अहंभाव का प्रसार करो।

December 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. शिवनारायण शर्मा हैडमास्टर, माईथान आगरा)

वान प्रस्थ आश्रम

ब्रह्मचर्य अवस्था में विद्या (ज्ञान) संग्रह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं, फिर आश्रमोचित अनेक प्रकार के कर्तव्य सम्पादन करके कर्म द्वारा ज्ञान का परिपाक साधन पूर्वक वानप्रस्थाश्रम लेते हैं। फिर संन्यासाश्रम में प्रवेश करके ब्रह्म चिन्ता में मग्न रह कर ब्रह्म में लीन होते हैं। यह प्राचीन प्रथा सार्वजनिक नियम के ऊपर स्थापित और आत्म प्रसार के अनुकूल है। वयोवृद्धि के साथ हमारी देह और मन में अनेक परिवर्तन होते जाते हैं फिर उनके साथ दैहिक और मानसिक क्रिया भी बदलती जाती है। बचपन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, जवानी प्रौढ़ और बुढ़ापे में नये-नये आकार धारण करते हैं। जो-जो वस्तुयें, कार्य और विचार एक अवस्था में अतुल आनन्द वा अत्यन्त दुःख का कारण होती हैं, दूसरी अवस्था में उनकी वह शक्ति नहीं रहती। बालिका, गुड़ियों के खेल, पुत्र कन्या के लालन-पालन में कितने आनन्द से विह्वल है, किंतु युवती उससे परितृप्त नहीं उसे यथार्थ पुत्र कन्या की आवश्यकता है। आत्मा विकास के साथ आत्म तृप्ति करने वाले पदार्थों की सीमा बढ़ाना आवश्यक है। संसार की अनित्यता अनुभव करके, बुढ़िया युवावस्था में जिस पुत्र कन्या रूपी गुड़ियों को लेकर मग्न थी, शायद अब वह उनमें उतनी मुग्ध न रह सके, उसके चित्त की सुख-शाँति के लिये अधिकतर नित्य वस्तु की आवश्यकता होती है।

तत्वज्ञ दूरदर्शी ऋषियों ने विश्व का कल्याण व्रत साधन के उद्देश्य से मानव जीवन चार भागों में विभक्त करके उसका क्रम विकास के उपयोगी कर्तव्य निश्चित किये हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में ज्ञान का जो संग्रह होता है, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम में उसकी उन्नति परिणति एवं संन्यस्त आश्रम उसकी पूर्ण परिणित साधन करते हैं। मुक्ति ही जीवन का उद्देश्य और परिणित है, आत्मा के प्रसार वा विकास की पूर्णता के साथ मुक्ति का कुछ भी प्रभेद नहीं है। जब तक सर्वत्र भेद भाव पुष्ट होता रहे, सर्वत्र एकत्व अनुभव न हो, सारा संसार जब तक एक सूत्र में गुंथित न दिखाई पड़े, तब तक मानव शोक मोह परित्याग कर चिरशान्ति उपयोग का अधिकारी नहीं है। अपना-पराया यह भेद ज्ञान नष्ट होने पर, सर्वत्र एकता का अनुभव होने पर शोक मोह को स्थान फिर कहाँ? एकत्व का अनुभव ही यथार्थ तत्व ज्ञान है और तत्व ज्ञान ही भक्ति का साक्षात कारण है। जगत में सब ही सुख के लिये लालायित हैं किन्तु जिस सुख में दुःख मिला हुआ हो, वह सुख सुख ही नहीं है। यदि दुख रहित या दुःख से निरपेक्ष कोई सुख हो तो वही सुख यथार्थ सुख व शान्ति है, विचार कर देखिये तो किसी भी असीम वस्तु में आप सुख सिद्ध नहीं कर सकेंगे। सीमा पर पहुँचने पर अनन्त विकासशील मानवात्मा मानो हाथ जोड़े हुए, बिलकुल समीपता से, स्तब्धचित्त से करुणामय स्वर से, सतृष्ण नयन से असाध्य प्रार्थना में प्रवृत्त हो रहा है। जब मानवात्मा ससीम प्रदेश में ससीम देशान्तर में पर्यटन करके, असीम साम्राज्य में असीमात्मा के प्रसाद से असीमत्व पर अधिकार करता है, तब ही वह यथार्थ सुख वा शान्ति सम्भोग करता है। ससीम प्रदेश में ही अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कामना एवं प्राप्त वस्तु के वियोग (नाश) की आशंका रहती है। एवं इस कारण निरन्तर अशान्ति भोगनी पड़ती है। असीम साम्राज्य में अप्राप्त कुछ नहीं है और प्राप्त वस्तु के नाश की आशंका भी नहीं है। अतएव उसी स्थल में सदा सुख और शाँति विराजती है।

ब्रह्मचारी का कार्यक्षेत्र संकीर्ण है आत्मोन्नति साधन ही उसका प्रधान कर्तव्य है। विद्यालय वा गुरुगृह ही उसका विश्व है।

इस संकीर्ण रंग मंच पर उसके जीवन अंश अभिनीत होने की व्यवस्था है। यहाँ वह बिलकुल पराधीन है, उसे जो कुछ करना होगा वह गुरु की अनुमति लेकर ही करना होगा, बिना तर्क के गुरु का उपदेश प्रतिपालन करना होगा। प्रथम मृदु फिर क्रम से कठोर संयम द्वारा शरीर और मन को कार्मोंपयोगी करना होगा। जीवन द्वितीय विभाग के सब कर्तव्य का पालन के लिये ब्रह्मचारी को देह मन जिस प्रकार संगठित करना आवश्यक है, उसी प्रकार संगठित कर लेने पर आर्य ऋषि उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश का अधिकार देते हैं। कर्म क्षेत्र में गृहस्थ को जो तुमुल संग्राम करना होगा, सैंकड़ों अत्याचार अविचार के विरुद्ध उसे खड़ा होना होगा, सैंकड़ों प्रलोभनों को पद दलित करना होगा, अनेक शुद्ध हृदय दुर्बलताओं का त्याग कर कर्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ना होगा, साधुओं की सेवा और दुष्कृतों के संस्कार के लिये एवं धर्म की रक्षा के लिये तथा अधर्म के विनाश के लिये उसे सैंकड़ों बार महाविपद में पड़ना होगा, यह विचार कर शिष्य को मंगल कामना से प्राज्ञ और सुदूरदर्शी गुरु उसे धर्म कवच से आच्छादित और कर्म वीरोपयोगी अनेक प्रकार के आग्नेयास्त्र से सुसज्जित कर सैंकड़ों शत्रुओं से क्षोभित संसार समरागंण में प्रेरणा करते हैं। ब्रह्मचारी संकीर्ण कार्यक्षेत्र परित्याग कर अब विस्तीर्ण कार्यक्षेत्र में प्रवेश करता है। कार्यक्षेत्र प्रसारित होने के साथ ही साथ उसके अहंभाव का प्रसार भी होने लगा। स्त्री पुत्र, कन्या, आत्मीय कुटुम्ब, अतिथि, अभ्यागत, दीन दुखी, रोगी, विकलाँग, इत्यादि बहुत से पालन करने योग्य प्राणियों से घिरकर गृहस्थ का अहंभाव दिन दिन फैलने लगा। असंख्य कर्तव्य आकर उसके सामने उदित होने लगे और उन्हें सम्पादन करने के लिये वह अपने मन और प्राण उत्सर्ग करने लगे। कार्यक्षेत्र में वे अनुभव करने लगे कि देह के किसी अंग का अमंगल होने पर सारा शरीर पीड़ित वा अमंगल ग्रस्त हो जाता है। मन की कोई एक वृत्ति विकृत होने से सारी वृत्तियाँ उसकी छूत से थोड़ी बहुत विकृत हो जाती हैं। परिवार में किसी एक का अकल्याण होने से समग्र समाज का अभ्युदय गिर जाता है। एवं समाज विशेष का अमंगल समग्र मानव समाज की अमंगल का भागी बनाता है। वह अनुभव कर सकते हैं कि यह मेरा नर-जीवन विश्व जीवन का ही एक अंशमात्र है एवं वृक्ष, लता पशु, पक्षी, कीट पतंग इत्यादि सबके मंगल के साथ मानव जाति का मंगल अति घनिष्ठ भाव से सम्बन्ध है। वह अनुभव करने लगता है कि क्या सजीव क्या निर्जीव सारा विश्व ही मानव जीवन से मिला हुआ है। कर्म द्वारा उसके ज्ञान का जितना परिपाक होने लगा उतना ही वह ब्रह्म से स्तम्ब पर्यन्त एक सूत्र में गुंथित देखने लगा,उतना ही वह सर्वत्र एकत्व अनुभव करने लगा। किन्तु हाय। जिस तरह घनघोर घटा। से छाई हुई अमावस की अंधेरी रात में क्षण-प्रभा क्षण काल के लिये अन्धकार दूर करके दूसरे क्षण ही असीम आकाश में विलीन हो जाती है उसी प्रकार आत्मतत्व विरोधिनी माया द्वारा आच्छन्न जीव के चित्त में अद्वैत का विवेक क्षण भर के लिए चमक कर फिर विलीन हो जाता है।

कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने पर मैं को जिस तरह जगत के साथ अच्छी तरह मिला हुआ देखते है, उस तरह कभी एकदम उस मैं का परित्याग नहीं कर सकते। कार्यक्षेत्र में रहने “हमारी देह”, “हमारा घर”, “हमारा पुत्र”, “हमारी प्रज्ञा”, “हमारा धर्म”, “हमारा कर्म” इत्यादि सर्वत्र ही हमारा हमारा भाव आ पड़ते हैं। मैं को सर्वत्र प्रसारित करना चाहिये किन्तु उसे जितना ही प्रसारित करो, ‘मुझ से’ ‘मैं’ रख देने से वह फिर सब ही मेरा मेरा कर डालता है। यह मेरा (अपना) अंश नष्ट कर देने के लिये ही वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की आवश्यकता है।

अतएव मैं संसार का परित्याग कर अरण्य- प्रवेश करूंगा। “मेरा” कहने के लिये अपना कुछ भी न रखूँगा। अथवा समग्र विश्व ही अपना करूंगा। दिव्य चक्षु सम्पन्न परमर्षियों ने यह सब जानकर ही हमारी इस वयप्य में अरण्याश्रय की व्यवस्था की थी कि गृहस्थ जब त्वचा की शिथिलता, केशों की सफेदी और पुत्र का पुत्र (नाती) देख ले, तब अरण्य का आश्रय करे। (मनु)

वानप्रस्थाश्रम लेने पर बन में “अपना” कुछ नहीं कह सकेंगे, विषय सम्पत्ति सब त्याग देंगे। स्त्री-पुत्र आत्मीज-स्वजन सबके साथ पार्थिक सम्बन्ध त्याग करें। उस समय अपनी भार्या यदि वानप्रस्थ आश्रम के संन्यास में सहधर्मिणी होना चाहे तो उसे भी साथ ले जा सकते हैं। वे जनपद का विलास त्यागकर एकान्त निर्जन में वास करें। सर्वदा विश्व की मंगल चिंता में लीन रहे सब भूतों में समदर्शी हों। उपनिषदादि आध्यात्मिक ग्रन्थों का पठन श्रवण करते रहें और परमब्रह्म की परम चिन्ता में मग्न रहें। जीवन के तृतीयाँश में इस तरह देह मन इत्यादि संयत रखकर सब भूतों में हिंसा विवर्जित होकर ज्ञानलोचन और ज्ञान वितरण द्वारा जगत का मंगल साधन कर बनी (लोकाकय के निकट) होने पर भी किसी निर्दिष्ट एकान्त स्थान में जीवन यापन करें फिर जीवन के चतुर्थांश में संन्यास व भिक्षु आश्रम ग्रहण करें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles