दिवाली

October 1941

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दीवाली का उत्सव इस साल भी सदा की भाँति आया और विदा हो रहा है। शत-शत दीप जलाकर हम अपने घरों को सुशोभित बनाते हैं, माता लक्ष्मी की आराधना करते हैं कि वे अपनी कृपा कोर से हमें निहाल कर दें। हर साल हम इस पुण्य पर्व को नवीन आशा के साथ मनाते हैं पर सब व्यर्थ चला जाता है, भगवती प्रसन्न नहीं होती।

आज तो वे क्रुद्ध हो रही हैं, दरिद्रता का ताण्डव नृत्य हो रहा हैं हर चीज़ की असाधारण मंहगाई, उत्पादन क्षेत्रों का शुल्क हो जाना, अतिवृष्टि अनावृष्टि का प्रकोप ऐसा उग्र रूप धारण किये हुए हैं कि पैसे की सर्वत्र कमी दिखाई देती है, हर व्यक्ति अर्थ चिन्ता से दुःखी हो रहा है, व्यवहार-कारोबार, उद्योग, मजूरी किसी भी ओर संतोष की साँस लेने का अवकाश नहीं है। अभाव और चिन्ता की ज्वाला में गृही विरागी सभी जले जा रहे हैं।

जिस दिन दीप दान हुआ, घृत और तैल के भरे हुए दीप आलों, झरोखों और मुँडेरों पर जगमगाये उस दिन भी विश्व सुख की नींद नहीं सोया। असंख्य निरीह व्यक्ति बारूद की भट्टी में ऐसे ही भून दिये गये जैसे भड़भूजा चने को भून देता है। जगती की पीठ रक्त की धाराओं से लाल हो रही है, प्रभु के प्रिय पुत्रों का इस प्रकार संहार करने में आज का सभ्य जगत बड़े गर्व के साथ लगा हुआ है।

माता लक्ष्मीजी हमारी उपासना पर प्रसन्न होने की अपेक्षा ऐसा भयंकर रूप धारण करके विनाश के मुँह में हमें क्यों ढकेले दे रही हैं? पाठकों। शान्त मन से जरा इस प्रश्न पर विचार करो। आपने बहुत सा समय फूटे हुए मकानों पर सफेदी कराने और टूटे हुए किवाड़ों पर रंग कराने में लगाया है। अब थोड़ा समय इस बात के चिन्तन में भी लगाइये कि हमारी आराधना से सन्तुष्ट होने के स्थान पर नाश का वज्र दंड क्यों उठाया जा रहा है।

कहते हैं कि मनुष्य ने पिछली शताब्दियों में ज्ञान विज्ञान की नवीन शोध की है, उसने बड़े-बड़े यंत्र, औजार, साधन, सिद्धान्त आविष्कृत किये हैं। और वह इस नतीजे पर पहुंचा है कि- ‘जीवन शरीर तक ही है इसलिये खाओ-पीओ मौज उड़ाओ।’ देह को भस्मी-भूत समझते हुए ‘अपूर्ण कृत्वा घृतं पिवेत्’ के सत्यानाशी मार्ग पर मनुष्य दौड़ पड़ा है। “धर्म ठगों का पेशा है, ईश्वर डरपोकों की कल्पना है, त्याग मूर्खों की सनक है।” आज का भौतिक विज्ञान इन उक्तियों का प्रतिपादन करता है, और चकाचौंध में अन्धे हुए लोग इन उक्तियों के सामने मस्तक झुका देते हैं। मनुष्य जीवन की इस शैतानी व्याख्या का अनेकानेक तर्कों के आधार पर प्रतिपादन किया गया है फलस्वरूप भूमंडल के एक कोने से दूसरे कोने तक यह विश्वास किया जाने लगा है कि- शरीर आत्मा है। शरीर और उपासनीय है, भोग ही आत्मानंद है। कुच कोचन को जीवन का उद्देश्य बनाकर आदमी पिशाच के रूप में आ गया है। उसका एक मात्र स्वार्थ ही परमेश्वर बना हुआ है।

स्वार्थ यह तो एक बड़ी भारी अतृप्त इकाई है। कितने विषय भोग, सुख सम्दा से तृप्ति हो सकती है इसकी कोई मर्यादा नहीं। तृष्णा अनन्त है, वह निरन्तर बढ़ती रहती है और क्षितिज के छोर तक, जब तक मनुष्य चिता पर चढ़ता है तब तक ‘और लाओ’ की ही रट लगी रहती है। इन्द्रिय तृप्ति का मार्ग है ही ऐसा। कहते हैं कि अगस्त ऋषि इस भूतल के सब समुद्रों का पानी पीकर तृप्ति हो गये थे परंतु स्वार्थ पूर्ण सुखेच्छा सम्पूर्ण ब्रह्मांडों को पी कर भी शान्त नहीं हो सकती। अपने लिये अधिक चाहने की इच्छा में, व्यक्ति, परिवार, नगर और देश अपने सदृश्य दूसरों का शोषण करना चाहते हैं, क्योंकि प्रकृति द्वारा बराबर दी हुई चीज़ों में से अधिक तो तभी मिल सकती है जब दूसरे का शोषण किया जाय, दूसरे के मुख का ग्रास छीन लिया जाय। शोषण एक प्रचण्ड दैत्य है जिसके पीछे-पीछे बड़े कराल दाँतों वाले भूत-भैरवों की सेना चलती है। स्वार्थ से शोषण और शोषण से कलह होता है।

प्रभु की पवित्र सृष्टि में कुहराम मचाना या मचने देना यह एक बड़े पातक हैं, ऐसे पातकियों के घरों में लक्ष्मीजी नहीं रहना चाहतीं वे अपने पिता के घर वापिस जा रही हैं। समुद्र से वे प्रकट हुई थीं और समुद्र में ही विलीन होने की इच्छा करती हैं। कंस ने शिला पर पटक कर आदिशक्ति को मारा था, हम उसे तोप के मुँह पर उड़ा रहे हैं। ऐसी दशा में कौन आशा करेगा कि माँ लक्ष्मी हम से प्रसन्न होंगी।

भूल के मार्ग पर चलता हुआ मनुष्य सर्वनाश के खंदक के निकट मरने के लिये पहुँच गया है। यदि वह वापिस न लौटा तो उसे भगवती का और भी अधिक कोप सहन करना पड़ेगा।

मानव-धर्म के यथार्थ स्वरूप को हमें ढूंढ़ना होगा और पुनः उसका अवलम्बन करके अपने इष्ट मार्ग पर आवृत होने का प्रयत्न करना होगा। ईश्वर ने मानव-प्राणी को इस संसार में इसलिये नहीं भेजा है कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के हित का हनन करे और उचित अनुचित रीति से अपनी आसुरी लालसाओं को तृप्त करे। वरन् इसलिये भेजा है कि अपनी दिव्य शक्ति का सहारा देकर अपने से छोटों को ऊपर उठावें, उन्नत बनावें और सुमार्ग पर प्रवृत्त करें। अपने तुच्छ स्वार्थों को दूसरों के सुखों के लिए छोड़कर उन्हें सुखी बनाने में अपने को सुखी समझें। किन्तु हाय। हम अपने इस जीवनोद्देश्य को तो बिल्कुल ही भूल गये हैं, जिस वाटिका के माली बना कर भेजा गया था, उसे काटने में लगे हुए हैं। फिर भी चाहते हैं कि माता लक्ष्मी जी प्रसन्न होकर हमें सुख शान्ति प्रदान करें।

ठहरिये, पीछे लौटिये, अपने स्वार्थों की अतृप्त लालसा को छोड़कर, दूसरों के लिए त्याग करना सिखाए। अपने हृदय के दीपक में प्रेम का रस भरकर उसे त्याग की अग्नि द्वारा जलने दीजिए। इसी दीपक के प्रकाश में आज का पीड़ित और मति भ्रमित संसार अपने कल्याण का मार्ग पा सकेगा। अपने हृदय में त्याग और प्रेम के दीपक जलाएं, दूसरों के लिए अपने सुख छोड़ दीजिए, सब को अपना समझिए और आत्मीयता की भावना से उन्हें देखिए। त्याग का यह आदर्श आज के कलह-कष्टों को सदा के लिए हटा सकेगा। चालीस करोड़ दीपकों का प्रकाश, संसार भर का पथ-प्रदर्शन कर सकेगा और रूठी हुई लक्ष्मी को वापिस बुला सकेगा।


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