सद्व्यवहार

October 1941

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(ले- सन्त कबीर)

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।

आप ठग्या सुख ऊपजै, और ठग्याँ दुख होय॥

जा घर साध न सेवयहि, हरि की सेवा नाहिं।

ते घर मरघट सारखे, भूत बसहिं तिन माहि॥

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।

पीछे लागो हरि फिरत, कहत कबीर, कबीर॥

जहाँ ज्ञान तहाँ धर्म है, जहाँ झूठ तहाँ पाप।

जहाँ लोभ तहं काल है, जहाँ क्षमा तहं आप॥

शूर सोइ पहचानिये, लरै दीन के हेत।

पुरजा पुरजा कटि मरै, कबहुँ न छोड़ै खेत॥

सन्त न बाँधै गाठड़ी, पेट समाता लेइ।

साँई सूँ सन्मुख रहे, जहें माँगे तहं देइ॥

माँगन मरण समान है, बिरला बंचै कोई।

कहै कबीर रघुनाथ सूँ, मतिर मंगावे मोइ॥

गावन में रोबन अहै, रोवन ही में रोग।

एक वैरागी ग्रही में, एक गृहीं में वेराग॥

कबीर संगत साध की, कभी न निष्फल होय।

चन्दन ऐसी बावना, नींच न कहसी कोय॥

कबीर बन-बन में फिरा, कारण अपने राम।

राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब काम॥

कबीर चन्दन का बिरे, बैठो आक पलास।

आप सरीखे करि लिये, जे बैठे उन पास॥

कबीर खाई कोट की पानी पिवै न कोइ॥

मारी मरुँ कुसंग की, केला काटे बेरि।

वह हालै वह चीरिये, साखित संग न फेरि॥

ऊंचे कुल क्या जन्मिया, जो करनी ऊँच न होय।

सुवरण कलश सुरा भरी, साधू निंदै सोय॥

कबीर तन पंखी भया, जहँ मन तहँ उड़ि जाय।

जो जैसी संगति कर, सो तैसे फल खाय॥


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