के तप के द्वारा ही पूरा होगा। इसलिए उठो तप में प्रवृत्त हो जाओ।