(श्री. रामभरोसे पाठक अध्यापक, नदीगाँव)
एक समय था कि सर्वत्र तांत्रिकों का प्रचण्ड आधिपत्य था, मन्त्र की शक्ति से सर्वसाधारण अपरिचित नहीं थे वरन् उसमें श्रद्धा तथा भक्ति का झुकाव था। डमरा वा तन्त्र का भी बोलबाला था परन्तु समयानुकूल सभी बदल गये। मन्त्र संसार में आज जो दुर्गा सप्तशती का स्थान है तथा इसका प्रभाव है वह सर्व साधारण में गोप्य नहीं है परन्तु वर्तमान समय में कुछ उतावली जिज्ञासुओं ने सर्वसाधारण की यह धारण करा दी है कि सप्तशती के मन्त्र कीलित है एतदर्थ उनका स्फुरण नहीं हो सकता। हाँ! यदि कोई उन्हें सविधि उस कीलन से मुक्त कर दे अर्थात् उत्कीलन हो जाय तो वह मन्त्र आज भी फलप्रद हैं और तात्कालिक फल के देने वाले हैं।
किसी जिज्ञासु को इन मन्त्रों का स्फुरण क्यों नहीं हुआ, यह तो वही जाने परन्तु उनका कहना है कि वे कीलित हैं इससे फलित नहीं होते। और इस का समाधान वे यहाँ से करते हैं कि ‘कीलक’ ‘जो दुर्गा सप्तशती में एक अध्याय है’ में एक मन्त्र हैं। ‘इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलतम्’ उनका कहना है कि श्री महादेव जी ने मन्त्र कील दिये हैं तो क्या महादेव जी को इन मंत्रों का स्फुरण स्वीकार न था कि संसार में प्राणिमात्र का इनसे भी कुछ काम सरे? तथा फिर वह उत्कीलन कहाँ है जिससे वह मन्त्र उससे मुक्त हों।
योगेश्वर श्री शंकर भगवान् आशुतोष हैं सब पर कृपा करते हैं उन्हें संसार के प्राणियों की दशा ज्ञात है वे मृत्युलोक के प्राणियों की दशा से अनभिज्ञ नहीं है एतदर्थ जहाँ ‘महादेवेन कीलितम्’ है उसी के पहिले भगवान ने स्पष्ट कहा है ‘ददाति प्रति गृहृाति’ अर्थात् दो और लो। परस्पर व्यवहार है उनका स्पष्ट कथन है कि श्री जगदम्बा माता के अर्पण करो फिर उन्हीं से लो, यह अर्पण करना क्या है? बस यही कि पहिले कुछ निःस्वार्थ हो कर तो करो कि केवल हाथ फैला कर लेने को ही उत्सुक हो , भजन, पाठ, पूजन, अर्चन, वन्दन, अनुष्ठान इत्यादि सभी कुछ, पहिले निःस्वार्थ भाव से राग रहित हो कर, निष्काम हो कर करो कुछ दिन इसी प्रकार अभ्यास करो तदुपरान्त भगवान योगीश्वर कृष्णा के गीतोक्त कथानुसार जो मुझे जैसे भजता है वैसे ही मैं उसे फल देता हूँ एवं उसकी मनोभावनाएं पूर्ण करता हूँ के कथानुसार आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होती चलेगी? इस प्रकार नहीं होगी कि कुछ किया तो है ही नहीं (अर्पण नहीं किया) कि लगे माँगने-हमें धन दो हमें पुत्र दो अमुक मनुष्य की अमुक मनोभिलाषा पूरी हो?
कीलित मन्त्रों का उत्कीलन इतना ही है कि ‘परस्पर दो और लो’ मन्त्रों का स्पष्ट उच्चारण एवं शुद्ध भाव होना अत्यन्त अनिवार्य है अन्यथा विफल हो जाना सम्भव है।