सत्य का प्रकाश

January 1942

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(ऋषि तिरुवल्लुवर)

मैंने इस दुनिया में बहुत वस्तुएं देखी है और बहुत अनुभव किया है परन्तु ऐसी कोई चीज मुझे नहीं मिली जो सत्य से बढ़ कर हो। दुनिया में बहुत तरह के प्रकाश को ही प्रकाश कहते हैं, कदापि मिथ्या भाषण न करना, मनुष्य यदि इस धर्म को पालन करता रहे तो फिर उसे अन्य धर्मों का पालन करने की क्या आवश्यकता है? शरीर पानी से शुद्ध हो सकता है, पर मन की पवित्रता बिना सत्य भाषण के नहीं हो सकती। जिसका हृदय सत्य से पवित्र है, वह अन्य हृदयों पर शासन करेगा। वह श्रेष्ठ दानी हैं और महान् तपस्वी है, जो सदैव सत्य परायण है। सिद्धियाँ उसके चरणों में लोटती फिरेंगी। मनुष्य की इससे बढ़कर और क्या कीर्ति हो सकती है कि उसे सत्यवादी कहा जावे।

सचाई वह है जिसके साथ मृदू भाषण और हित कामना भी हो। ऐसी सचाई जिससे दूसरों को हानि पहुँचती हो उससे तो वह झूठ अच्छा जिससे दूसरों का हित होता है। जिस बात को कहने में तुम्हारा मन झिझकता है, जिसका कहना अनावश्यक समझते हो या जिससे मिथ्यात्व का होता है, उसे मत कहो क्योंकि झूठ बोलने से हमारी ही आत्मा तुम्हें श्राप देंगी।


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