महाबन्ध मुद्रा

December 1940

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(लेखक-श्री. उमेशचन्द्र जी, श्रीराम तीर्थ योगाश्रम)

244 सेन्डहर्स्ट रोड, बम्बई 4

जब साधक योग के अन्तरंग साधन में प्रविष्ट होता है, तय उसे अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होने लगते हैं, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि इन चारों को योग के अंतरंग साधन कहते हैं, प्रत्याहार और धारणादि के अभ्यास काल में कुँडलिनी शक्ति जाग्रत करनी पड़ती हैं, कुण्डलिनी शक्ति के उत्थान के समय में और होने के पश्चात् साधक की बुद्धि अत्यन्त तीव्र हो जाती है, शरीर अत्यन्त तेजोमय बनता है, कुण्डलिनी उत्थान के लिये खेचरी मुद्रा, महामुद्रा, महाबन्ध मुद्रा, महावेद मुद्रा, विपरीत करणी मुद्रा, ताडन मुद्रा, परिधान युक्ति, परिचालन मुद्रा और शक्ति चालन मुद्रा आदि उत्कृष्ट अनेक मुद्राओं का अभ्यास करना पड़ता है। आगे एक ऐसी मुद्रा का उल्लेख किया जाता है।

महाबन्ध मुद्रा करने की रीति

प्रथम बाँया पैर शिवनी (अंडकोष और गुदा का मध्य स्थान) में और दाहिने पैर की एड़ी को बाँये पैर की जंघा के मूल (स्वाधिष्ठान कमल के बाजू) में रखें। बाँई हथेली और दाहिनी हथेली को दाहिने पैर के घुटने पर रखें, कमर पीछे रीढ़ और शिर सीधा रखें, छाती को जरा आगे की तरफ झुका कर रखें, आँखें बन्द रखें, शरीर को साधारण कड़क रखें, फिर दोनों नासिका संघर्षण (एक बार श्वास को फेफड़े में भरना और तुरन्त ही खाली कर देना उसे एक घर्षण कहते हैं) कर के बाँई नासिका से पूरक करें (श्वास भीतर लेना) कुँभक के समय दोनों हाथों से दाहिने पैर के घुटने को पकड़े रहें, जालंधर बंध (दाढ़ी को कंठ कूप में लगाना) रखें। मूल बंध (गुदा को संकोचना) रखें, और यथाशक्ति कुंभक करने के पश्चात् दाहिनी नासिका से शनैः 2 रेचक करे, रेचक के समय में उड्डियान बंध (पेट को अंदर) पीठ की तरफ ले जाना करें कुम्भक समय में उत्कृष्ट भावना करे। जैसे कि- मैं आज से उन्नति मार्ग पर चढ़ रहा हूँ “मेरे शरीर में जो दुर्बलता, अपवित्रता न्यूनता रूपी दोष हैं वह आज से और इसी क्षण से दूर हो रहा है मैं इस दुनिया में आज से शुभ कार्यों में ही जुट गया “सर्व दिशा, सर्व देवता, सर्व प्राणी एवं चराचर वस्तु में से आनन्द ही आनन्द ही लूट रहा हूँ, देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ, और उसी में तल्लीन तदाकार हो रहा हूँ” आज से मेरा मन अत्यन्त शुभ स्फटिक मणि के समान परम पवित्र हो रहा है।

जिसे मोक्ष का ही पथिक बनना हो, “तो मेरा पंचप्राण एकत्र हो रहा है” ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र गणपति आदि सर्व देवता मूलाधार चक्र स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र और ब्रह्म रंध्र में अत्यन्त संतप्त हो रहे हैं “स्वाधिष्ठान चक्र में अनेक काल से कर्माशय कोष को वैघृत(वेष्टित) कर गाढ़ी निद्रा में सोई हुई कुण्डलिनी उत्थान होने की तैयारी कर रही है” मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्म रंध्र तक का रास्ता खुल रहा है “सुषुम्ना नाड़ी अत्यन्त शुद्ध होकर प्राण को उर्ध्वगति को ले जाने की तैयारी कर रही है” “सारे शरीर की नाड़ियाँ शुद्ध हो रही हैं” आदि विचार प्रवाह को चालू रखें।

उपरोक्त विधि के अनुसार बायें पैर बाजू से एक वार पूरक, कुँभक, और रेचक होने पर तुरन्त ही पैर को बदली करें। अर्थात् दाहिने पैर को सिवानी में रख और बाँये पैर को दाहिने की जंघा मूल में (उसकी बाजू में रखें) इस समय दाहिनी नासिका में पूरक करे, यथाशक्ति कुम्भक के पश्चात बाँया नासा रंध्र से शनैः 2 रेचक करे। इसी प्रकार एक बार बायीं बाजू और तुरन्त ही दूसरी बार दाहिनी बाजू पाँच-पाँच घर्षणा तथा पूरक कुम्भक और रेचक करें तब एक महाबंध मुद्रा सम्पूर्ण हुई समझना मुद्रा के समय में उत्कृष्ट भावनायें अवश्य करें, और तीन बंध ही नियमित रूप से करें।

पूरक, कुम्भक, रेचक का समय का जिस व्यक्ति को मुद्रा के विषय में अनभिज्ञ हों वे व्यक्ति अनुलोम विलोम प्राणायाम का अभ्यास करें, क्योंकि फेफड़े को एकदम अधिक प्रणाम में परिश्रम नहीं होना चाहिये यद्यपि जिसको बिना प्राणायाम सीखे मुद्रा का अभ्यास करना हो तो वह स्त्री पुरुष मुद्रा के अभ्यास काल में घर्षण खूब जोर से नहीं करें किन्तु सामान्य रूप से करें। एक मात्रा:- एक सेकेंड समझना। भूतकाल में योगाभ्यास नहीं किये हुये स्त्री पुरुष प्रथम थोड़े दिन तक चार मात्रा रेचक करे जैसा-जैसा फेफड़े में विकास इन्द्रिय स्वाधीन, प्राण काबू में मन निरोध, बुद्धि स्थिर, अहंकार शमन तथा चित्त शाँत बनता जाय वैसे 2 मात्रा की संख्या को बढ़ाते जाय सामान्य तथा व्यवहार में कुशलता मिलाने के लिये इच्छा रखने वाले स्त्री पुरुष 16 मात्रा पूरक 34 कुम्भक और 32 मात्रा रेचक करें। मुमुक्षु वर्ग (मोक्ष गामी) होए तो 34 से अधिक मात्रा कुम्भक कर सकते हैं किन्तु कम से कम 16 मात्रा पूरक और 32 मात्रा तक रेचक होना आवश्यक है।

मुद्रा का प्रमाण

4 दिन तक दो बार 4 से 12 दिन 4 बार 12 से 20 दिन तक 4 बार 20 से 30 दिन तक बार 30 दिन के पश्चात् यथाशक्ति 6 से 12 बार नित्य नियम पूर्वक करता रहे इस मुद्रा को 12 वर्ष से 100 वर्ष तक स्त्री पुरुष कर सकते हैं।

इससे लाभ

इस मुद्रा के अल्प समय के अभ्यास से शरीर में एक प्रकार का आनन्द मालूम होता है मन की खराब वृत्तियाँ नष्ट होती हैं, खराब व्यसनों से मुक्त होने के लिये मुद्रा एक अमूल्य साधन है, मुमुक्षुओं के शरीर की नाड़ियां शुद्ध हो जाती हैं, प्राण, अपान, समान, उदान, और व्यान वायु एक होकर सुशुम्ना नाड़ी में प्रवेश करने लगती है, उदान वायु समान वायु में, समान वायु व्यान वायु में, व्यान वायु अपान वायु में अपान वायु प्राणचक्र में लय होती है, उस समय अनहद आनन्द मालूम होगा, मन में असीम सुख का भरन होता है एवं आत्मानंद की प्राप्ति होती है।


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