(महात्मा गाँधी)
बहुतेरे नौजवान कोशिश करते हुए भी पाप से बच नहीं पाते। वे हिम्मत खो बैठते हैं और फिर दिन ब दिन पाप की गहराई में कदम बढ़ाते जाते हैं। बहुतेरे तो बाद में पाप ही को पुण्य भी मानने लगते हैं। ऐसों को मैं कई बार गीता जी और रामायण पढ़ने और उन पर विचार करने की सलाह देता हूँ। लेकिन वे इस बात में दिलचस्पी नहीं ले सकते। इसी तरह के नौजवानों की दिलजमई के लिये, उन्हें धीरज बँधाने की गरज से, एक नौजवान के पत्र का कुछ हिस्सा, जो इस विषय से सम्बन्ध रखता है। नीचे देता हूँ:-
“मन साधारणतः स्वस्थ है। लेकिन जब कुछ दिनों तक मन बिल्कुल स्वस्थ रह चुकता है, और खुद इस बात का खयाल हो आता है तो फिर से पछाड़ खानी ही पड़ती है। विकार इतने जबरदस्त बन जाते हैं कि उनका विरोध करने में बुद्धिमानी नहीं मालूम पड़ती, लेकिन ऐसे समय प्रार्थना, गीता पाठ और तुलसीकृत रामायण से बड़ी मदद मिलती है। रामायण को एक बार पढ़ चुका हूँ, दुबारा सती की कथा तक आ पहुँचा हूँ। एक समय था, जब रामायण का नाम सुनते ही जी घबराता था, लेकिन आज तो उनके पन्ने पन्ने में रस पा रहा हूँ। एक पृष्ठ को पाँच पाँच बार पढ़ता हूँ। फिर भी दिल ऊबता नहीं। काकभुशुंडि जी की जिस कथा के कारण मेरे दिल में तुलसी रामायण के प्रति घृणा पैदा हो गई थी, वह बुरी लगती थी, वही आज सबसे अच्छी मालूम होती है। उसमें मैं, गीता के 11 वें अध्याय से भी ज्यादा काव्य देख रहा हूँ। दो चार साल पहले आधे दिल से स्वच्छता पाने की कोशिश करने पर भी उसे न पाकर जो निराशा पैदा होती थी, आज उस निराशा का पता भी नहीं है, उल्टे मन में विचार आता है कि जो विकास अनन्त काल बाद होने वाला है उसे आज ही पा लेने का हठ करना कितनी मूर्खता है सारे दिन कातते समय और रामायण का अभ्यास करते समय आराम मिलता है।”
इस पत्र के लेखक में जितनी निराशा और जितना अविश्वास था, शायद ही किसी दूसरे नौजवान में उतनी निराशा और उतना अविश्वास हो। दोषों में उसके शरीर में घर कर लिया था। लेकिन आज उसमें जिस श्रद्धा का उदय हुआ है उससे नवयुवक-जगत में आशा का संचार होना चाहिये। जो लोग अपनी इन्द्रियों को जीत सके हैं उनके अनुभव का भरोसा करके लगन के साथ रामायण वगैरह का अभ्यास करने वाले का दिल पिघले बिना रह ही नहीं सकता। मामूली विषयों के अभ्यास के लिये भी जब हमें अक्सर बरसों तक मेहनत करनी पड़ती है। कई तरकीबों से काम लेना पड़ता है तो जिसमें सारी जिन्दगी की और उसके बाद की शान्ति का भी खयाल छिपा हुआ है उस विषय के अभ्यास के लिये हममें कितनी लगन होनी चाहिये? तिस पर भी लोग थोड़े से थोड़ा समय और ध्यान देकर रामायण तथा गीता में रस पान करने की आशा रखते हैं उनके लिये क्या कहा जाय?
ऊपर के पत्र में लिखा है कि पत्र लेखक की अपने स्वस्थ तन्दुरुस्त होने का खयाल आते ही विकार फिर से चढ़ दौड़ते हैं। जो बात शरीर के लिए ठीक है वही मन के लिए भी ठीक है। जिसका शरीर बिलकुल चंगा है उसे अपने अच्छेपन का खयाल कभी आता ही नहीं, न उसको कोई जरूरत ही है। क्योंकि तन्दुरुस्ती तो शरीर का स्वभाव है। यही बात मन को लागू होती है जिस दिन मन की तन्दुरुस्ती का खयाल आवे, समझ लो विकार पास आकर झाँक रहे हैं। अतः मन को हमेशा स्वस्थ बनाये रखने का एक मात्र उपाय हमेशा अच्छे विचारों में लगाये रखना है। इसी कारण राम-नाम वगैरह के जप की बात को शोध हुई वे गेय माने गये और जिसके हृदय में हर घड़ी राम का निवास हो उस पर विकार चढ़ाई कर ही नहीं सकते। सच तो यह है कि जो शुद्ध-से राम-नाम का जप करता है समय पाकर, राम नाम उसके हृदय में घर कर लेता है। इस तरह हृदय प्रवेश होने के बाद राम नाम उस मनुष्य के लिये अभेद्य किला बन जाता है। बुराई, बुराई का ख्याल करते रहने से नहीं मिटती हाँ अच्छाई का विचार करने से बुराई जरूर मिट जाती है। लेकिन बहुत बार देखा गया है कि लोग सच्ची नियत से उलटी तरकीबें काम में लाते हैं। ‘यह कैसे आई, कहाँ से आई,’ वगैरह विचार करने से बुराई का ध्यान बढ़ता जाता है। बुराई को, मेटने का यह उपाय हिंसक कहा जा सकता है। इसका सच्चा उपाय तो बुराई से असहयोग करना है। जब बुराई हम पर आक्रमण करे तो उससे भाग जा कहने की कोई जरूरत नहीं। हमें तो यह समझ लेना चाहिये कि बुराई नाम की कोई चीज ही नहीं और हमेशा स्वच्छता का, अच्छाई का विचार करते रहना चाहिये। ‘भाग जा’ कहने में डर का भाव है। उसका विचार तक न करने में निडरता है। हमें सदा विश्वास बढ़ाते रहना चाहिये कि बुराई हमें छू तक नहीं सकती। अनुभव द्वारा हमें यह सब सिद्ध किया जा सकता है।