प्रार्थना

October 1941

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(महात्मा गाँधी)

करोड़ों हिन्दू मुसलमान, ईसाई, यहूदी और दूसरे रोजाना अपने सृष्टा को भक्ति करने के लिए निश्चित किए हुए समय में क्या करते हैं। मुझे तो यह मालूम होता है कि वह सृष्टा के साथ एक होने को हृदय की उत्कटेच्छा को प्रगट करते हैं। और उसके आशीर्वाद के लिए याचना करते हैं। इसमें मन की वृत्ति और भावों का ही महत्व होता है। शब्दों का नहीं। अक्सर पुराने जमाने से जो शब्द रचना चली आती है, उसका भी असर होता है। जो मातृ-भाषा में अनुवाद करने पर सर्वथा नष्ट हो जाता है। गुजराती में गायत्री का अनुवाद करके उसका वह असर न होगा जो कि असल गायत्री में होता है। राम शब्द के उच्चारण करने से लाखों करोड़ों हिन्दुओं पर फौरन असर होगा। और ‘गाड’ शब्द का अर्थ समझने पर भी उसका उन पर कोई असर न होगा। चिरकाल के उपयोग के साथ संयोजित पवित्रता से शब्दों की शक्ति प्राप्त होती है। इसलिये सबसे अधिक प्रचलित मंत्र और श्लोकों को संस्कृत भाषा में रखने के लिये बहुत सी दलीलें की जा सकती हैं। परन्तु उनका अर्थ अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। यह बात तो बिना कहे ही मान ली जानी चाहिएं। ऐसी भक्ति युक्त क्रियाएं किस समय करनी चाहिए। इसका कोई निश्चित नियम नहीं हो सकता है। इसका आधार जुदा-जुदा व्यक्तियों के स्वभाव पर होता हैं। ये क्रियायें हमें नम्र और शान्त बनाने के लिए होती हैं और उससे हम इस बात का अनुभव कर सकते हैं। उसकी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। और हम तो ‘उस प्रजापति के हाथ में मिट्टी के पिंड हैं’ ये पले ऐसी हैं कि इस में मनुष्य अपने भूतकाल का निरीक्षण कर सकता है और अपनी दुर्बलता को स्वीकार करता है और क्षमा याचना करते हुए अच्छा कार्य करने की शक्ति के लिये प्रार्थना करता है। कुछ लोगों को इसके लिये एक मिनट भी बहुत होता है। तो कुछ लोगों को 24 घंटे भी काफी नहीं हो सकते हैं। उन लोगों के लिए जो ईश्वर के अस्तित्व को अपने में अनुभव कर हैं। केवल मेहनत और मजदूरी करना भी प्रार्थना हो सकती है। उनका जीवन ही सतत प्रार्थना और भक्ति के कार्यों से बना होता है। परन्तु वे लोग जो पाप कर्म ही करते रहते हैं प्रार्थना में जितना भी समय लगायेंगे उतना ही कम होगा। यदि उनमें धैर्य और श्रद्धा होगी और पवित्र बनने की इच्छा होगी। वे तब तक प्रार्थना करेंगे जब तक कि उन्हें अपने में ईश्वर की पवित्र उपस्थिति का निर्णयात्मक अनुभव न होगा।


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