सतयुगी अदालत

January 1942

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(मोहन राज भण्डारी “राज” अजमेर)

सिकन्दर महान् अपनी दिग्विजय के सम्बन्ध में एक बार अफ्रीका पहुंचा। उसकी इच्छा हुई कि मनोरंजन के लिए कुछ दिनों जंगली जातियों का रहन सहन देखने के लिये भ्रमण किया जाय। वह सरदारों की एक टुकड़ी के साथ अन्य प्रदेश में निकल पड़ा। घूमते-घूमते वह एक ऐसे प्रान्त में पहुँचा जहाँ के लोग बड़ी शान्ति से रहते थे और लड़ने झगड़ने का नाम भी न जानते थे। सिकन्दर वहाँ ठहर गया। अपने ग्राम निवासियों को बुलाया और पूछा कि तुम लोगों में या कभी झगड़ा नहीं होता? क्या तुम्हें राज दरबार की जरूरत नहीं पड़ती? ग्रामीणों ने उत्तर दिया कभी कभी झगड़ा हो जाता है उसका पंचायत से फैसला कर लेते हैं। आज भी एक पंचायत है आप उस में शामिल हो सकते हैं।

रात को पंचायत बैठी। एक वृद्ध पुरुष ऊँचे स्थान पर बैठकर न्यायाधीश का काम करने लगा। सिकन्दर दर्शक की तरह एक ओर बैठ गया। झगड़ा यह था कि एक व्यक्ति ने दूसरे से कुछ जमीन ले ली। सौदा हो जाने के बाद उस जमीन में कुछ गड़ा हुआ धन निकला। खरीदने वाला बेचने वाले को वह धन लौटा रहा था उसका कहना था कि मैंने तो जमीन मोल ली थी, न कि यह धन। बेचने वाला कहता था उस भूमिखंड का सारा उत्तरदायित्व मैंने बेच दिया था। मेरा अपना कोई धन उसमें नहीं था, फिर मैं क्या जानूँ यह धन कैसा है, मैं इसे ग्रहण नहीं कर सकता।

दोनों की बातें सुनने के बाद वृद्ध पुरुष चुप हो गया और बहुत देर तक फैसले का मार्ग ढूँढ़ता रहा। अन्त में उसने उन दोनों से पूछा तुम्हारे कोई सन्तान है? “खरीदने वाले ने कहा मेरी एक लड़की है, बेचने वाले ने कहा मेरे एक लड़का है। वृद्ध ने फैसला किया कि तुम अपनी लड़की का विवाह इसके लड़के से कर दो और उस धन को दहेज में दे दो। दोनों ने फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया और झगड़ा मिट गया। सिकन्दर इससे आश्चर्य चकित रह गया, उसकी समझ में उस प्रान्त की शान्ति का कारण आ गया। जहाँ मनुष्य एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं, अपने सुख को धर्म और प्रेम पर न्यौछावर करते हैं, वहीं शान्त रह सकते हैं अन्यथा स्वार्थान्ध होकर मनुष्य नाना प्रकार के कलह कृत्य करता रहता है।

कृतयुग-कल्पना


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