स्वरयोग से रोग निवारण

December 1940

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(ले. श्री नारायण प्रसाद तिवारी ‘उज्ज्वल’ कान्हीवाड़ा)

मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, ऑकल्ट साइन्स आदि सब इसी के अन्तरंग हैं तथा स्वर योग भी योग का एक अंग है। स्वास्थ्यनाशक रोगों का उपचार स्वरयोग द्वारा किया जा सकता है, औषधियों की अपेक्षा यदि कोई श्रद्धा और योग शक्ति से या ईश्वर शक्ति को अन्दर में उतार कर रोग से पूरी तरह छुटकारा पा सके तो इससे केवल द्रव्य ही की बचत नहीं किन्तु मनुष्य सुखपूर्वक पूर्णायु भोगने योग्य भी होता है। प्रकृति देवी के सहारे रहने वाले एक ग्रामवासी को कृत्रिम सभ्य कहलाने वाले शहर निवासी की अपेक्षा आप अधिक स्वस्थ तथा हृष्ट पुष्ट देखेंगे वह अनपढ़ तथा अज्ञानी होते हुए अव्यक्त रूप से प्रकृति का सहारा लेता है। इसी सिद्धान्त पर अब मैं सूक्ष्म रूप से उन उपायों का वर्णन करूंगा। जो रोग निवारण के लिए ईश्वरीय शक्ति पर निर्भर है।

मानव शारीरिक शक्ति, प्राण शक्ति का एक रूप है और योगक्रिया बहुत कुछ प्राण शक्ति पर अवलंबित है। योग द्वारा रोग मोचन के अनेक रूप हैं जो भद्दे से भद्दे झाड़-फूँक से लेकर मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म टेलीपैथी स्प्रिचुआलिज्म जैसे प्रचलित परिष्कृत तक हैं। प्रकृति दजडडडडड वायु शक्ति और सूर्य रश्मि सब के लिये मुक्त है और प्रत्येक पुरुष उदारता से इनका सदुपयोग कर लाभ प्राप्त कर सकता है।

चूहे मरने पर संक्रामक रोग प्लेग का भय होता है, जब बदन में अंगड़ाइयाँ आती हैं, दर्द होता है तो बुखार की सूचना होती है। छींकें आरम्भ होती हैं। जुकाम का नोटिस मिलता है आदि ऐसे लक्षण विशेष भास होने पर रोग विशेष के आक्रमण की शंका हुआ करती है। शारीरिक रोग इस बात का चिन्ह हैं कि शरीर में कहीं कुछ अपूर्णता या दुर्बलता है अथवा भौतिक प्रकृति विरोधी शक्तियों के स्पर्श के लिये कहीं से खुली है हुई तो यह स्पष्ट है कि रोग बाहर से हमारे अन्दर आते हैं। जब ये आते हैं तभी यदि कोई इनके आने का अनुभव कर सके और इनके शरीर में प्रवेश करने के पहले ही इन्हें दूर फेंक देने की शक्ति और अभ्यास उसमें हो जाय तो ऐसा व्यक्ति रोग से मुक्त रह सकता है जब यह आक्रमण अन्दर से उठता हुआ दिखाई देता है तो समझना यही चाहिये कि आया तो बाहर से है पर अब चेतना में प्रवेश करने के पहले पकड़ा नहीं जा सका, इस प्रकार रोग शरीर को आक्राँत कर लेता है इस भौतिक शरीर में रोग घुसने के पहले ही इसे रोक दिया जा सकता है, और यह क्रिया स्वर योग द्वारा सरलता तथा सफलतापूर्वक की जा सकती है, यहाँ यह शंका हो सकती है कि स्वर योग में ऐसी क्या खूबी है, समाधान यह है कि समस्त रोग शरीर में सूक्ष्म चेतना और सूक्ष्म शरीर के ज्ञान तन्तुमय या प्राण भौतिक कोष द्वारा प्रवेश करते हैं। जिसे भी सूक्ष्म शरीर का ज्ञान है अथवा सूक्ष्म चेतना से सचेतन है वह रोगों को रास्ते में ही अटका सकता है, हाँ यह सम्भव हो सकता है कि निद्रावस्था में अथवा अचेतन अवस्था में जब कि आप असावधान हैं कोई कोई रोग आकस्मिक आक्रमण करें दे प्रायः शत्रु इसी प्रकार वार करते हैं किन्तु फिर भी आँतरिक साधन द्वारा प्रथम आत्मरक्षा के लिये शत्रु प्रहार को वहीं रोक कर वहाँ से भगाया जा सकता है। स्वर योग द्वारा रोग के लक्षणों का तनिक भी आभास न होने पर भविष्य का ज्ञान होकर उससे बचने का भी उपाय हो सकता है।

इच्छा शक्ति के दो भेद हैं ऑटो सजेशन और सैल्फ सजेशन। अर्थात् झाड़ फूँक, तंत्र, मंत्र आदि द्वारा दूसरों को भला चंगा करना ऑटो सजेशन है। स्वर योग सैल्फ सजेशन है।

निःसंदेह रोग पर अंदर से क्रिया की जा सकती है परन्तु कार्य सदा सहज नहीं होता। कारण जड़ प्रकृति बहुत अधिक प्रतिरोध किया करती है, इसमें अकथ प्रयत्न की आवश्यकता है संभवतः आरम्भ में यह प्रयास असफल प्रतीत हों किन्तु क्रमशः अभ्यास करने पर शरीर या किसी रोग विशेष पर नियंत्रण करने की शक्ति बढ़ जाती है और रोग के आकस्मिक आक्रमण को आँतरिक साधनों के द्वारा आराम कर लेना सहज हो जाता है, हाँ जीर्ण रोग का अंतः क्रिया द्वारा उपचार करना आरम्भ में कठिन अवश्य है, किंतु फिर भी शरीर की सामाजिक अस्वस्थता सहज में दूर होकर लाभ हो सकता है, यह भी सफलता प्राप्ति की एक सीढ़ी है इसके बाद अपने अभ्यास को बढ़ाओं कि तुम्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हो।

श्वास विज्ञान में प्रधानता इस बात की है कि श्वास सदा नाक से ली जावे जिसे मुँह से श्वास लेने की आदत हो उसे छोड़ दे तब आगे अभ्यास करे श्वास लेने के अवयवों की रक्षा की सामग्री प्रकृतिप्रदत्त है किंतु मुँह से लेकर फेफड़े तक ऐसी कोई चीज नहीं है जो हवा को छान करके साफ करे, मुँह से श्वास लेने में जब सर्द हवा फेफड़ों में पहुँचती है तो भारी क्षति पहुंचती है यहाँ तक कि श्वास अवयवों में प्रायः सूजन आ जाती है और नाक के नथुनों से कम काम लिये जाने के कारण वे साफ नहीं रहते और नासिका सम्बन्धी रोग हो जाया करते हैं।

अपने रोग प्रायः अपान वायु की गड़बड़ी के कारण ही हुआ करते हैं। नाभि से गुदा तक अपान वायु का स्थान है और हम जो श्वास मुख अथवा नाक से लेते है वह नाभि तक जाते है जिसका नाम प्राणवायु है, इस प्रकार नाभी समान वायु का स्थान है और भी वायु का स्थान है और भी वायुओं के पृथक स्थान शरीर में हैं। जिनका रोग और निरोगता से क्या संबंध है यह किसी अगले अंक में वर्णन करूंगा। अपूर्ण


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