भक्तों! मैं आ रहा हूँ!

January 1942

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(संसार को ईश्वरीय सत्ता का अमर सन्देश)

“घबराओ मत, मैं आ रहा हूँ,” सुनिए, अन्तरिक्ष को चीरती हुई यह दिव्य आकाशवाणी कितनी साफ सुनाई दे रही है। जिनके कान हों, वे सुनलें। दिशाएं उसकी हुँकारों से गूँज रही हैं, तूफान की तरह सनसनाता हुआ, आँधी की तरह चीत्कार करता हुआ, मेघों की तरह गड़गड़ाहट सुनते हो, पर अवतार के आगमन की हुँकार क्यों नहीं सुनते हो।

अदृश्य लोक से एक प्रवाह उमड़ता हुआ चला आ रहा है। जिनके आँखें हों वे देखलें। सुमेरु पर्वत की तरह आकाश में बड़े-बड़े विशालकाय बादल उठते हुए चले रहे हैं। यह अवतार के आगमन की सूचना है। दिग्गज चिंघाड़ रहे हैं, महीधर काँप रहे हैं, इन्द्र का आसन विचलित हो गया है, आकाश से तड़तड़ाते हुए तारे टूट रहे हैं, भगवती भागीरथी की आयु समाप्त हो गई, आज तो रुधिर के नदी नाले उफान लेते हुए उमड़ रहे हैं। नर मुण्डों को अपने कराल दांतों से कड़-कड़ चबाता हुआ महाकाल, व्योम-भेदी अट्टहास कर रहा है। बहुत दिनों के पीछे - एक युग पश्चात ऐसा अवसर उसे मिला है न ? द्वापर के अन्त में अठारह अक्षौहिणी सेना को उदरस्थ करने के पश्चात अब तक भूख बुझाने का ऐसा अवसर उसे नहीं मिला था। चिर प्रतीक्षा के बाद इस युगान्त में फिर उसे अवसर मिला है, तृप्ति की कैसी ऊर्ध्व डकारें ले रहा है। चामुण्डायें खप्पर भर-भर कर रुधिर पान कर रही है। इस कुहराम को चीरती हुई प्रकाश की एक दिव्य किरण हम तक आ रही है। वह चुपके चुपके कानों में पड़ती है- “घबड़ाओ मत, वह आ रहा है। “

आ रहा है। हाँ हाँ, वह आ रहा है। पाप तापों से तब की तरह जलती हुई वसुन्धरा की छाती को ठण्डी करने के लिए अवतार आ रहा है॥ भगवान भूतनाथ अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर स्वागत की तैयारी में जुटे हुए हैं। सफाई का काम जोरों से हो रहा है। गौरीवल्लभ ने आनन्द से विभोर होकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया है और कल्प-कल्पान्तरों से भरे हुए कालकूट की कुछ बूँद नीलकंठ में से निकाल कर इस पाप पंक के ऊपर छिड़क दी है, ताकि बढ़े हुए झाड़-झंखाड़ जल भुन जायें और कटीली भूमि साफ हो जाये। भूख, रोग, शोक, युद्ध ऐसे कितने ही वीरभद्र अपने आकाशचुम्बी फावड़े लेकर जुटे हुए हैं, ताकि सब और सफाई हो जावे। क्योंकि अवतार आ रहा है। स्वागत के लिए सफाई तो बहुत ही जरूरी है।

मरघट में अपने प्रिय-जन की अंत्येष्टि किया करके उपस्थित जनों में वैराग्य का भाव उदय होता है। सदियों से पली हुई तामसी सभ्यता की आज अंत्येष्टि हो रही है। चिता धू धू कर जल रही है, उसकी लपटें सूर्य चन्द्र तक पहुँचने का प्रयत्न कर रही हैं। चिनगारियाँ उड़-उड़ कर चारों और व्याप्त हो रही हैं। बैठे और खड़े हुए, जागते और सोये हुए, निकटवर्ती और दूर पड़े हुए, सभी तक यह चिनगारियाँ उछट-उछट कर पहुँच रही हैं। सभी को झुलसना पड़ रहा है, किसी की देह फफोलों से खाली नहीं है। अपनी इस चिर-पोषित प्रेमिका तामसी-सभ्यता को भस्म-सात करके विश्व की अन्तरात्मा में वैराग्य का उदय हो रहा है। आज का प्रज्ज्वलित मरघट मानो लाठी लेकर सिखा रहा है कि-आग से खेलने वालो, सावधान! बस बहुत खेल चुके, अब सँभल जाओ। तुम्हें होश में लाने वाला आ रहा है। अवतार आ रहा है।

बेचारा इन्सान, हाड़ माँस की गठरी में बँधा हुआ खिलौना, तारे तोड़ना चाहता है, चन्द्रमा से खेलना चाहता है, काल को पाटी से बाँधना चाहता है, कर नहीं पाता। भैंस को घास चरने के लिए भेजा है केशर के खेतों को खाने के लिए नहीं। जब वह घास को छोड़ कर वाटिका की सुरम्भ हरियाली को चर जाने के लिए चलती है, तब वाटिका का माली चिल्लाता है- “खबरदार! टांगे पैर न बढ़ाना, मैं आ रहा हूँ। “ आज भी कोई हमसे यह कह “बस, बहुत हो चुका। अब मैं आ रहा हूँ।”

आने वाला आ रहा है- वह सचमुच ही आ रहा है। क्योंकि वह अपनी प्रतिज्ञा मैं आप बँधा हुआ है साधुता का पारत्राण करने और दुष्टता के नाश करने की उसकी जिम्मेदारी है। इससे भी और बुरा समय भला फिर कब आवेगा, जिसकी प्रतीक्षा में वह बैठा रहे। अब धर्म का अन्त हो चुका है, प्रतीक्षा की वेला व्यतीत हो चुकी है। पाप और पशुता की वेदना से पीड़ित जगतजननी आद्यशक्ति, हिरण्यगर्भ के समक्ष उत्पन्न हुई, नयनों में से जल वर्षा रही है। प्रभु! उसे आश्वासन देते हुए कह रहे हो- “मैं आ रहा हूँ। स्वार्थ और असत्य का साम्राज्य मिटाने के लिए, प्रेम और सत्य की कलाएं भूलोक में भेज रहा हूँ। अपनी त्रैलोक्य मोहिनी वेणु को यही से निनादित करके प्रबुद्ध आत्माओं में स्फुरणा पैदा करता हूँ। मुक्तों को प्रीति और बद्धों को प्रतीति कराने के लिए प्रकाश की सुनहरी आभा प्रगटाऊँ। हे आद्यशक्ति! रुदन मत करो। मैं प्रतिज्ञा को भुलाऊँ नहीं। जाओ, पृथ्वी पर कह दो कि- मैं आ रहा हूँ।”

‘मैं आ रहा हूँ। यह दिव्य वाणी आज सर्वत्र गुंजित प्रतीत होती है। नद, नाले, वृक्ष, पर्वत, सरिता, सागर, पशु, पक्षी सब से एक ही प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, “मैं आ रहा हूँ।” जब हृदय पर हाथ रखते हैं, तो ‘लप’ ‘उप’ की आवाज सुनाई नहीं देती, वरन् एक दूसरा ही वाक्य समझ में आता है- मैं आ .... ता हूँ। नेत्र बन्द करके मानसलोक झाँकी करते हैं, तो दूर- क्षितिज के पार, मधुर मुरली बजाता हुआ, मन्द मुसकान के साथ वही नट-नागर नीचे उतरता आता दिखाई देता है। वह हाथ के इशारे से हमें आदेश देता है।- मैं। आ आ रहा हूँ। भक्तों! घबराओ मत, मैं आ रहा हूँ।


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