योगी के लिये सब कुछ संभव है।

October 1941

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(महोमहापाध्याय आचार्य पं- गोपीनाथ जी कविराज एम. ए.)

बहुत दिनों पहले की बात है कि जिस दिन महापुरुष परमहंस विशुद्धानंद जी महाराज का पता लगा था, तब उनके संबंध में बहुत सी अलौकिक शक्ति की बातें सुनी थीं। बातें इतनी असाधारण थीं कि उन पर सहसा कोई विश्वास नहीं कर सकता। अवश्य ही ‘अचिन्त्य भहिमानः खलु योगिनः’ इस शास्त्र वाक्य पर मैं विश्वास करता था और देश विदेश के प्राचीन एवं नवीन युगों में विभिन्न सम्प्रदायों के जिन विभूति सम्पन्न योगी और सिद्ध महात्माओं की कथाएं ग्रन्थों में पढ़ता था, उनके जीवन में संघटित अनेकों अलौकिक घटनाओं पर भी मेरा विश्वास था। तथापि, आज भी हम लोगों के बीच में ऐसे कोई योगी महात्मा विद्यमान हैं, यह बात प्रत्यक्षदर्शी के मुख से सुनकर भी ठीक-ठीक हृदयंगम नहीं कर पाता था। इसीलिये एक दिन सन्देह नाश तथा औत्सुक्य की निवृत्ति के लिये महापुरुष के दर्शनार्थ मैं गया।

उस समय सन्ध्या समीप प्रायः थी, सूर्यास्त में कुछ ही काल अवशिष्ट था। मैंने जाकर देखा, बहु संख्यक भक्तों और दर्शकों से घिरे हुए एक पृथक आसन पर एक सौम्य मूर्ति महापुरुष व्याघ्र चर्म पर विराजमान हैं। उनके सुन्दर लंबी दाढ़ी है, चमकते हुए विशाल नेत्र हैं, पकी हुई उम्र है, गले में जनेऊ है, शरीर पर कषाय वस्त्र है, और चरणों में भक्तों के चढ़ाये हुए पुष्प और पुष्प मालाओं के ढेर लगे हैं। पास ही एक स्वच्छ काश्मीरो पल से बना हुआ गोल यंत्र विशेष पड़ा है। महात्मा उस समय योगविद्या और प्राचीन आर्ष विज्ञान के गूढ़तम रहस्यों की, उपदेशक के बहाने साधारण रूप में व्याख्या कर रहे थे। कुछ समय तक उनका उपदेश सुनने पर जान पड़ा कि इसमें अनन्य असाधारण विशेषता है। क्योंकि उनकी प्रत्येक बात पर इतना जोर था, मानों वे अपनी अनुभव सिद्ध बात कह रहे हैं, केवल शास्त्र वचनों की आवृत्ति मात्र नहीं है। वे समझा रहे थे कि जगत् में सर्वत्र ही सत्ता मात्र रूप से, सूक्ष्म भाव से, सभी पदार्थ विद्यमान रहते हैं। परन्तु जिनकी मात्रा अधिक प्रस्फुरित होती है वही अभिव्यक्ति और इंद्रियगोचर होता है, जिसका ऐसा नहीं होता वह अभिव्यक्त नहीं होता- नहीं हो सकता। लोहे का टुकड़ा केवल लोहा ही है, सो नहीं है, परन्तु लोहा भाव की प्रधानता से अन्य समस्त भाव उसमें विलीन होकर अदृश्य हो रहे हैं। किसी भी विलीन भाव को (जैसे सोना) प्रबुद्ध करके उसकी मात्रा बढ़ा दी जावे तो पूर्व भाव स्वभावतः ही अव्यक्त हो जायेगा, और वह सुवर्णादि प्रबुद्ध भाव प्रबल होने से वह वस्तु फिर उसी नाम और रूप से परिचित होगी।

कुछ देर तक जिज्ञासु रूप से मेरे पूछताछ करने पर उन्होंने मुझसे कहा- ‘तुम्हें यह करके दिखाता हूँ।’ इतना कह कर उन्होंने आसन पर से एक गुलाब का फूल हाथ में लेकर मुझसे पूछा-बोलो इसको किस रूप में बदल दिया जाए? वहाँ जवाँ फूल नहीं था। इसी से मैंने उसको जवाँ फूल बना देने के लिये उनसे कहा। उन्होंने मेरी बात स्वीकार कर ली और बाएं हाथ में गुलाब का फूल लेकर दाहिने हाथ से उस स्फटिक यंत्र के द्वारा उस पर विकीर्ण सूर्य रश्मि को संहत करने लगे। क्रमशः मैंने देखा, उसमें एक स्थूल परिवर्तन हो रहा है। पहले एक लाल आभा प्रस्फुटित हुई धीरे-धीरे तमाम गुलाब के फूल विहीन होकर अव्यक्त हो गया, और उसकी जगह एक ताजा हलका खिला हुआ झूमता जवाँ प्रकट हो गया। उस फूल को मैं यह जानने के लिये घर ले गया कि कहीं मैं सम्मोहिनी विद्या (मेस्मरेजम) के वशीभूत होकर ही जवाँ फूल की कोई सत्ता न होने पर भी जवाँ फूल तो नहीं देख रहा हूँ। इस फूल को मैंने बहुत दिनों अपनी पेटी में रखा वह सूखने पर भी जवाँ पुष्प ही रहा।

स्वामी जी ने कहा- ‘इसी प्रकार समस्त जगत में प्रकृति का खेल हो रहा है, जो इस खेल के तत्व को कुछ समझते हैं-वही ज्ञानी हैं। अज्ञानी इस खेल से मोहित होकर आत्मविस्मृत हो जाता है। योग के बिना इस ज्ञान या विज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार विज्ञान के बिना वास्तविक योग पद पर आरोहण नहीं किया जा सकता।

मैंने पूछा- तब तो योगी के लिये सभी कुछ संभव है? उन्होंने कहा- ‘निश्चय ही है, जो यथार्थ योगी हैं, उनकी सामर्थ्य की कोई इयत्ता नहीं है, क्या हो सकता है और क्या नहीं, इसकी कोई निर्दिष्ट सीमा-रेखा नहीं है। परमेश्वर ही तो आदर्श योगी हैं, उनके सिवा महाशक्ति का पूरा पता और किसी को प्राप्त नहीं है, जो निर्मल होकर परमेश्वर की शक्ति के साथ जितना युक्त हो सकते हैं, उनमें उतनी ही ऐसी शक्ति की स्फूर्ति होती है।

मैंने पूछा-इस फूल का परिवर्तन अपने योग बल से किया था और किसी उपाय से? स्वामी जी बोले- उपाय मात्र ही तो योग है, दो वस्तुओं को एकत्र करने को ही तो योग कहा जाता है। अवश्य ही यथार्थ योग इससे पृथक है। अभी मैंने यह पुष्प सूर्य विज्ञान द्वारा बनाया है। योग बल या शुद्धि इच्छा से भी सृष्टि आदि सब कार्य हो सकते हैं, परन्तु इच्छा शक्ति का प्रयोग न करके विद्वान कौशल से भी सृष्टचादि कार्य किये जा सकते हैं’। मैंने पूछा- ‘सूर्य विज्ञान क्या है?’ उन्होंने कहा-सूर्य ही जगत का प्रसविता है। जो पुरुष सूर्य की राशि अथवा वर्ण माला को भली भाँति पहिचान गया है और वर्णों को शोधित करके परस्पर मिश्रित करना सीख गया है, वह सहज ही सभी पदार्थों का संघटन या विघटन कर सकता है।

मैंने पूछा- आप को यह विज्ञान कहाँ से मिला? मैंने तो कहीं इसका नाम भी नहीं सुना।’ उन्होंने हंसकर कहा-तुम लोगों का ज्ञान ही कितना है? यह विज्ञान भारत की ही वस्तु है। उच्चकोटि के ऋषिगण इसको जानते थे, और उपर्युक्त क्षेत्र में इसका प्रयोग किया करते थे। अब भी इस विज्ञान के पारदर्शी आचार्य अवश्य ही वर्तमान हैं। वे हिमालय और तिब्बत के उपरांत मार्ग में ज्ञानभंड नामक बड़े भारी योगाश्रम में रहकर एक योगी और विज्ञानवित महापुरुष से दीर्घकाल तक कठोर साधना करके इस विद्या को और ऐसी ही और भी अनेकों लुप्त विद्याओं को सीखा है। यह अत्यन्त ही जटिल और दुर्गम विषय है- इसका दायित्व भी अत्यन्त अधिक है। इसीलिये आचार्यगण सहसा किसी को यह विषय नहीं सिखाते।’

मैंने पूछा-’क्या इसकी और भी विद्याएं हैं? उन्होंने कहा-’हैं नहीं तो क्याः’ चन्द्र विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, वायु विज्ञान, क्षण विज्ञान, शब्द विज्ञान, मनोविज्ञान इत्यादि बहुत विद्याएं हैं। केवल नाम सुनकर ही तुम क्या समझोगे? तुम लोगों ने शास्त्रों में जिन विद्याओं के नाम मात्र सुने हैं उनके अतिरिक्त और भी न मालूम कितना क्या है?’

-कल्याण

यह एक दैवी कानून बाजारों चौरायों पर लिख देना चाहिये- ‘कि ईवर की आँखों में मिर्चें पटकना स्वयं ही अन्धा बनना है।’


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