प्रभु की भूख (kahani)

July 2003

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विदुर जी ने जब देखा कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ रहे तो सोचा कि इनका सान्निध्य और इनका अन्न मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा, इसलिए वे नगर के बाहर वन में कुटी बनाकर पत्नी सुलभा सहित रहने लगे। जंगल से भाजी तोड़ लेते, उबालकर खा लेते तथा सत्कार्यों में, प्रभु-स्मरण में समय लगाते।

श्री कृष्ण जब संधिदूत बनकर गए और वार्त्ता असफल हो गई तो वे धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार करके विदुर जी के यहाँ जा पहुँचे। वहाँ भोजन करने की इच्छा प्रकट की। विदुर जी को यह संकोच हुआ कि शाक प्रभु को परोसने पड़ेंगे। पूछा, “आप भूखे भी थे, भोजन का समय भी था और उनका आग्रह भी, फिर आपने वहाँ भोजन क्यों नहीं किया?”

भगवान बोले, “चाचाजी, जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा, जो आपके गले न उतरा, वह मुझे भी कैसे रुचता! जिसमें आपने स्वाद नहीं पाया, उसमें मुझे स्वाद कैसे मिलता, ऐसा आप कैसे सोच लिए ” विदुर जी भावविह्वल हो गए प्रभु के स्मरण मात्र से हमें जब पदार्थ नहीं, संस्कार प्रिय लगने लगे हैं तो स्वयं प्रभु की भूख पदार्थों से कैसे बुझ सकती है! उन्हें तो भावना चाहिए। उस  विदुर-दंपत्ति के पास कहाँ कमी थी! भाजी के माध्यम से वही दिव्य आदान-प्रदान चला। दोनों धन्य हो गए।


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