पर्दे और झंडे की लड़ाई

December 1940

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(महात्मा शेखसादी के गुलिस्ताँ से अनुवादित)

बगदाद शहर के राजा के यहाँ एक कीमती कपड़े का थान पहुंचा। राजा ने उसे बहुत पसन्द किया और उसमें से आधे कपड़े का डयोढ़ि यों पर टाँगने का पर्दा और आधे का झण्डा बनवा दिया।

दानों को अपना-अपना काम करते बहुत दिन हो गये। एक दिन संयोगवश दोनों एक ही स्थान पर फिर एकत्रित हो गये। किसी सिपाही ने बाँस में लगे हुए उस झंडे को डयोढ़ी के दरवाजे के पास ही ला रखा था।

बहुत दिनों बाद आपस में मिलने पर उन्हें बड़ी खुशी हुई और आपस में कुशल समाचार पूछने लगे।

पर्दे के पूछने पर झंडे ने कहा-भाई क्या कहूँ? मुझे थोड़ी देर के लिये भी चैन नहीं मिलता। वक्त बे वक्त सदा ही चलता रहता हूँ। रास्ते की धूल उड़-उड़ कर मुझ पर पड़ती है और थकावट से बेचैन रहता हूँ। किन्तु तुम्हारा भाग्य धन्य है जो राज दरबार के द्वार पर आनन्द के साथ रहते हो और किसी प्रकार का कष्ट न उठाकर शान्ति की जिंदगी बिताते हो।

हम तुम एक ही जगह पैदा हुये हैं और एक ही राजा के काम आते हैं परन्तु तुम आराम की और मैं मुसीबत की जिन्दगी काटता हूँ। इसका क्या कारण है? क्या तुम बता सकते हो?

पर्दे ने उत्तर दिया- मैं चौखट पर शिर रखता हूँ। और तुम आकाश में शिर उठाते हो।

नम्र होकर चलने वाले, दुनिया के सामने विनय के साथ गरदन झुकाने वाले, शान्ति और संतोष का जीवन बिताते हैं, उच्च स्थान पर सम्मान पाते हैं, किन्तु जिनका शिर घमंड से आकाश में उड़ता है उन पर धूल पड़ती है और थक कर शिर पटकते रहते हैं।


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