स्वस्तिक

December 1940

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(लेखक-विद्याभूषण पं. मोहन शर्मा, विशारद)

पूर्व सम्पादक ‘मोहिनी’

धर्म प्राण भारतवर्ष के धार्मिक इतिवृत्त में जिस भाँति वेदान्त ज्ञान को प्रधानता दी गई है और जिसकी गम्भीरता तथा सत्यता को प्रकारान्तर से समस्त भूमण्डल के तत्वज्ञानियों ने उन्मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है। उसी भाँति एतद्देशीय धार्मिक चिन्हों में ‘स्वस्तिक’ " की प्राचीनता, समीचीनता और उपादेयता आदि सर्वतोभावेन अपरिहार्य है और इसका पृथ्वी के सुदूर देशों तक में धार्मिक कार्यों से लेकर राष्ट्रीय कार्यों तक के लिये मंगल भावना की पवित्रता के नाम पर विविध रूप से प्रयोग अथवा व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। जीवन विज्ञान का प्रकृत रूप से प्रबोध कराने वाले वेदादि ग्रन्थों में जहाँ चक्र रूपी धार्मिक चिन्ह का उल्लेख हुआ है, वहाँ स्वस्तिक का पूर्ण भावार्थ उससे हम लेते हैं। स्वस्तिक ‘ॐ’ अथवा ‘0’ शून्य का ही दूसरा स्वरूप है। शून्य से उत्पत्ति होकर शून्य में ही सृष्टि का लय होता है। श्वक्द्गह्ब्ह्लद्धद्बठ्ठद्द ष्ड्डद्वद्गह्य ह्लश भ्द्गह्श. की थ्योरी इसी माँगलिक चिन्ह ‘स्वस्तिक’ में सन्निहित है। ॐ’ के और ‘शून्य’ के इस दूसरे स्वरूप को केवल पवित्र और कल्याणकारी ही नहीं माना गया अपितु समग्र संसार का प्राकृतिक सुख और शान्ति इसी एक चिन्ह में केन्द्रित है। उनकी सत्ता इसी स्वस्तिक में समाई है। ऐसा आर्य ग्रन्थों और सद्गुरु के अनमोल, सुनहरी वचनों से प्रमाणित है।

विश्व की प्रत्येक सभ्य और प्राचीन जाति के अपने अपने अलग धार्मिक या राष्ट्रीय चिन्ह मिलते हैं। इन पवित्र धार्मिक चिन्हों (Religious Inscriptions) और संसार प्रसिद्ध भाषाओं की लिपिओं (Scripts) के इतिहास को उलटने से हम मानव मस्तिष्क की अनुसन्धानमयी सूझों और विकासोन्मुख बुद्धि के अपूर्व चमत्कारों को समझने का बल प्राप्त करते हैं। पृथ्वी की अन्य सभ्य जातियाँ प्रश्न गौण रखकर तब की आर्य और अब की हिन्दू जाति के प्रचलित धार्मिक चिन्हों और विविध जन्मों पर ही हम विवेक की दृष्टि से सोचने बैठें तो यह विषय, एक अबूझ पहेली जैसा ही जान पड़ेगा। क्योंकि इन चिन्हों का देश में प्रचार और व्यवहार जारी रहने पर भी काल और अवस्था के भेदानुसार इनका महत्व और यथार्थता जन साधारण के ज्ञान के क्षेत्र से कोसों दूर जा छिपे हैं। इस विषय में विरोधियों के तर्क और युक्तियों को विफल सिद्ध करने वाली कोई पुस्तक भी सुप्राय नहीं है, जिसमें इनका साँगोपाँग वर्णन दिया गया हो। कई वर्ष पूर्व हिंदी भाषा में धार्मिक पवित्र चिन्हों पर एक हस्तलिखित पुस्तक जिसमें संशोधन और सुधार की गुंजाइश थी, श्री पं. ईशनारायण जोशी, हस्तरेखा विशारद के संग्रहालय में मैंने देखी थी। वह किन्हीं अबाध्य कारणों से अब तक प्रकाशित नहीं हो सकी। सम्भवतः देश के अन्य किसी विद्वान ने भी इस ओर मनोयोग दिया हो, पर जहाँ तक मुझे पता है इस ढंग की कोई भी पुस्तक देश के किसी भी उन्नत भाषा साहित्य में अद्यावधि प्रकाशित नहीं हुये। चिन्ह और लिपिशास्त्र के विद्वानों की प्रतिभा का सुन्दर उपयोग होने के लिये यह क्षेत्र आज भी खाली पड़ा है।

वेदादि ग्रन्थों के अतिरिक्त पुराण ग्रन्थों को टटोलने पर गणेश पुराण में स्वस्तिक का कई स्थलों पर स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। गणेश पुराण के मतानुसार भी स्वस्तिक ‘ॐ’ का ही प्रतिरूप सिद्ध है। कल्याण, शुभ, लाभ और मंगल का जो भाव है, उसी का नाम स्वस्तिक है। गणेश पुराण में उल्लेख है कि स्वस्तिक, गणपति, गजानन(!) का स्वरूप है। माँगलिक कार्यों में इसकी प्रतिष्ठा अनिवार्यतः आवश्यक है। अतः इसे नियमानुसार प्रतिष्ठित न किया जाय और आरम्भ में न बनाया जाय तो कार्य की सिद्धि नहीं होती, ऐसा भाव एतद्देशीय हिन्दू जाति में स्मरणातीत काल से ही दृढ़ीभूत अवस्था में पाया जा रहा है।

समुद्र मन्थन की जग प्रसिद्ध दैवी घटना के समय भयंकर कालकूट की उत्पत्ति होने पर समग्र पृथ्वी के जीव कण्ठ गत प्राण हो चुके थे। तब जगतजननी महामाया पार्वती ने संसार को इस महान् दुख से निष्कृति दिलाने के निमित्त अपने शरणायन्न देव और दनुजों को उपदेश दिया कि हे देव! और दैत्य तुमने ‘स्वस्तिक’ रूपी गणध्यक्ष गणपति की पूजा−अर्चा नहीं की, इसी कारण पृथ्वी में यह संहार का दुदृश्य उपस्थित हुआ है। तब दैव और दनुजों ने ‘स्वस्तिक’ प्रथम गणपति का स्वरूप बनाकर लिखा और तब महामाया पार्वती के स्नेहानुरोध तथा प्रार्थना करने पर त्रिशूलपाणि, त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर महादेव क्षण में कालकूट का पान कर गये। तभी से मृत्युँजय! भगवान् शंकर का कालकूट नाम पड़ा। कहने का तात्पर्य यह कि समुद्र मन्थन की घटना के पीछे भी ‘स्वस्तिक’ का अपना सुनहला इतिहास छिपा है। संसार के उस महान दैवी संकट में स्वस्तिक की उपयोगिता दुख निवारणार्थ किस रूप में कारणभूत हुये, यह इस घटना से स्पष्ट प्रगट है।

धन लाभ, विजय प्राप्ति, सुख और कीर्ति की उपलब्धि तथा परलौकिक सुगति के प्रीत्यर्थ भी भारत की विभिन्न जातियों में लोग स्वस्तिक की मर्यादा मानने और पालने के अभ्यासी हैं। भारतवर्षीय वणिक समाज में स्वस्तिक का स्थान और प्रयोजनीयता और भी महत्वपूर्ण है। उनके गृह, द्वार तिजोरियाँ, बही-खाते आदि लक्ष्मी और सिद्धि की प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से सिन्दूर रंजित स्वस्तिक द्वारा सदैव अभिषिक्त रहते हैं। दीपोत्सव पर लक्ष्मी पूजा में स्वस्तिक को जिस भाँति प्रधानता दी जाती है वह किसी से अप्रकट नहीं है। इस प्रकार भारतीयों की धार्मिक दृष्टि में ‘स्वस्तिक’ कल्याण का प्रदाता, मोक्ष का दाता और अष्ट-सिद्धि नवनिद्धि की प्रकृत वृष्टि करने वाला सिद्ध है। दूसरे शब्दों में “स्वस्तिक” स्वमेव स्वस्ति और मंगल का स्वरूप है। जीवन के द्वंद्व-द्वेष, कलह, विघ्न, कठिनाइयाँ इससे कट जाती हैं। उनके अग्रिम परिहार का एकमात्र धार्मिक उपाय, शुभ और माँगलिक कार्यों में स्वस्तिक का विधिवत् प्रयोग होना है। पहिले की आर्य और अब की हिन्दु जाति सदैव काल से पुण्यानुष्ठान आदि में स्वस्तिक को मान्यता देती आई है, आज भी दे रही है और भविष्य में भी इसी भाँति प्रतिष्ठा और मान्य देती जायेगी।

चर्खा जिसे मैं अपनी भाषा में चक्र भगवान ही कहूँगा, हिन्दुओं का एक प्राचीनतम अस्त्र है। यद्यपि विश्ववंद्य महात्मा गाँधी के सदुपदेश से हिंदू जाति का ध्यान अब पुनः चर्खे के प्रति आकृष्ट हुआ है परन्तु प्राचीनकाल में यह चर्खा इस देश की राष्ट्रीय ही नहीं अपितु महान धार्मिक निधि के रूप में परिगणित होता था। सुप्रसिद्ध ग्रन्थ वृतराज में उल्लेख आया है कि इस देश की स्त्रियों के पक्ष में सिंही की संक्रान्त के दिन चर्खे का वृत्त रखना और पुरोहित से चर्खे की कथा सुनना विधेय था। हिन्दु स्त्रियाँ आज के दिन चर्खे को धो पोंछकर उसमें सिन्दूर रंजित स्वस्तिक अंकित करती थीं यह वृत और त्यौहार काल और अवस्था के भेदानुसार अब हिन्दु समाज से लुप्त प्रायः हो गया है। अब कहीं भी हिन्दु रमणियाँ चर्खे का वृत देखकर उसमें स्वस्तिक की प्रतिष्ठा करती हुई नहीं देखी जातीं। अस्तु,

इस अवनीतल पर भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है, जहाँ हिन्दुओं के मन्दिर, जैनियों के देवालय, चैत्यालय, बौद्धों के उपासना गृह, यहूदियों के सिनोगोंग, पारसियों के अग्नि मन्दिर, मुसलमानों की मस्जिदें और ईसाइयों के गिरजे एक साथ मिलते हैं, यदि विवेकपूर्वक सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो आर्यों के इस पवित्रतम धार्मिक चिन्ह स्वस्तिक को किसी न किसी रूप में इन मन्दिरों ओर इबादतगाहों के लिए, धर्मकार्यों के लिये सबने ही माना है। पारसी लोग आतिशपरस्त अर्थात् अग्नि पूजक कहलाते हैं इनमें धरित्री के क्रोड़ पर भाँति-2 के धार्मिक चिन्ह लिखने की आर्यों जैसी ही प्रथा प्रचलित है।

कविता-कुंज


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