हमारा धन्यवाद स्वीकार कीजिये।

December 1940

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इस अंक के साथ अखंड-ज्योति का पहला वर्ष समाप्त हो रहा है। इस अवसर पर हम अपने प्रेमी पाठकों को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते जिनकी गुण ग्राहकता, सहानुभूति तथा सद्भावनाओं के कारण वह इतनी उन्नति कर सकी है। हिन्दी संसार में अखबारी की ‘बाल्य मृत्यु’ प्रसिद्ध है। आये दिन नये अखबार निकलते हैं और बन्द हो जाते हैं। जन्म के कुछ ही समय बाद घाटे का समान उनकी गर्दन पर चढ़ बैठता है और वे बेचारे दम तोड़ देते हैं। अखंड-ज्योति ऐसे आक्रमण से बची रही हो सो बात नहीं है, उसने उन मर्मान्तक आक्रमणों को सहा है किन्तु पाठकों के जिस प्रेम की अमर टुटी को पीकर वह जीवित है और जीवित रहेगी उसके लिये अपने पाठकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करना और धन्यवाद देना हमारा प्रथम कर्तव्य है।

अखंड ज्योति, छपे कागजों को बेचने का व्यापार करने के उद्देश्य से नहीं निकाली गई है। इसका अपना एक मिशन-उद्देश्य है। मनुष्य सम्राटों के सम्राट, सच्चिदानन्द परमात्मा का उत्तराधिकारी, राजकुमार है। मनुष्य की शक्ति महान है। परमात्मा में जो गुण हैं वे सब उसमें भरे हुए हैं किन्तु जिस प्रकार एक सिंह का बच्चा भेड़ों के साथ रहकर अपने को भेड़ समझने लगा था वही दशा माया के संसर्ग से मनुष्य की हुई है। अखंड ज्योति का मिशन है कि हर सिंह अपने वास्तविक स्वरूप को जाने और अपने अधिकारों का दावा पेश करे। हमारा कार्य उस दर्पण के समान है जिसमें अपना रूप देखकर सौंदर्यवान देहधारी प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। मनुष्य अपने में देवत्व का दर्शन करे और वह वस्तु जिसकी तलाश में युगों से मारा-मारा फिर रहा है अपने अन्दर प्राप्त करे इसी कामना से अखंड ज्योति अवतरित हुई है। हमारे लिये यह प्रभु की सच्ची भक्ति है कि उसके पुत्रों को उसकी गोद तक पहुँचाने का एक विनम्र प्रयत्न करें। गत एक वर्ष से हमने दर-दर पर अपने इसी उद्देश्य का अलख जगाया है।

फकीरों की तरह द्वार-द्वार पर अलख जगाने सशरीर हम न पहुँच सके न सही। कागज के पत्रों पर अपने विचार और अपनी आन्तरिक भावनाओं को लपेट लपेट कर हमने दूर देशों में उन्हें भेजा है क्या यह प्रयत्न व्यर्थ गया? नहीं। अपने अज्ञान के कारण संसार के दारुण दुखों से पीड़ित जन समूह ने, सत्य मार्ग को खोजने वाले जिज्ञासुओं ने, कान खोलकर सुना कि यह क्या कहती है। इस एक वर्ष में करीब चौथाई लाख व्यक्तियों के घर वह कई कई बार अलख जगाने पहुँची। जिनने इस अलख को सुना उनमें से बहुतों ने उसे प्यार किया, आश्रय दिया और छाती से लगा लिया। इन पंक्तियों को लिखते समय अखंड ज्योति का उदार परिवार शरीर सहित हमारे निकट नहीं बैठा है परन्तु उनकी अत्यंत पवित्र और उच्च भावनाओं को हम अपने चारों ओर मँडराते देख रहे हैं। इतना बहुमूल्य पुरस्कार पाकर हम अपने को धन्य मान रहे हैं और वह धन्य ध्वनि हमारे मानस तन्तुओं में झंकृत होकर प्रतिध्वनि के रूप में अखंड ज्योति के लिये शुभकामना करने वाले समस्त सदस्यों के लिये प्रेरित हो रही है। यही हमारा विनम्र धन्यवाद, प्रेम और आशीर्वाद है पाठक इसे स्वीकार करें।

अखंड ज्योति का प्रथम वर्ष कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण रहा आध्यात्मिक तत्व के विशिष्ट पहलुओं पर विचार-विनिमय करने के लिये देश विदेश से कोई अठारह हजार व्यक्तियों के अड़तीस हजार चालीस निजी पत्र आए। इन सब का अपनी योग्यता के अनुसार विस्तारपूर्वक समाधान किया गया। यह सज्जन कृपापूर्वक उत्तर के लिये टिकट भेजते रहे हैं पर जिन्होंने नहीं भेजे उनके लिए लिफाफे भेजने में कार्यालय को एक सौ चौरानवे रुपये अपनी जेब से खर्च करने पड़े। तीन सौ के करीब जिज्ञासु अपनी रुचियों के अनुसार विभिन्न प्रकार के साधन इनसे परामर्श लेकर कर रहे हैं। सूर्य चिकित्सा और प्राण चिकित्सा विधि से अनेक सज्जन दीन दुखियों का भला कर रहे हैं। “पर काया प्रवेश” जैसे दुरूह विषय को पत्र व्यवहार द्वारा सिकानेडडडडड और उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करने का प्रयत्न निश्चय ही बड़ी अद्भुत बात है क्योंकि यह विषय कार्यरूप में इतनी सफलता के साथ प्रयोग में आते हुए और कहीं नहीं देखा गया था। कुछ अभ्यासियों के सहयोग से पीड़ित की चिकित्सा करने का ‘आनंद प्रतिष्ठा’ नामक केन्द्र स्थापित किया गया था जिसके द्वारा दो सौ से अधिक व्यक्तियों को स्वास्थ्य लाभ हुआ इनमें से तीस तो ऐसे थे जिनके प्राण बचने की लोगों को बहुत कम आशा थी। इतने कार्य किये जा सके। अपनी तुच्छ योग्यता और सेवा के इतने परिणाम को देख कर हमारी छाती फूल उठती है और प्रभु की प्रभुता को देख कर प्रसन्नता से होंठ खिल उठते हैं।

कदाचित कुछ प्रेमी इस बाहरी रूप को देखकर अखंड ज्योति की भीतरी स्थिति भी जानना चाहते होंगे उन्हें कुछ थोड़ा सा भीतरी परिचय करा देना इसलिये आवश्यक प्रतीत होता है कि पाठको को हम अपना परिवार समझते हैं उन्हें हक है कि अपनी चीज के बाहरी रूप को देखने के साथ-साथ भीतरी बातें भी जानें।

अखंड ज्योति का संचालन इन पंक्तियों के लेखक-संपादक-आर्थिक दृष्टि से कोई ऊंचा व्यक्ति नहीं है। अपनी कुल एक हजार रुपये की छोटी−सी पूँजी से उसने इतने बड़े उत्तरदायित्व के जहाज का लंगार खोल दिया था। उसका विश्वास है ‘नरसी भगत’ वाले ‘सावलियाँ शाह’ इस जहाज को पार लगाएंगे। छह सात महीने में संचालक की वह पूँजी समाप्त हो गई और घाटे का मसान गला घोटने के लिये सामने आ खड़ा हुआ। अर्थ चिन्ता बड़ी कठिन होती है। आमदनी बढ़ाना या खर्च घटाना वही दो सूरतें हो सकती थीं। आमदनी बढ़ती न दिखी तो खर्च घटाया। तिरंगा मुखपृष्ठ छोड़ना पड़ा, भीतर की रंगीन तस्वीर बंद कर दी गई, कागज हलका हुआ, रोगियों का उपचार करने वाले अभ्यासियों को तितर बितर हो जाने दिया दफ्तर का मकान पन्द्रह रुपये माहवार किराये से घटाकर चार रुपये महीने के छोटे कमरे में लाया गया।

जिन अमूल्य पुस्तकों का विज्ञापन किया गया था वह बहुत लेट छपीं, कई तो अब तक बिना छपे पड़ी हैं और जिज्ञासु लोग उस सद्ज्ञान से वंचित हैं। चंद अनिवार्य कार्यकर्ताओं को छोड़कर शेष कर्मचारियों का कार्य भी संपादक ने अपने ही हाथ में ले लिया और नित्य सोलह घंटे स्वयं काम करने की व्यवस्था हुईं। इस प्रकार खर्च में बहुत कुछ कमी करके घाटे को हलका किया गया। फिर भी असुविधा दूर नहीं हो सकती हैं। डेढ़ रुपया वार्षिक मूल्य में अखबार के कागज छपा, पोस्टेज आदि के बाद इस महंगी के जमाने में भला क्या बच सकता है? ऐसी दशा में कार्य की महत्ता को देखते हुए घाटे का होना स्वभाविक ही है।

असंख्य पीड़ियों को लाभ हुआ परन्तु आनंद प्रतिष्ठान द्वारा अपनी नीति ‘न माँगने’ की होने के कारण ‘न कुछ’ के बराबर आय हुई। उतने से अभ्यासियों का खर्च तो दूर कागज लिफाफों का व्यय भी पूरा न हुआ तब माँगने की नीति ग्रहण करने के बजाय उस अत्यंत उपयोगी कार्य को ही बंद कर देना पड़ा। इसी प्रकार अखंड ज्योति के लिये अपने उदार बंधुओं से याचना करते तो झोली खाली न रहती। परन्तु हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि लोकोपयोगी कार्य, जो जनता जनार्दन की निस्वार्थ सेवा के लिये पवित्र भावनाओं से किये गए हैं, यज्ञ हैं और यज्ञ की बाह्य व्यवस्था का भार प्रभु पर है। “योगक्षेमं बहाम्यहम्” वह प्रतिज्ञा बद्ध है कि सत्य धर्म की रक्षा करे। फिर हम किसी से क्या याचना करें? यदि हमारे कार्य अपवित्र हैं, हमारी भावनायें हीन हैं तो हमें नष्ट होना ही चाहिये और यदि हम धर्म प्रचार के मिशन के लिये जीवित हैं तो वह घट-घट वासी परमात्मा जिन्हें निमित्त बनाना चाहता होगा उनके हृदय में प्रेरणा करेगा कि इस मुरझाते हुए धर्म तरु को सींचने के लिये अपने भरे हुये जल पात्रों में से एक-एक चुल्लू इसके लिये भी त्याग करें। अखंड ज्योति परिवार गुण ग्राहकों, सच्ची सेवा का महत्व जानने वाले बंधु जनों, उच्च अधिकारारूढों, महापुरुषों, साधु महात्माओं, ईश्वर भक्तों, और सुहृदयों से भरा पड़ा है। ईश्वर जब उनके हृदयों में प्रेरणा करेगा तो वे अपनी श्रद्धानुसार इस मुरझाते हुये धर्म तरु को सींचने के लिये स्वयं दौड़ेंगे। यह काम हमारा नहीं है कि अपनी तप विशुद्ध कर्तव्य को पूरा करने के साथ-साथ झोली भी पसारे फिरें। हमें ‘नरसी भगत’ वाले ‘साँवलिया शाह’ पर विश्वास है। कदाचित वह परीक्षा कर रहे हैं। आज नहीं तो कल उन्हें अर्थ संकट के कारण मुरझाते हुए इस धर्म तरु को सींचने का प्रबन्ध करना पड़ेगा। अखंड ज्योति अखण्ड है वह खंडित नहीं होगी। तेल निबट जायगा तो बत्ती जलेगी, बत्ती निबट जायगी तो दोवट जलेगी। जब तक जीवन रहेगा। जला जायगा। अपने पड़ोसियों तक प्रकाश पहुँचाने के लिये टिमटिमाता रहा जायगा।

अखंड ज्योति के पाठकों को यह रोना सुनाकर उनके प्रफुल्लित हृदय पर दुख की एक रेखा दौड़ाने की हमारी कोई इच्छा नहीं थी पर प्रसंगवश सचाई को छिपाया न जा सका। हमें इस सम्बन्ध में और किसी से कुछ नहीं कहना है। परिवार से हमें एक ही बात की याचना करनी है वह यह है कि हमारे पवित्र उद्देश्यों के प्रचार में मदद करें। यह कर्तव्य जितना हमारा है उतना ही हर एक पाठक का है। यह एक पवित्र पुण्य कर्तव्य है जो हम सबको करना ही चाहिये। आत्म ज्ञान के महान मिशन को मनुष्य मात्र तक तभी पहुँचाया जा सकता है जब जंजीर की सभी कड़ियाँ अपना अपना विस्तार करें। जो ज्ञान आप तक पहुँच रहा है उसे दूसरों तक पहुँचाइए। आप जब अखंड ज्योति को पढ़ लें तो दूसरों को पढ़ने दें। जो पढ़े नहीं हैं, उन्हें पढ़कर सुनावें, जिनकी इस विषय में रुचि नहीं है उनमें रुचि उत्पन्न करें, जो ग्राहक बन सकें। उनसे बलपूर्वक इसके लिये अनुरोध करें। डेढ़ तथा रुपया मूल्य सब दृष्टियों से कम है इन घाटे के दिनों में तो कमी करना और भी कष्टप्रद है फिर भी यदि कोई जिज्ञासु असमर्थ हो और ग्राहक बनना चाहते हों तो उतना ही पैसा दे दें जितना वे दे सकते हैं। जो उधार ग्राहक बनना चाहें वे भी बन सकते हैं, सुविधानुसार पैसे चुका दें। हमें प्रत्येक पाठक की ईमानदारी पर पूर्ण विश्वास है।

आज गत वर्ष के अन्त और नवीन वर्ष के आगमन की संध्या में हमारी एक और भी इच्छा हो रही है वह यह कि अखण्ड ज्योति के सभी प्रेमी पाठक अपने कुशल समाचार व अपनी आध्यात्मिक आकाँक्षायें हमें लिख भेजें। और गत वर्ष के अखण्ड ज्योति के कार्य की निष्पक्ष समालोचना करते हुये बतावें कि इसको और अधिक उत्तम कैसे बनाया जा सकता है। हमें एक पत्र लिखते में पाठको का एक लिफाफा अवश्य खर्च होगा पर इसमें हम लोग एक दूसरे के हृदयों के अधिक निकट आवेंगे। हमें पता है कि प्रेमी पाठक अपने प्रेम सम्बन्ध का इस वर्ष-संध्या के उपलक्ष में एक पत्र द्वारा अपने प्रेम सम्बन्ध का परिचय देंगे।

अन्त में हम अपने समस्त परिवार से अपनी एक वर्ष की त्रुटियों के लिये क्षमा माँगते हैं और उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि भविष्य में उत्तमोत्तम सामग्री एवं सद्भावनाओं के साथ अपना अलख जगाने का कार्य अधिकाधिक उत्साह के साथ जारी रखेंगे। आपने पिछले वर्ष जो सहयोग दिया है और आगे देने वाले हैं उसके लिये एक बार पुनः हमारा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार कीजिये।


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