दुःख का कारण

October 1941

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. पं. भोजराज शुल्क ऐत्मादपुर, जिला आगरा)

संसार के भोगों में जो राग है, वही इस लोक और परलोक में दुःख का हेतु है, इन से जो वैराग्य है, वही दोनों लोकों में सुख का हेतु है, राग ही अज्ञान का चिन्ह है, स्वामी विद्यारण्यजी महाराज का वचन है।

रागो-लिंगमबोधस्य चित्त व्यायाम भूमिषु।

कुतः शद्वलता तस्य, यस्याग्निः कोटरे तरुः॥

चित्त की विस्तृत भूमि में अज्ञान के चिन्ह पदार्थों में राग ही है। जिस वृक्ष के कोटर में आग लगी है, उस वृक्ष में हरियाली कैसे हो सकती है, कदापि नहीं।

जिन पुरुषों की स्त्री पुत्रादि भोगों में राग बना है, उनको नित्य सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। अब प्रश्न यह उठता है कि “गृहस्थाश्रम में रह कर स्त्री पत्रादिकों में राग तो अवश्य ही कुछ न कुछ बना ही रहेगा राग का अभाव तो किसी काल में भी न होगा। तब गृहस्थाश्रमी की मोक्ष कदापि नहीं होनी चाहिये।” इस प्रश्न का समाधान यह है कि ऐसा नियम नहीं है, जो गृहस्थाश्रम में सदैव काल स्त्री पुत्रादिकों में राग ही बना रहे, किसी काल में भी उनसे वैराग्य न हो। किन्तु ऐसा नियम तो है कि, गृहस्थाश्रम में एक न एक दुःख अवश्य बना रहता है, उस दुःख के बने रहने से कुछ न कुछ वैराग्य भी बना रहता है, क्योंकि विषयों में दुःख बुद्धि वैराग्य का हेतु तथा सुख बुद्धि राग का हेतु है, जिस समय स्त्री पुत्रादिकों को कोई कष्ट उपस्थित होता है, उसी क्षण मनुष्य अपने को तथा संसार को धिक्कार देने लगता है, जब वह कष्ट हट जाता है, फिर उसका वैराग्य भी नहीं रहता। जितने बड़े-बड़े महात्मा पूजनीय हुए हैं, जैसे श्रीरामचन्द्रजी, वशिष्ठजी, जनक इत्यादि इन सब को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ है। तथा जितने बड़े-बड़े संन्यासी भी हुए हैं, उनको प्रथम गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ है, अतएव गृहस्थाश्रम ही मोक्ष का द्वारा है, इससे अर्थ, धर्म काम और मोक्ष चारों पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। गृहस्थाश्रमी कमल-पत्र वत अनासक्त होकर रहे तो उसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं है।

जिस काल में व्यास जी ने शुकदेव जी को राजा जनक के पास उपदेश लेने को भेजा है, उस समय शुकदेव जी ने राजा जनक के द्वार पर जाकर अपने आगमन की सूचना राजा के पास भेजी, राजा जनक ने शुकदेव जी की परीक्षा के लिये कहला भेजा ‘अभी द्वार पर ठहरो’ तीन दिन शुकदेव जी द्वार पर खड़े ही रहे परन्तु उनको क्रोध तनिक भी न आया तब राजा जनक ने चौथे दिन शुकदेव जी को भीतर महल में बुलाया जब शुकदेव जी भीतर गये, तब देखा कि राजा जनक स्वर्ण के सिंहासन पर विराजमान हैं, सुन्दर युवतियाँ चरण दबा रही हैं। अनेक प्रकार के राग भोग के सामान सामने उपस्थित हैं, राजा जनक की विभूति को देखकर शुकदेव जी के मन में घृणा उत्पन्न हो गई, मन में विचारा कि वह राजा तो भोगों में आसक्त है, यह ज्ञानी कैसा? मेरे पिता जी ने इनके पास उपदेश लेने को क्यों भेजा? जनक जी शुकदेव जी के चित्त की बात जान गये। तब जनक जी ने एक ऐसी माया रची कि सम्पूर्ण मिथलापुरी में आग लग गई, राज दूतों ने दौड़े आकर तुरन्त राजा जनक को खबर दी कि महाराज, सम्पूर्ण शहर आग से जल रहा है, आग राज महलों तक आ गई थोड़ी ही देर में महलों के अन्दर भी आ जायेगी, तब शुकदेव जी को फुरना हो गई कि बाहर द्वार पर हमारा भी तो दण्ड-कमण्डल रक्खा है, वह जल जायेगा, जनक जी शुकदेव जी की चित्त की फुरना जान गये और बोले-

‘अनन्तवत्तु में वित्त’ यन्मे नास्ति हि विश्चन।

मिथिलायाँ प्रदग्धायाँ न में दह्यति किज्चन॥

अर्थात मेरा जो आत्मा रूपी वित्त (धन) है जो अनन्त है, जो कदापि नष्ट नहीं हो सकता इस मिथिलापुरी के दग्ध होने से मेरा तो किंचित भी दग्ध नहीं हुया है।

इस वाक्य में जनक जी ने सारे सुख भोगों में अपनी अनासक्ति दिखलाई। तब शुकदेव जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि राजा जनक सच्चे ब्रह्मज्ञानी हैं, (वावक ज्ञानी नहीं है, जैसे कि आजकल बहुत देखने में आते हैं।)


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles