वीर्य रक्षा के उपाय

December 1940

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(पं. राजेन्द्र प्रसाद जैन, हि.सा. विशारद, अनर्दपुर)

मनुष्य जीवन की सार्थकता उसके स्वस्थ और सुदृढ़ होने में है। उत्तम स्वास्थ्य के लिये वीर्य रक्षा आवश्यक है। स्वास्थ्य लाभ, बल बुद्धि का विकास, योगाभ्यास, विद्या पढ़ना, शारीरिक परिश्रम इनमें से वीर्य रक्षा के बिना कोई भी काम ठीक तरह से नहीं हो सकता। उत्साह, बल, स्फूर्ति और निरोगता यह सब बातें वीर्य रक्षा पर ही अवलंबित हैं।

आज कल बहुत से नवयुवक बुरी संगति और बुरे विचारों में पढ़कर वीर्य नष्ट करने लगते हैं अन्त में उन्हें प्रमेह स्वप्नदोष आदि रोग घेर लेते हैं। बहुत सी दवादारु करने पर भी उन्हें विशेष लाभ नहीं होता। इसी प्रकार कुछ नवयुवक इन्द्रिय वेग को रोक सकने में अपने को असमर्थ सा पाते हैं। कितने ही लोग ऐसे हैं जो ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा रखते हुए भी अपने को काबू में नहीं रख सकते और भ्रष्ट हो जाते हैं।

नीचे कुछ ऐसे बताये जाते हैं जिनका यदि ठीक तौर में पालन किया जाय तो वीर्य रक्षा बड़ी आसानी से हो सकती है। जिन्हें स्वप्नदोष तथा अन्य प्रकार से धातु पात होने का रोग लग गया है, वे भी अच्छे हो सकते हैं।

नियम

(1) भोजन, सात्विक करना चाहिये। मिर्च मसाले, खटाई, अधिक मीठा, गरम चीजें, मद्य माँस आदि त्याग देना चाहिये। नियत समय पर, भूख से कुछ कम मात्रा में ताजा, सादा और सात्विक भोजन खूब चबा-चबा कर खाना चाहिए।

(2) रात को जल्दी सोना और सबेरे जल्दी उठना चाहिये। सूर्योदय से कम से कम एक घंटा पहले उठना आवश्यक है।

(3) पेशाब करके तथा हाथ पैर धोकर कुल्ला करके ईश्वर का चिन्तन करते हुए सोना उचित है।

(4) पति पत्नी को छोड़कर और कोई वयस्क स्त्री पुरुष अकेले बैठकर बातचीत न करें।

(5) जहाँ तक हो सके सदाचारी, ईश्वर भक्त, शुभ कार्य करने वाले तथा उत्तम विचार वाले पुरुषों का सत्संग करना चाहिये। बुरे लोगों की संगति में कदापि न रहें।

(6) प्रातःकाल स्वच्छ वायु में नित्य कई मील पैदल घूमने जाना चाहिये।

(7) मन को हमेशा किसी काम में लगाये रहना चाहिये। बेकार बैठे रहना, आलस्य या प्रमाद में पड़े रहना अनुचित है।

(8) उत्तम कोटि की शिक्षा देने वाली पुस्तकों का ही स्वाध्याय करना चाहिये। कामोत्तेजक या अश्लील पुस्तकों, चित्रों को पास भी नहीं आने देना चाहिये।

(9) मल या मूत्र त्यागने के उपरान्त इन्द्रियों को शीतल जल से धोना चाहिये। स्नान भी जहाँ तक हो सके ठंडे पानी से ही करना चाहिये।

(10) कुछ न कुछ शारीरिक परिश्रम अवश्य करना चाहिये। हो सके तो नियमित रूप से व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि का अभ्यास करना चाहिये।

(11) संसार की नश्वरता का बार-बार चिन्तन करना चाहिये और अपनी मृत्यु को भूलना न चाहिये।

(12) स्त्री को पुरुषों के शरीर में और पुरुषों को स्त्री के शरीर में मलीनता की भावना करनी चाहिये। मन में कल्पना करके शरीर के रक्त, माँस, हड्डी, मल, मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं का स्वरूप देखना चाहिये और जिस स्त्री या पुरुष की ओर मन जाता हो उसके शरीर को घृणित मल मूत्र के पिण्ड रूप में देखना चाहिये।

(13) महीने में कम से कम दो दिन उपवास करना चाहिये। इसके लिये अमावस्या पूर्णमासी या दोनों एकादशी अधिक उपयुक्त हैं।

(14) वीर पुरुषों, ब्रह्मचारियों और कामवासना से दूर रहने वाले लोगों के चरित्रों का मनन करना चाहिये।

(15) जब इन्द्रियों का वेग प्रबल हो रहा हो तो किसी काम में लग जाना चाहिये। या अपने को इष्टदेव, गुरु, माता, पिता आदि पूज्य जनों के सम्मुख खड़े होने की भावना करनी चाहिये।

(16) नियमपूर्वक रोज कुछ समय ईश्वर का भजन अवश्य करना चाहिये।

इन नियमों का पालन करने से वे दुष्ट वृत्तियाँ शान्त हो जाती हैं, जिनके कारण अनावश्यक कामोत्तेजना होती हैं। धीरे धीरे हृदय पवित्र होने लगता है और शुभ कर्मों की इच्छा उत्पन्न होती है साथ ही कामवासना के नीच विचार अपने आप दूर होने लगते हैं। इससे वीर्य रक्षा करना सुगम हो जाता है।


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