गुरुदेव के स्मरण में शिष्यों के समर्पण की ऊर्जा समायी है। स्मरण जितना सघन होता है-समर्पण उतना ही तीव्रतर हो जाता है। गुरु पूर्णिमा की पावनता की छुअन ने आज इन दोनों में नव प्राण भर दिए हैं। स्मरण और समर्पण के अनगिनत भक्ति स्पन्दनों से अंतर्मन स्पन्दित है। प्रकाश की पवित्र धाराओं को प्रवाहित करते अपने आराध्य के नेत्र आज भी शिष्यों के अंतर्गगन में दो महासूर्यों की भाँति प्रकाशित हैं।
स्मरण पट पर अंकित है उस छुअन का अहसास, जो गुरुदेव के श्री चरणों में माथा टेकने पर मिलता था। उनकी प्रेरक और ऊर्जावान वाणी, जो शिष्य-समुदाय को सदा नवजीवन देती थी। जिसके श्रवण मात्र से शिष्यों की चेतना में नवीन आयाम खुलते थे। समर्पण की निष्ठ महासुदृढ़ होती थी। कितनी ही बातें, कितनी ही यादें आज शिष्यों की अन्तर्चेतना में भक्ति का भाव समुद्र बनकर उफन रही हैं। आज यदि कोई पूछे कि गुरुदेव कहाँ हैं? तो इसका बड़ा ही अनुभूति पूर्ण उत्तर है- वह अपने शिष्यों के भक्ति से भरे हृदय में हैं।
हमारे प्रभु देहातीत होकर अपने शिष्यों की भाव चेतना में संव्याप्त हो गए हैं। शिष्यों की पुलक में-रुदन में, कसक में-टीस में, भक्ति में-अनुरक्ति में, व्याकुलता में-विह्वलता में, पूजा में-प्रेम में, विरह में-वियोग में वही, एक मात्र वही अभिव्यक्त होते हैं। यह सच है कि उनकी हर याद तड़पाती है, पर यह भी सच है कि वही याद समर्पण की महादृढ़ता भी बनती है। स्मरण और समर्पण दो दिखते हुए भी दो नहीं हैं। जो स्मरण है- वही समर्पण है। जहाँ स्मरण है, वही समर्पण भी है।
गुरु पूर्णिमा की पावनता में यदि स्मरण की तीव्रता बढ़ी है, तो समर्पण की दृढ़ता भी सघन हुई है। गुरुदेव की यादें शिष्यों के मन में आज केवल पुलकन और पूजा के अहसास ही नहीं लिए हैं, इसमें समर्पण की महा निष्ठा भी समायी है। संकल्प की यह महाहुँकार भी है- हे गुरुदेव! तुम्हारे द्वारा गढ़े-सँवारे गए इस जीवन पर अब सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा अधिकार है। हे अन्तर्यामी! हम सदा तुम्हारे लिए, तुम्हारी परा चेतना में विलीन होने के लिए तिल-तिल कर गलते रहेंगे- तिल-तिल कर जलते रहेंगे। तुम्हारा स्मरण-तुम्हें ही समर्पण- हमारा जीवन ध्येय है।