(पी. जगन्नाथ राव नायडू, नागपुर)
हृदय के अन्दर स्वार्थपरता और त्याग भावना में सदैव युद्ध होता रहता है। स्वार्थ कहता है कि सब कुछ अपने लिए ही लेना चाहिए, अपने लिए संग्रह करना चाहिए और खुद ही सारी शौक मौज की सामग्रियों का उपभोग करना चाहिए। त्याग भावना कहती है कि संसार हमारा नहीं परमात्मा का है, इस लिए इसकी चोरी नहीं रखवाली करना चाहिए। चौकीदार और माली बनाकर हमें भेजा गया है इसलिए इस वाटिका की रखवाली और सिंचाई करना ही हमारा कर्तव्य है।
यह दोनों विचार मन में बड़े वेग से उठते हैं और आपस में टकराते हैं। कभी एक प्रबल हो जाता है कभी दूसरा। जब मनुष्य दुर्भावनाओं से ग्रसित हो तो समझना चाहिए कि इस समय यह कलियुगी है और जब त्याग भावनाओं का जोर हो तो जानना चाहिए कि अब यह व्यक्ति सतयुगी है।