कलियुग का घातक भ्रम

January 1942

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(एक यूरोपियन विद्वान का दृष्टिकोण)

हिन्दुस्तान में रहते हुए मुझे एक लम्बा अरसा हो गया। इस बीच में मैंने हिन्दू धर्म ग्रन्थों का बड़ी रुचि के साथ मनन किया है और कितनी ही बातें ऐसी पाई हैं, जो अन्य धर्मों की पुस्तकों में मिलना मुश्किल हैं, हिन्दू धर्म को मानव धर्म कहा जा सकता है। यह एक आचार शास्त्र है, जो मजहबों की बनिस्बत कही ऊँचा है। सनातन वैदिक धर्म इतना परिपूर्ण है कि उसमें दोष निकालना बहुत कष्ट साध्य है।

मनुष्य को उसके ईश्वरत्व का बोध कराने, आत्मा को निरंतर उन्नतिशील बनाने और आशा, उत्साह एवं स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली शिक्षाओं से हिन्दू धर्म भरा पूरा है। क्या वेद, क्या उपनिषद्, क्या दर्शन, क्या अन्य शास्त्र सब में ऐसे प्रवचनों का भंडार भरा हुआ है, जो आत्म शक्ति को प्रेरणा देकर मनुष्य को कर्तव्य धर्म पर लगाने वाले हैं, जहाँ कहीं भविष्य कथन का प्रसंग आया है, वहाँ भी ऐसा ही आश्वासन दिया गया है कि बुराई के बढ़ते ही उसका नाश कर दिया जायेगा। अधर्म की झन्डियों को अधिक नहीं बढ़ने दिया जायेगा।

भारतीय खगोल विद्या का एक बार मैं अध्ययन कर रहा था, तो उसमें युगों का प्रसंग आया। मैंने समझा कि यह एक माप दंड है और जैसे हजार, लाख, करोड़ शब्दों के अंतर्गत एक नियत संख्याओं का बोध होता है, वैसे ही समय की लम्बी अवधि को व्यवहार में सुगम करने की वजह से युगों का पैमाना बनाया गया है। इस गणित परिपाटी से मुझे प्रसन्नता ही हुई।

बहुत दिनों बाद कुछ पुस्तकों में मैंने ऐसा उल्लेख पाया कि ‘वर्तमान समय में कलियुग है और इस कलियुग में बुराइयों का ही साम्राज्य रहेगा। भलाई के तीन पाँव टूट जायेंगे और लँगड़ी लूली किसी कोने में पड़ी सड़ती रहेगी। इस युग में शैतान का राज्य होगा, लोग झूठ बोलेंगे, चोरी करेंगे, आपस में लड़ेंगे-भिड़ेंगे, बीमार रहेंगे, गुलाम रहेंगे मतलब यह है कि सिर्फ बुराइयाँ ही बुराइयाँ दिखाई देंगी और उस कलियुग नामक किसी भूत पिशाच का राज रहेगा, जो ईसाई धर्म में वर्णित शैतान की तरह है। यह ‘कलियुग‘ भले आदमियों को भी पकड़-पकड़कर पाप कर्मों में लगा देगा, अच्छे कामों को जबरदस्ती मिटा देगा और धर्म की उन्नति न होने देगा।” इस तरह तो मैं इसे किसी लेखक की सनक समझता रहा, पर जब कई बड़ी बड़ी पुस्तकों में भी यही बातें पढ़ी, तो मैं बहुत झुँझलाया कि हिन्दू धर्म जैसे विशुद्ध प्रेरक विज्ञान में यह गड़बड़ कहाँ से आ मिली?

शंका का निवारण करने के लिए मैंने अपने कई संस्कृतज्ञ मित्रों से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि कलियुग में शैतानी राज होने की बात बहुत मशहूर है, उसका बहुत प्रचार हुआ है और आम तौर से जनता यह विश्वास करती है कि इन दिनों कोई भला काम नहीं हो सकता ईश्वर की इच्छा है कि अब बुराइयाँ ही बुराइयाँ रहेगी, धर्म की कोई पूँछ न रहेगी। यह खयालात सिर्फ जाहिलों और अन्धविश्वासियों के ही नहीं हैं, बल्कि पढ़े-लिखे ज्ञानी और पण्डित भी इस बात पर यकीन करते हैं।

इस समाधान से मेरे दिल को बहुत चोट पहुँची और अब तक यह नहीं समझ सका हूँ कि हिन्दूधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों से बिलकुल विपरीत, बिलकुल अनमिल, यह सत्यानाशी धारणा कहाँ से घुस पड़ी और वे कौन लोग थे जिन्होंने धर्म ग्रन्थों तक में इस बात को शामिल कर लिया। मनोविज्ञान शास्त्र का मैं पण्डित तो नहीं हूँ पर बहुत कुछ इस सम्बन्ध में जानने का मेरा विनम्र दावा है। संसार की सभी जातियों की वहबूदी और नेस्ती के कारणों का मैंने अध्ययन किया है, इस आधार पर मैं कह सकता हूँ कि सर्वत्र एक ही नियम काम में आया है आता रहेगा कि ‘मनोवृहित के कारण उत्थान पतन होता है। -”जहाँ के लोगों के दिमागों में उठने-चलने, बढ़ने और महत्व प्राप्त करने के संकल्प होते हैं, वे ऊँचे उठते जाते हैं। किन्तु जिस देश या जाति में निराशा, उदासीनता, हतोत्साह, भाग्यवाद, आलस्य और भविष्य के अन्धकारपूर्ण होने के विश्वास होते हैं, उसे पतन के गड्ढ़े में गिरना पड़ेगा, चाहे वह कितने ही उन्नत स्थान पर स्थित क्यों न हो।

मैंने यह भी देखा है कि जब किन्हीं समर्थ लोगों को यह आवश्यकता हुई है कि दूसरों को अपने वश में रक्खें, तो उन्होंने सर्वत्र उन्हें, उन्हीं के मानसिक बन्धनों में बाँधा है। क्योंकि बलात् किसी को अधिक समय तक बन्धन में नहीं रखा जा सकता। यदि कोई पशु स्वेच्छा से बन्धन स्वीकार न करे, तो उसे केवल जबरदस्ती से आधीन नहीं रखा जा सकता। शूद्रों और दासों को इसलिए बन्धित रखा जा सका है कि, पहले उनकी मनोवृत्ति में दासता घूँसा दी गई है। पुरुष जाति ने स्त्रियों के मन में भी इसी प्रकार भाव घुसाये हैं। कई देश अब भी ऐसे पाये जाते हैं, जहाँ यह कार्य सफल नहीं हुआ है, वहाँ स्त्रियाँ पुरुषों के समान काम करती हैं और कही-कहीं तो बिल्कुल उलटा है। पुरुष तो घर का काम काज स्त्रियों की तरह करते हैं और स्त्रियाँ राज-दरबार बहादुरी, कमाई तथा लड़ाई के काम करती हैं। वहाँ की स्त्रियों में पुरुषत्व और पुरुषों में स्त्रीत्व का स्वभाव पाया जाता है।

इस मनोवैज्ञानिक सत्य, कलियुग की निराशा जनक भावना और करीब एक हजार वर्ष की भारतीय पराधीनता को जब में एक स्थान पर रख कर एक साथ विचार करता हूँ, तो ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू जाति की नसों में इस जहरीले विष की पिचकारी किसी बड़े भारी कूटनीतिज्ञ द्वारा दी गई होगी, जो हिन्दुस्तानियों को बहुत लम्बी मुद्दत तक पराधीन रखना चाहता होगा। हो सकता है कि इस भावना को फैलाने में कोई बड़ा भारी गुप्त षड़यंत्र छिपा हुआ हो और उसे धर्म-ग्रन्थों का आश्रय मिल जाने के कारण अब तक पहचाना न जा सकता हो।

मेरे सन्देह की पुष्टि इस बात से भी होती है कि कलियुग में पतन ही पतन होने की चर्चा केवल उन्हीं पुस्तकों में पाई जाती है, जो एक हजार वर्ष से कम समय की ही लिखी हुई सिद्ध होती हैं। हिन्दु सभ्यता के प्राचीन ग्रंथों में युगों का उल्लेख तो है, पर उसका वर्णन काल-माप की तरह ही किया गया है। जैसे साल, छमाई, महीना, पक्ष, सप्ताह आदि है, उसी प्रकार युग भी एक गणना के बोधक है। ऐसा पूर्व कालीन ग्रन्थों से विदित होता है।

चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का कलियुग होगा और इतने दिन तक अन्धकार रहेगा। यह विचार-धारा अत्यन्त ही झूठी, बेहूदी, बुद्धि रहित और खतरनाक है। यदि वर्तमान पीढ़ी ने बौद्धिक क्रान्ति करके इन आत्मघाती ख्यालों को जड़मूल से उखाड़ कर न फेंका, तो भविष्य बड़ा ही दुखपूर्ण बना रहेगा। क्योंकि परिस्थितियाँ वैसी ही सामने आती हैं, जैसा कि लोगों का विश्वास होता है।

ज्योतिष गणित के हिसाब से तो वह युग-काल बिल्कुल गलत है। क्यों कि ज्योतिष के अनुसार सृष्टि के आदि से अब तक 6 मन्वन्तर और 28 चतुर्युगी व्यतीत हो चुकी हैं। 72 चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है॥ इस प्रकार 6 मन्वंतरों में 32 चतुर्युगी और इस सातवें वैवस्त्रत मन्वन्तर में 28 चतुर्युगी, इस प्रकार वर्तमान कल्प में 460 चतुर्युगी व्यतीत हो चुकी है। पृथ्वी की आयु करीब एक करोड़ वर्ष मानी जाती है। युगों का क्रम इस प्रकार है कि - कलियुग से दूना द्वापर, तीन गुना त्रेता और चार गुना सतयुग होता है। गत 460 चतुर्युगी यदि एक करोड़ वर्ष में बाँटी जायँ, तो एक चतुर्युगी 21739 वर्ष की होती है। चतुर्युगी में दसवाँ भाग कलियुग का है, इसी तरह कलियुग 2173 वर्ष का हुआ। विक्रमी संवत् से यदि कलियुग का आरंभ माना जाये, तो वह समाप्त होने को है। क्योंकि पृथ्वी की आयु अधिक से अधिक एक करोड़ वर्ष कूती गई है। वह इससे कम ही होगी, तो यह 171 वर्ष भी कम हो जावेंगे। दूसरे यह वर्तमान चतुर्युगी भी समाप्त होने को है, इसका भाग कम करने पर भी यह वर्ष घटेंगे। तीसरे युग के आरम्भ और अन्त भाग में सन्धि के लिए कुछ वर्षों छोड़नी पड़ती हैं। इस हिसाब से भी वह एक सौ के करीब वर्ष घटाने पड़ेंगे। मेरा ज्योतिष-विद्या सम्बन्धी ज्ञान कम है, इसलिए यदि कोई गणितज्ञ ठीक-ठीक हिसाब लगावेंगे, तो उन्हें मानना पड़ेगा कि वर्तमान कलियुग विक्रम संवत् दो हजार से अधिक का किसी प्रकार नहीं हो सकता। कदाचित कोई यह भी मानता हो कि कलियुग बुरा युग है, तो भी उसे जानना चाहिये कि एक दो वर्ष में इस युग का भी अन्त हो रहा है।

गणित सम्बन्धी यह हिसाब तो अनायास ही मैंने लिखा है, पर मेरा इसके ऊपर कुछ विशेष आग्रह नहीं है। मेरा आग्रह तो तथ्य बात पर है। कोई भी स्वतन्त्र और उन्नतिशील देश यह नहीं मानता कि हम कलियुग में पड़े हुए हैं और हमारा भविष्य अन्धकार पूर्ण है फिर भारतवासी ही इस सत्यानाशी मान्यता को अपनी छाती से क्यों चिपकाये रहें। अब समय आ गया है कि नई पीढ़ी इस बौद्धिक गुलामी का जूता उतार कर दूर फेंक दे और अपने को श्रेष्ठ, समर्थ एवं सतयुगी स्वीकार करें, तभी तो श्रेष्ठता, सामर्थ्य और सतयुग को प्राप्त किया जा सकेगा।


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