( ले. - पं. गोविन्द प्रसाद कौशिक )
यन्मे छिद्रंचक्षुषो हृदयस्य मनसो।
वाडतितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु॥ -यजु0 36
अपनी इन्द्रियों और अवयवों में जो-जो दोष होंगे वे ईश्वर की कृपा से दूर हो सकते हैं। मनुष्यों को उचित है कि वे ज्ञानी गुरु के पास जावें, उनकी सहायता से अपने दोषों को दूर करें और पवित्र बनें।
अजैष्माद्यासनाम चाभूमाअनामसो वयम् - ऋग॰ 10। 164। 5
सबसे पहले हमको निर्दोष बनना चाहिए। पश्चात् परस्पर प्रेम का बर्ताव करना चाहिये। जिससे विजय और यश हो सकता है।
आच्यायमानाः प्रजया धनेन।
शुद्धा पूता भवत यज्ञियासः॥
संतान और धन प्राप्त करके, सबको अपनी उन्नति करनी चाहिये। अन्दर से, बाहर से शुद्ध पवित्र और निर्दोष बनकर सबको श्रेष्ठ बनना चाहिए।
अग्नेनय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्॥
युजोध्यस्मज्हुराण मेने भूयिष्ठाँते नम उक्ति विधेम॥ - यजु0 40। 16
सत्य मार्ग से ही उन्नति प्राप्त करनी चाहिये। परमेश्वर सब कार्यों को यथावत् जानता है इसलिए उससे कोई भी पाप करके बच नहीं सकता। कुटेवों और पापों को शुद्ध करके दूर करना चाहिए और प्रतिदिन परमेश्वर की भक्ति तथा उपासना करनी चाहिये।
अतिक्रामन्तो दुरिया पदानि ।
शतंहिमाः सर्ववीरा मदेम ॥ -- अथर्व 12। 2। 24
मन से दुष्ट विचारों को दूर करना चाहिए। अच्छे निर्भय और धैर्यमय विचारों को अपने मन में धारण करना चाहिए और सौ वर्ष तक वीर पुरुषों के साथ आनन्द से जीवन व्यतीत करना चाहिए।