अग्नितत्व संसार में सब जगह व्याप्त है, परन्तु वह दो वस्तुओं को घिसे बिना प्रकट नहीं होती। आत्म-शक्ति, परमात्म-शक्ति का ही एक भाग है। परमात्मा समस्त संसार में समाया हुआ है। हमारी आत्मा उसी महातत्व की एक चिनगारी है। जैसे चिनगारी को इंधन आदि के उपर्युक्त साधन मिले तो वह अपने छोटे रूप को असंख्य गुना करके भीषण दावानल के रूप में प्रकट हो सकती, उसी तरह हमारी आत्मा छोटी सी, अल्प शक्तिशाली मालूम पड़ती है, परन्तु परमात्मा का अंश होने की वजह से उसकी पीठ भारी है। किसी राजकुमार को हम मामूली लड़के की तरह तुच्छ नहीं समझ सकते, क्योंकि उसके पिता के पास बड़ी भारी ताकत होती है। राजकुमार से बुरा व्यवहार किया और उसने अपने पिता से शिकायत कर दी तो बस उसकी खैर नहीं है। आत्मा महान परमात्मतत्व का अंश है, चिनगारी की तरह जब उसे जितनी शक्ति प्राप्त करनी होती है आसानी से प्राप्त कर लेती है, इसीलिये शास्त्रों से आत्मा को अजर, अमर, अखण्ड और नित्य आदि गुणों वाली बताया है।
जैसे अग्नि प्रकट करने के लिये लोहा, चुम्बक द्वारा दियासलाई घिसनी पड़ती है, वैसे ही आत्मा का दर्शन करने के लिए कुछ साधन करना पड़ता है। कहा है कि-
स्वदेहमरिणं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ध्याननिर्मथनाभ्यासद्द्वं पश्येन्निगूढ़वत्॥
अर्थात् अपने शरीर को नीचे की अरणि अग्नि उत्पन्न करने की लकड़ी और प्रणव की ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान रूप मंथन के अभ्यास से अपने हृदय में गुप्त रूप से रहने वाले परमात्मा (आत्मा) को देखना चाहिये।
ब्रह्मनिष्ठ पं- नारायणी जी दामोदर जी शास्त्री का अनुभव है कि- “प्रत्येक मनुष्य की आत्मा अपने मूल स्वरूप में निर्गुण निराकार एवं नाम रूप रहित होकर भी शुद्ध सत्व मय अंतःकरण में प्रकाश रूप से उसका दर्शन होता है और वह दर्शन होने पर मनुष्य को सत्यकाम, सत्य संकल्प होकर अखण्ड सुख और परम शान्ति प्राप्त होती है, फिर उसे इस संसार में कोई भी वस्तु प्राप्त करने की नहीं रहती। वह जो इच्छा या संकल्प करता है, वह बिना किसी प्रयत्न के तत्काल सिद्ध हो जाता है। उसका यह अमूल्य और दुर्लभ जीवन सफल हो जाता है। इसलिये मनुष्य को अपनी प्रकाश स्वरूप आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये, जिससे उसका यह जीवन सफल हो। आत्मा प्रकाश रूप है यह उपनिषदीय ग्रंथों में अनेक जगह प्रतिपादित किया हुआ है। जैसे-
‘अंगुष्ठ मात्रः पुरुषो ज्योतिरिवा धूमकः।’
‘अंगुष्ठ मात्रो रवि तुल्य रुपः।’
‘तुच्छुभ्रं ज्योतिषाँ ज्योतिः।’आदि,
केवल शास्त्रों के वर्णन की ही बात नहीं है। जिन महापुरुषों को प्रकाश रूप आत्मा का दर्शन हुआ है, उन्होंने भी स्वयं अपने अनुभव का ऐसा ही वर्णन किया है। और जो साधक इस विषय का अभ्यास करेंगे उनको भी आत्मा का प्रकाश सब में अवश्य दर्शन होगा। यह अनुभव का विषय है। केवल सुनने, पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होता।
जब तुम्हें फुरसत हो, बिलकुल एकान्त कमरे में जाओ। प्रातःकाल का या दिन छिपे बाद का समय इस अभ्यास के लिये उत्तम है, फिर भी यह कोई विशेष प्रतिबंध नहीं है, जब अवसर मिले तभी सही। कमरे में अन्दर जाकर उसके दरवाजे बंद कर लो, हाँ थोड़ा सा प्रकाश आने के लिये खिड़कियाँ खुली रख सकते हो। कमरे में आराम कुर्सी पर लेट जाओ। आराम कुर्सी न हो तो मुलायम बिछौने पर पसन्द के सहारे पड़ रहो।
यहाँ किसी कष्टकर आसन पर बैठने की जरा भी जरूरत नहीं है। जिस तरह तुम्हारा शरीर आराम का अनुभव करे उसी तरह पड़ रहना ठीक है, चाहो तो लेट भी सकते हो, पर शिर शरीर की अपेक्षा कम से कम एक फुट ऊंचा जरूर रहना चाहिये। शरीर को आराम से डाल दो और आँख बन्द कर लो। अब देह को बिलकुल ढीली करने की कोशिश करो मानो इसमें जान ही नहीं है, रुई का निर्जीव गद्दी पड़ा हुआ है। पहले ही दिन शायद यह अभ्यास पूरा नहीं हो सकेगा क्योंकि नाड़ियों का तनाव ढीला करने का पहला अभ्यास न होने के कारण नसें और पेशियाँ अकड़ी ही रहती हैं। पंद्रह मिनट से लेकर आध घण्टे तक का समय इसी कोशिश में लगाओ। ऐसा अनुभव करो मानो ‘तुम’ अपने शरीर से अलग हो गये हो और दूर खड़े हुए इस निर्जीव पुतले को देख रहे हो। एक सप्ताह के आभास में शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ना तुम को आ जायेगा। यह दशा बड़े आनन्द की है। शरीर को दिन-रात कड़ा काम करना पड़ता है। उसे यदि कभी-कभी इस तरह का आराम कुछ ही देर को मिल जाय तो बड़ी शान्ति का अनुभव करता है। सारे दिन बोझ ढोने वाला मजूर यदि आध घण्टे को भी सुस्ता ले तो उसे बड़ा आनन्द आता है। शरीर को ढीला छोड़ने पर तुम्हें बड़ा अच्छा लगेगा और मन के भीतर एक प्रकार की स्थिरता और शाँति का अनुभव करोगे।
एक सप्ताह इस शिथिलासन का अभ्यास करने के बाद अब आगे की ओर बढ़ो। अपना ध्यान श्वास के आवागमन पर लगाओ। नाक के रास्ते जब साँस भीतर जाय तो अनुभव करो कि वह जा रही है, जब निकले तब भी अनुभव करो। अर्थात् मानो तुम एक चौकीदार हो और इस बात की अच्छी तरह जाँच करना तुम्हारा काम है कि साँस कब आती है और कब जाती है। मन को इधर-उधर डिगने मत दो, श्वास के आवागमन पर ध्यान लगाते रहो। यह ‘ब्रह्म प्राणायाम’ है। इसे करते समय अपने मानस लोक को शून्य रखो। भावना करो कि तुम्हारा मस्तिष्क ही अनंत आकाश है, इसके अतिरिक्त विश्व में कहीं कोई वस्तु नहीं है। मस्तिष्क के अन्दर का भाग बिलकुल पोला और नील आकाश की तरह अनन्त है। इसी आकाश में प्राणवायु आ जा रही है। “मस्तिष्क के अन्दर नीलाकाश जैसा शून्य मानस लोक और उसमें प्राणवायु का आना जाना।” बस, इन दो ही बातों का चित्र तुम्हारे मन पर अंकित होना चाहिये। समस्त ध्यान जब इन्हीं दो बातों को देखने में लगेगा तो दो चार दिन अधिक से अधिक एक सप्ताह में यह भावना दृढ़ हो जायेगी। इन दो बातों के अतिरिक्त ध्यान के समय और कुछ मालूम ही न होगा। यदि मन उचटे तो निरुत्साहित होने की जरूरत नहीं है, उसे रोको और फिर वहीं लगाओ। कुछ दिन के अभ्यास से वह उपरोक्त भावना का अनुभव करने लगेगा।
पहले बताया गया है कि शरीर को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान रूप मंथन के अभ्यास से अपने अन्दर रहने वाले प्रकाश स्वरूप आत्मा का दर्शन करना चाहिये। शून्य लोक में प्राणवायु का घर्षण होने से आत्म-ज्योति प्रकट होती है। थोड़े दिनों के अभ्यास से जब कुछ-कुछ मनोलय होने लगता है तो मानस लोक में अंतर्दृष्टि से सफेद, लाल, पीले आदि रंगों के बिन्दु, चक्र की तरह घूमते हुए दिखाई देते हैं। फिर कुछ दिनों बाद उनका लोप होकर नीलवर्ण का बिन्दु दिखाई देता है। बाद में अभ्यास से जब मनोलय अधिक होता जाता है, तब सूर्य, अर्धचन्द्र, चन्द्र, तारे, मोती, पुष्पों के गुच्छे, इन्द्र नील आदि चमकते हुए अनेक रत्न तथा सफेद रंग के चक्र एक दूसरे में प्रवेश करते हुए दिखाई देते हैं। तब साधक को समझना चाहिये कि अब शीघ्र ही आत्मा का दर्शन होने वाला है और वैसा होता भी है। अर्थात् कुछ समय के बाद उपरोक्त दृश्यों का लोप होकर आखिर में आत्मा को अत्यन्त शुभ्र और तेजस्वी प्रकाश का दर्शन होता है। उसमें साधक का पूर्ण मनोलय होकर उसे समाधि अवस्था प्राप्त होती है, इस अवस्था में उसे जिस सुख, शाँति तृप्ति और समाधान का अनुभव होता है, उसकी संसार भर के किसी भी विषय से होने वाले सुख से तुलना नहीं हो सकती।
कई बार यह आत्म दर्शन बहुत जल्द हो जाता है। जिसका अन्तस्थल जितना पवित्र होगा उसे उतनी ही जल्दी सफलता मिलेगी। कभी-कभी तो एक दो सप्ताह में ही शिथिलासन, ब्रह्म प्राणायाम पूरे हो जाते हैं, और आत्म प्रकाश का दर्शन होने लगता है। पाठको, तुम्हारे पूर्वज महर्षियों ने जिस योग विद्या के बल से संसार में अपना सिक्का जमाया था, उसी महा विद्या का यह छोटा सा अंग तुम्हारे लिये बहुत उपयोगी होगा। भगवती आत्मशक्ति का दर्शन करके तुम निर्णय, अमर और जैसी दिव्य गुण सम्पन्न बन जाओगे।