जीवन-मेला (कविता)

December 1940

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(मास्टर उमादत्त सारस्वत, बिसवा (सीतापुर)

जीवन-मेला दो दिन का है, यहाँ किसी का रहना क्या।
क्षण-भर में मैदान साफ है, दुख-सुख का फिर कहना क्या।
तरह-तरह के रूप लिये जो बैठे मानव इधर-उधर।
कह सकता है कहो कौन, कब चला जायगा कहाँ, किधर?
‘गिरह-कटों’ से होशियार रह, साफ निकल जा बचकर तू।
‘घोर उमस है, अमित भीड़ है’ हो न विकल जा बचकर तू
लगी दुकानें देखभाल ले माल कहाँ का सच्चा है।
समझ बूझ कर दाम लगाना, काम यहाँ का कच्चा है।
ध्रुव-निश्चित, है यह परदेशी यहाँ न रहने पायेंगे।
एक-एक कर आये थे जो, एक-एक कर जायेंगे॥
पल भर के इस मेले में क्यों ऐंठा-ऐंठा फिरता रे।
दौड़ा-दौड़ा घूम व्यर्थ मत, मन में ला सुस्थिरता रे


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