संयोग

October 1941

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(बा. मैथिलीशरणा गुप्त)

प्यारे! आज नवीन भावी से मूल हुआ मेरा तेरा,

तू प्रिय है, मैं प्रेमी हूँ वश-मैं तेरा हूँ तू मेरा।

तेरे अटल प्रेस-बन्धन में मुझे मुक्ति की चाह नहीं,

एक अपंग-दृष्टि हो तेरी, फिर कुछ भी परवाह नहीं॥

मिले हुए दो व्यक्ति बिछुड़ कर जब आपस में मिलते हैं-

तभी मिलन का अनुभव होता, हृदय परस्पर खिलते हैं।

इसीलिए यह मेल हमारा, होगा महा मनोहारी,

प्यारी-प्यारी बातें होंगी, धातें भी न्यारी-न्यारी॥

उपालग्भ दे सकता हूँ मैं-तूने मुझे कहाँ पटका,

पर तू मुझ से तो न कहेगा-मुझे भूल कर तू भटका॥

निस्संदेह भूल थी मेरी, फिर व्यर्थ मारा-मारा,

पड़ सरीचिका में उलटा निज सुखा दिया मानस सारा॥

अब तो जो कुछ हुआ हो गया रहें यहीं तक वे बातें,

मानो व्यर्थ गमाई मैंने अपनी इतनी दिन रातें।

पाकर आज अचानक तुझको मुझको अस्यानन्द हुआ हुआ,

बन्द हुई सब दौड़ धूप अब मैं सहसा स्वच्छन्द हुआ॥

चाहे जितने खेल खेल डडडड अंगीकृत हैं मुझे सभी,

तेरे खेल, खेलना मेरा, हार न होगी कहीं कभी।

लोकालय के व्यापारों में लाभ रहेगा बहुतेरा,

व्यर्थ कदापि नहीं हो सकता उद्यम तेरा, श्रम मेरा॥

यों तो सब कुछ ही तेरा है, मेरा कुछ भी नहीं यहाँ

किन्तु जित्व बिना जगती पर मिल सकता है मोद कहाँ?

है जन भाव इसी से मेरा, धाम, धरा, धन, तेरा है,

जीवन मेरा साधन तेरा, मन मेरा, मन तेरा है॥

तू ही कह, तेरे-मेरे में अथवा मेरे-मेरे में-

किस में रस हैं? नहीं किसी में, वह है मेरे तेरे में॥

ऐसा है तो अहंभाव पर होना मुझ से खिन्न नहीं,

यह अभिन्न संयोग हमारा हो सकता है छिन्न नहीं॥

जीवन की संग्राम भूमि में शीघ्र बजेगी जय-मेरी।

तेरे कर्म और कर मेरे तेरी शक्ति भक्ति मेरी।

देखूँ अब रह सकता है, वह भव-सागर का पार कहाँ,

साहस भरी तरी है मेरी, तेरा है पतवार यहाँ॥

(उद्धृत)

(उद्धृत)

*समाप्त*


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