(स्व. स्वामी विवेकानन्द जी महाराज)
जो बात एक देश में नीति की समझी जाती है, वही बात दूसरे देश में नीति की बिलकुल विघातक समझी जाती है। कुछ देशों में चचेरी बहिन से विवाह करना साधारण व्यवहार की बात है, किन्तु अन्य कई देशों में यही चाल नीति के बिलकुल विरुद्ध मानी जाती है। कई देशों में साली से विवाह करना पाप समझते हैं, कई में उसे ऐसा नहीं समझते। कई देशों में एक पुरुष के एक समय में एक ही पत्नी होना नीति की बात मानी जाती है- परन्तु दूसरे कई देशों में एक ही समय में चार पाँच अथवा सौ पचास स्त्रियों का होना भी एक साधारण चाल है। इसी प्रकार नीति के अन्य सिद्धान्तों का भी अव्यवहार्य रूप प्रत्येक देश में भिन्न-भिन्न पाया जाता है, कर्त्तव्य का भी यही हाल है। कई जगह ऐसा समझा जाता है कि मनुष्य यदि कोई एक काम नहीं करता तो वह कर्त्तव्यच्युत हो जाता है। परन्तु अन्य देशों में वही कार्य करने वाला मूर्ख समझा जाता है। यद्यपि वास्तविक दशा ऐसी है, तथापि हम लोग सदैव यही समझते हैं कि साधारणतया नीति और कर्त्तव्य के विचार सम्पूर्ण मानव जाति में एक ही हैं। अब हमारे सामने प्रश्न खड़ा होता है कि, हम अपनी उपर्युक्त समझ और उपर्युक्त बातों के व्यवहार्थ स्वरूप की भिन्नता के अनुभव का मेल कैसे मिलावें। बस परस्पर विरोधी अनुभवों की एक वाक्यता करने के लिये दो मार्ग खुले हुए हैं। एक मार्ग यह है कि यह समझा जाय कि “मैं जो कुछ कहता अथवा करता हूँ वही ठीक है और वैसा न करने वाले अन्य लोग मूर्ख तथा अनीतिवान है।” परन्तु यह मार्ग मूर्खों का है। चतुरों का मार्ग इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि भिन्न-भिन्न देश काल और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण एक ही सिद्धाँत के व्यवहार में भेद दिखाई देते हैं। परन्तु वास्तविक में यह बाहर से दीख पड़ने वाले भेद भाव सच्चे नहीं है। इस सिद्धाँत की निरर्थकता न दिखला कर केवल परिस्थिति की भिन्नता मात्र दिखलाते हैं। पंडितों का मत यह है कि, सिद्धान्त चाहे एक ही हो तो भी उसका व्यावहारिक स्वरूप परिस्थिति के अनुसार बदलना संभव है, न सिर्फ संभव है वरन् आवश्यक भी है।