(विद्याभुषण पं. मोहन शर्मा, विशारद, पूर्व सम्पादक -”मोहिनी”)

January 1942

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इस सुविशाल जगतीतल में उस परम स्वरूप परमात्मा को मानव स्वभाव ने अनन्त रूपों में अनुभव किया और इसीलिए उसके नाम पर अनन्य धर्म, पन्थ, मत-मतान्तर आदि की सृष्टि होती गई अब तक संसार व्यापी गणना द्वारा जिन प्रमुख धर्मों और मजहबों को प्रगति गामी तथा अस्तित्व सम्पन्न माना गया है, उनकी समवेत संख्या 96000 के लगभग है। इनमें 800, अकेले भारत वर्ष में ही प्रचलित हैं और शेष का आँकड़ा भारतेतर अन्य देशों से सम्बन्धित है। इन तमाम धर्मों के धर्म शास्त्रों और विधि व्यवस्थाओं का विवेक किसी एक व्यक्ति के पक्ष में सम्भव नहीं पर संसार प्रसिद्ध कुछ धर्मों के सम्बन्ध में लोगों ने अध्ययन पूर्वक अपने-अपने निर्णय कायम किये हैं। उनके आधार पर निर्विरोध स्वीकार करना पड़ता है, कि संसार के कतिपय प्रमुख धर्म, जहाँ ईश्वर के ईश्वरत्व के लिये अपनी कोई कसौटी रखते हैं, वहां काल और युगों की योजना को भी उनमें अपनी-अपनी गणित या लेखे जोखे के अनुसार मान्य दिया गया है। यद्यपि भिन्न धर्मों की युग योजना और युगों की संख्या में साम्य दिखाई नहीं देता पर एक “कृतयुग“ जैसे सत्य धर्म की प्रतिष्ठा के श्रेष्ठ युग का कई ने प्रबल रूप से समर्थन किया है। अर्थात् एक युग ऐसा अवश्य माना है, जिसमें वेद विद्या के धनी सनातन धर्मावलम्बियों के प्राथमिक ‘सतयुग‘ जैसी सत्य विकासी घटनाएं घटित होती हैं।

धर्म ग्रन्थों और काल गणना सम्बन्धी आधुनिक साहित्य का परिकलन करने से यह निर्विवाद तय है, कि प्रथम कृतयुग- 1728000 वर्षों का होता है। इस युग में मनुष्यों की बुद्धि, सत्य और शुद्ध रूप हो जाती है,-वे युगीय भावना से प्रणोदित होकर सत्य व्रत धारण करते और सत्याचरण को यथा सर्वस्व मान कर देह यात्रा चलाते हैं कृतयुग आरम्भ होने के पूर्व दुष्ट दृष्टि, पापाचारी और दुर्बल जनों का एकान्त लोप हो जाता है अरण्य में दावानल सुलगने पर जिस भाँति वहाँ का क्षेत्र एक दम स्वच्छ और परिष्कृत हो जाता है, उसी भाँति कृतयुगी वातावरण प्रसारित होने के पूर्व पृथ्वी अपने युग व्यापी बोझ को हलका और कम वजन हुआ अनुभव करती है। मनुष्य और प्रकृति के लीला विलास में तब ‘सत’ को प्रधानता स्थान पाती है, जिससे सत्य, धर्म और आयु मर्यादायें बढ़ोतरी को प्राप्त होती हैं। इस युग में सत्य-धर्म- मर्यादा पालक रूप से भगवान नर देह में आते है, उनके पुण्य अवतरण से नवीन युग धर्म की स्थापना होकर सृष्टि से दुख, शोक, रोग, आदि कल कल्मष का एकान्त विनाश और तिरोभाव हो जाता है। नर भूमि, देवताओं की आवास स्थली का रूप ग्रहण करती है।

जैन ग्रन्थों में चतुर्थ काल को कृतयुग जैसा बताया गया है। यद्यपि हमारे युगीय क्रम और जैनों के काल क्रम में आकाश पाताल का अन्तर है, पर दोनों की काल घटनाएं सत्य के असल स्वरूप को इंगित कराती है। जैन ग्रन्थों के मतानुसार चतुर्थ काल में युग प्रवर्तक महान विभूतियों के आगमन से सृष्टि पंच-आश्चर्य पूर्ण होती है। यह पंच आश्चर्य, संसार को युग परिवर्तन का जीवित सन्देश देते हैं इनका सार्वत्रिक रूप से आभास हुए बिना, युग धर्म बदलने के विश्वास को महत्व नहीं दिया जाता। अतः जैनत्व के अनुसार मानना पड़ेगा कि अनति दूर भविष्य में, जैसी कि कृतयुग आगमन-संबंधी चर्चा आज देश में चल पड़ी है, सत्य के प्रतिनिधि रूप से ऐसा कोई भी काल या नवीन युग जल्द ही आने वाला नहीं है। क्योंकि सृष्टि में कही भी पंचाश्चर्यों की अद्यावधि झलक तक नहीं दिलाई देती। यदि संवत् 2000 के बाद आधुनिलाकृतयुग वादी लोगों की कृतयुगीय कल्पना भाग्य से फलीभूत हो रहे तो उस अवस्था में जैनियों के उक्त शास्त्रोक्त सिद्धान्त की फिर कोई कीमत नहीं रहेगी इधर गये 10 वर्षों में संसार के उज्ज्वल भविष्य को लेकर देश विदेश के ज्योति विज्ञानियों ने अनेक प्रकार से आशा जनक और आश्चर्य पूर्ण कथन किये हैं और कई भविष्य वाणियाँ काल क्रत की कसौटी पर खरी और सत्य भी उतरी हैं। साधारण बुद्धि से विचार करने और संसार की साम्प्रतिक गति विधि को देखते हुए जान पड़ता है कि अनागत काल में एक संसार व्यापी परिवर्तन अवश्य होकर रहेगा। आज की जागतिक उथल पुथल कल की शान्ति का साम्राज्य का निर्देश कराती है महायुद्ध की विभीषिका और मानव की दानवी प्रेरणाएं मानों पुकार-पुकार कर कह रही है कि संसार आज के अन्यथा प्रयोगों और आचरणों से त्रस्त हो उठा है। उसकी संरक्षा के लिए शान्ति का महा मन्त्र पढ़ाने वाली किस महा महिमशाली विभूति का आगमन हो जिससे आज का युग धर्म- सत्य धर्म में बदल जाए, प्राणी मात्र सुख, शान्ति और स्वच्छन्दता में रमण करने लगें, अतिवृष्टि अनावृष्ट, दुष्काल और रोग मरी आदि का नाम शेष हो जाये।

कृतयुग-कल्पना उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त हो रही है। सदाचार, शिष्टाचार और सत्य के समर्थक कृतयुग लाने के लिये मनुष्यों की सत्योन्मुखी बुद्धि को न्योता दे रहे हैं। सत्य परायणता और सत्याचरण ही वास्तविक जीवन है। जीवन और जीवन की सार्थकता चाहते हैं, वे सत्य धर्म की उपासना करें। सत्य धर्म मनुष्य को ईश्वरोन्मुख बनाता है, दूसरे शब्दों में सत्य ही भक्ति और मुक्ति है। अतः सत्य के धारण और सेवन द्वारा मनुष्य पहले अपने को अधिकारी और पात्र बनावें- तब कृतयुग कल्पना का सत्य कार्य के परिणत होना दुःसह और दुष्कर नहीं है। ईश्वर कृतयुग वादियों की कृतयुग कल्पना सफल करें, जिससे आज का दुख रूप संसार सुख रूप हो जावे। एवमस्तु।

कुरान शरीफ और हदीस में


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