अभिलाषा का अभिशाप

December 1940

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(श्रीमती सावित्री देवी तिवारी, जयपुर)

इस क्षणभंगुर विश्व को जब हम आवश्यकता से अधिक प्रेम करने लग जाते हैं तब हमारा मधुर जीवन दुखों के अग्निकुण्ड में स्वाहा होने लगता है। नहीं-नहीं कहते हुए भी अपना पैर बराबर क्लेशों की कीचड़ में फंसा लेते हैं। क्या आपने सोचा कि इसका कारण क्या है? अनावश्यक अभिलाषा इसका कारण है। अभिलाषा से एकाँगी सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों का जीवन सदैव न बुझने वाली अग्नि में धाँय धांय जलता रहता है उनके मुख पर न तो मृदुल हास्य होता है और न प्रसन्नता अठखेलियाँ करती दिखाई देती है।

यह सत्य है कि मनुष्य का जीवन मरण एक बलवती अभिलाषा के ही कारण होता है। उसके विभिन्न रूप विभिन्न चरित्र अभिलाषाओं की छायाएं हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सचाई है कि हम संसार की किन्हीं वस्तुओं से पूर्णतः उदासीन नहीं हो सकते। अभिलाषा की इस अनिवार्य सत्ता के विरुद्ध कुछ कहने का मेरा आशय नहीं है। वहाँ मुझे इतना ही कहना है कि अनावश्यक अभिलाषाएं त्याज्य हैं।

शेखचिल्ली के से मनसूबे न बाँधकर यदि आवश्यक कर्त्तव्य कर्मों की इच्छा की जाय तो मानव जीवन बहुत सरल और सुखमय हो सकता है। आवश्यक इच्छाएं सात्विक होती हैं इसलिए उनमें आँधी का सा प्रबल वेग और भूकम्प का सा हाहाकार नहीं होता। चटोरी जीभ वाला कुत्ता पेट भरा होने पर भी भोजन पर ललचाई दृष्टि डालता है। ऐसे लोगों की जीवन सरिता टेड़े-मेड़े मार्गों पर टकराती रहती हैं उनका हृदय अतृप्त तृष्णा की तप्त लौ में जलता रहता है।

हम कितनी ही इच्छा करें? इसका परिणाम जीवन उद्देश्य की तराजू में तोला जाना चाहिये। जीवन दैवत्व का प्रतिबिम्ब है। ईश्वर की इच्छा है कि मनुष्य प्रेम, सत्य, और उदारता का जीवन व्यतीत करे और पूर्णता को प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त और कोई उद्देश्य हो ही नहीं सकता। इन्द्रियों का सुखोपभोग वैसा है जैसा कुत्ता सूखी हड्डी चबाने पर अपने जबड़ों से निकला हुआ रक्त पीकर प्रसन्न होता है। असल में इन्द्रियों के सुख सुख की भ्रमपूर्ण कल्पना मात्र हैं-अन्यथा सुखी दिखाई देने वाले सब लोग भीतर ही भीतर आन्तरिक उद्वेगों से क्यों जलते रहते? सभी दार्शनिक दृष्टियाँ बताती है कि मनुष्य का उद्देश्य पवित्रता और पूर्णता का ही स्वप्न देखने वाला होना चाहिए। इसके अतिरिक्त और जो अभिलाषाएं बच रहती हैं वह आवश्यक हैं।

नौकर अपने निर्वाह के लिये वस्तुएं प्राप्त के लिये दत्त चित्त होकर काम करता रहता है। मधु मक्खियाँ शहद इकट्ठा करने के लिये कठोर परिश्रम करती हैं। प्रकृति का प्रत्येक परमाणु अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये अविरल गति से चल रहा है तो क्या हमें अपने महान उद्देश्य की पूर्ति के लिये अभिलाषा का आश्रय न करना चाहिये?

हम पवित्रता और पूर्णता के लिये आवश्यक अभिलाषा करें तो यह अभिलाषा ही शान्ति, सन्तोष प्रेम और सौंदर्य के रूप में हमारे चेहरों पर खिल पड़ेगी और जीवन का उपाय सुरक्षित सुगन्ध से भर जायेगा।

परन्तु साँसारिक, तुच्छ, स्वार्थपूर्ण इन्द्रियों के सुखोपभोग करने की अभिलाषाएं करें तो वही अशान्ति और क्लेश का रूप धारण करके अंधेरी रात के समान सामने आ खड़ी होगी। ऐसी अभिलाषाएं मनुष्य जीवन के लिये अभिशाप ही हो सकती हैं।


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